सॉवरिन गोल्ड बॉन्ड को नवंबर 2015 में पेश किया गया था। इस समाचार पत्र में प्रकाशित एक खबर के मुताबिक अब उन्हें बंद किया जाने वाला है। सरकार ने चालू वित्त वर्ष में 18,500 करोड़ रुपये के गोल्ड बॉन्ड जारी करने की बात बजट में कही थी। लेकिन, अब तक उसने इन्हें जारी नहीं किया है।
गोल्ड बॉन्ड आठ साल में परिपक्व होते हैं और उनके परिपक्वता मूल्य पर 2.5 फीसदी वार्षिक ब्याज दिया जाता है। उन्हें सोने की मौजूदा दर पर भी भुनाया जा सकता है। वे सरकारी खजाने पर भारी पड़ रहे हैं और चूंकि ये अपने मूल लक्ष्य में कामयाब नहीं हो रहे, इसलिए उन्हें बंद किया जाना स्वागतयोग्य होगा। इन्हें इस बात का उदाहरण माना जाना चाहिए कि कैसे एक नीतिगत उपाय का इस्तेमाल अलग-अलग समस्या हल करने के लिए किया जाना खतरनाक हो सकता है।
जब उन्हें पेश किया गया था तब उम्मीद की गई थी कि वे कई काम करेंगे। मसलन वे सोने की मांग को नियंत्रित करेंगे जो भारत में हमेशा से ऊंची रही है, वे पारिवारिक बचत वित्तीय तंत्र में पहुंचाने का एक और रास्ता सुझाएंगे, वे सरकारी खजाने में इजाफा करेंगे, भारत भुगतान संतुलन संकट से उबरा ही है और ऐसे में वे सोने का आयात कम करेंगे। इस संकट में सोने के भारी भरकम आयात पर होने वाले खर्च का बड़ा हाथ था। ऐसा नहीं लगता है कि इस बात पर विचार भी किया गया कि इनमें से किसी एक लक्ष्य में मिली कामयाबी दूसरे के लिए नुकसानदेह हो सकती है। न ही विनिमय दर जोखिम या जिंस कीमतों के जोखिम का सही अनुमान लगाया गया।
वास्तव में 2015 से अब तक सोने की कीमतों में जो इजाफा हुआ है उसने सॉवरिन गोल्ड बॉन्ड को काफी आकर्षक बना दिया। वार्षिक चक्रवृद्धि दर के अनुसार सोने की कीमतों में 2011 से 11 फीसदी का इजाफा हुआ है। जब इसमें 2.5 फीसदी की ब्याज दर को शामिल कर दिया जाता है तो प्रभावी सीएजीआर 13 फीसदी से अधिक हो जाती है।
इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि इन बॉन्ड को पूंजीगत लाभ कर से भी रियायत दी गई। यह बात भी ऐसे समय में सरकार की बजट की कवायद को मुश्किल बनाने वाली है जब वह अपना राजकोषीय घाटा कम करने का प्रयास कर रही है। इतना ही नहीं रकम हासिल करने के स्रोत के रूप में भी यह नियमित बॉन्ड बाजार से महंगा है। यह धारणा गलत साबित हुई कि सरकार भारतीयों की सोने की ललक का इस्तेमाल ऋण पर अपना खर्च कम करने में कर लेगी। ऐसे में योजना को बंद करना आश्चर्य की बात नहीं है।
अधिकारी यह दलील दे सकते हैं कि योजना अपना समय पूरा कर चुकी है क्योंकि भारत का चालू खाते का घाटा अब दिक्कतदेह नहीं रहा है। यह सही है कि भारत में पूंजी की आवक उसके आयात की भरपाई के लिहाज से पर्याप्त है। मगर ऐसा नहीं है कि सोने की घरेलू मांग में कमी ने इसमें हमारी मदद की हो। यह कवायद दिखाती है कि इस तरह घरेलू मांग में हेरफेर करने वाली योजनाएं किस तरह निरर्थक साबित होती हैं।
बीते एक दशक में सोने पर सीमा शुल्क पहले 15 फीसदी बढ़ाया गया ताकि घरेलू मांग कम की जा सके। इससे तस्करी को बढ़ावा मिला। इस बीच वैश्विक स्वर्ण कीमतों में इजाफा हुआ। जाहिर है सॉवरिन गोल्ड बॉन्ड योजना तैयार करने वालों का ऐसा अनुमान नहीं था। अब सरकार ने स्वर्ण आयात पर शुल्क कम करके छह फीसदी कर दिया है और वह बॉन्ड को समाप्त करने वाली है। जहां तक सोने के आयात की बात है तो देश की घरेलू मांग के ढांचे में सुधार के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया। राजकोष ने जरूर बहुत सारा पैसा गंवाया है।