पिछले सप्ताह केंद्र सरकार ने दो महत्त्वपूर्ण राजनीतिक प्रस्ताव लाकर सबको चकित कर दिया। पहले सरकार ने 18 से 22 सितंबर के बीच संसद का विशेष सत्र आयोजित करने की घोषणा कर दी। हालांकि, सरकार ने यह सार्वजनिक नहीं किया कि विशेष सत्र की कार्य सूची क्या होगी। मगर सरकार की तरफ से जो दूसरी राजनीतिक घोषणा की गई वह अधिक चौंकाने वाली थी।
सरकार ने कहा कि देश में लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ आयोजित करने की संभावनाओं का पता लगाने के लिए पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता में एक उच्च स्तरीय समिति गठित की गई है। गृह मंत्री अमित शाह, राज्यसभा में विपक्ष के पूर्व नेता गुलाम नबी आजाद, 15वीं वित्त आयोग के पूर्व चेयरमैन एन के सिंह, लोकसभा के पूर्व महासचिव सुभाष कश्यप और पूर्व मुख्य सतर्कता अधिकारी संजय कोठारी समिति के अन्य सदस्य होंगे। लोकसभा में कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी को इस समिति में शामिल किया गया था, मगर उन्होंने यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया।
दिलचस्प बात यह है कि इस समिति का गठन ऐसे समय में हुआ है जब देश में एक के बाद एक कई चुनाव होने वाले हैं और अगले वर्ष लोकसभा चुनाव संपन्न होने के बाद यह प्रक्रिया समाप्त होगी। जहां तक समिति के सदस्यों के चयन की बात है तो यह बिंदु विचारणीय है कि चुनावों के समय में संशोधन लाने का प्रस्ताव राजनीतिक विषय है, इसलिए इसमें अधिक प्रतिनिधित्व होना चाहिए था।
समिति लोकसभा, राज्य विधानसभाओं, नगर निगम और पंचायतों के चुनाव एक साथ आयोजित करने से संबंधित संवैधानिक एवं अन्य पहलुओं पर विचार करेगी और अपने सुझाव सरकार को सौंपेगी। देश में सभी स्तरों का चुनाव एक साथ आयोजित करने का विषय नया नहीं है और इसकी पहले भी विवेचना हो चुकी है। विधि आयोग और व्यक्ति, लोक शिकायत, विधि एवं न्याय पर विभाग-संबंधित संसद की स्थायी समिति भी इस प्रस्ताव का अध्ययन कर चुकी है। वास्तव में देश में 1952 से 1967 तक लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ ही हो रहे थे। मगर 1968 और 1969 में विभिन्न कारणों से कार्यकाल पूरा होने से पहले ही राज्य विधानसभाओं के भंग होने के बाद चुनाव आयोजित करने के समय बदल गए। कई बार लोकसभा भी समय से पहले भंग हो चुकी है।
लोकसभा एवं राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराने का प्रस्ताव का आधार कम से कम सिद्धांत रूप में मजबूत प्रतीत होता है। यद्यपि, आदर्श आचार संहिता से विकास कार्य प्रभावित होते हैं मगर इससे भी बड़ी समस्या यह है कि राजनीतिक दल लगातार चुनाव अभियान में लगे रहते हैं, जिससे नीति-निर्धारण पर प्रतिकूल असर होता है। अंतरराष्ट्रीय बाजार के अनुसार ईंधन के मूल्य तय करने में भी कई बार चुनावी नफा-नुकसान के चक्कर में देर हो जाती है। चुनाव साथ-साथ कराने का एक लाभ यह भी होगा कि धन की बचत- सरकारी कोष एवं राजनीतिक दल दोनों के लिए- होगी। हालांकि, जैसा कि पिछली कई रिपोर्ट में रेखांकित किया गया है, संविधान एवं अन्य कानूनों- लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 आदि- में संशोधन के अतिरिक्त कुछ व्यावहारिक कठिनाइयां भी होंगी।
राज्य विधानसभाओं या लोकसभा के समय पूर्व भंग होने की आशंका बनी रहेगी। इन स्थितियों में निर्धारित समय से पहले चुनाव नहीं कराने के दूसरे परिणाम भी हो सकते हैं। यह सुझाव दिया गया था कि विधानसभाओं का कार्यकाल बढ़ा दिए जाए या एक सीमा तक इसे कम कर दिया जाए। लोकसभा के निर्धारित कार्यकाल से पहले भंग होने की स्थिति से बचने के लिए विधि आयोग और चुनाव आयोग ने सुझाव दिया था कि अविश्वास प्रस्ताव के साथ एक वैकल्पिक सरकार के लिए विश्वास का प्रस्ताव भी रखा जाए। मगर यह एक पर्याप्त समाधान नहीं होगा।
सरकार के पास सदन का विश्वास होना महत्त्वपूर्ण है, भले ही विपक्ष एक वैकल्पिक सरकार देने में स्वयं को समर्थ पाए या नहीं। इस प्रकार, कोविंद समिति को ऐसे सभी सुझावों पर सावधानी से विचार करना होगा। समिति चाहे तो अपने सुझाव सौंपने से पहले व्यापक विचार-विमर्श कर सकती है और ऐसा करना उचित भी होगा। सरकार के लिए भी आवश्यक है कि वह इस प्रस्ताव पर किसी तरह की जल्दबाजी नहीं दिखाए क्योंकि इन बदलावों के महत्त्वपूर्ण राजनीतिक परिणाम हो सकते हैं।