प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (PM Narendra Modi) ने रविवार को तीसरी बार पद एवं गोपनीयता की शपथ ली। उनके साथ मंत्रिमंडल के सहयोगियों ने भी शपथ ग्रहण की। भारत जैसे विविधता से भरे लोकतंत्र में दो सफल कार्यकाल के बाद तीसरी बार पद पर लौटना सराहनीय तो है किंतु इस बार मोदी सरकार चलाने के लिए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) के साझेदारों पर निर्भर रहेंगे।
नई सरकार की बुनियादी प्राथमिकताएं जहां आने वाले दिनों में हमारे सामने होंगी, वहीं चिंता इस बात की भी है कि कहीं गठबंधन सरकार में सुधारों को अंजाम देना मुश्किल न साबित हो।
बहरहाल अनुभव तो यही बताते हैं कि गठबंधन सरकारें न केवल प्रभावी ढंग से काम करती हैं बल्कि वे ढांचागत सुधारों को भी अंजाम देती हैं। भारत को अगर मध्यम अवधि में निरंतर उच्च आर्थिक वृद्धि हासिल करनी है तो उसे निरंतर सुधारों को अपनाना होगा। यह बात ध्यान देने लायक है कि बहुप्रतीक्षित कारक बाजार सुधारों को अंजाम देने का काम तो एक पार्टी के बहुमत वाली सरकारों में भी मुश्किल साबित हुआ है।
ऐसे सुधारों पर सहमति बनाने में अवश्य समय लग सकता है लेकिन सरकार ऐसी पहल से शुरुआत कर सकती है जिन पर साझेदारों को आपत्ति होने की संभावना नहीं है।
उदाहरण के लिए सरकार को वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी (GST) की दरों और स्लैब को युक्तिसंगत बनाने की प्रक्रिया जीएसटी परिषद में शीघ्र शुरू करनी चाहिए। हालांकि हाल के वर्षों में जीएसटी संग्रह में सुधार हुआ है। इसकी वजह अनुपालन में सुधार है किंतु दरों की बहुलता के कारण अप्रत्यक्ष कर व्यवस्था का प्रदर्शन कमजोर रहा है। इससे केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर राजकोषीय परिणाम प्रभावित हुए हैं।
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एक सामान्य जीएसटी प्रणाली जिसमें सीमित स्लैब हों, वह राजस्व में बेहतरी लाएगी और कारोबारी सुगमता को भी बेहतर बनाएगी। इसके अतिरिक्त भाजपा (BJP) के चुनावी घोषणा पत्र में कम से कम तीन ऐसे प्रमुख वादे किए गए जिन पर तत्काल अमल शुरू किया जा सकता है।
भारत में पिछली जनगणना 2011 में हुई थी
इनमें से पहला है देश की सांख्यिकीय व्यवस्था। भारत जैसे तेजी से विकसित होती अर्थव्यवस्था वाले देश में यह अहम है कि आंकड़ों की गुणवत्ता विश्वसनीय हो। ऐसे आंकड़े सरकारी और निजी दोनों स्तरों पर निर्णय लेने की प्रक्रिया को बेहतर बनाने में मददगार साबित होंगे।
भारत में पिछली जनगणना 2011 में हुई थी। सरकार ने काफी अंतराल के बाद हाल ही में उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के आंकड़े जारी किए हैं लेकिन अर्थशास्त्रियों का कहना है कि सकल घरेलू उत्पाद और उपभोक्ता मूल्य सूचकांक श्रृंखला में संशोधन के पहले एक और बार ऐसा करना चाहिए।
भारत को उत्पादक मूल्य सूचकांक की भी आवश्यकता है ताकि उत्पादन के बारे में बेहतर जानकारी मिल सके। इसके अलावा रोजगार के क्षेत्र में भी निरंतरता के साथ विश्वसनीय आंकड़े हासिल करना आवश्यक है। चूंकि कुछ संकेतक पुराने आंकड़ों पर आधारित हैं इसलिए शायद वे मौजूदा हालात को सही ढंग से सामने नहीं रख पा रहे हों। इससे नीतिगत निर्णय की गुणवत्ता प्रभावित होगी और आर्थिक परिणामों पर असर होगा।
दूसरा है अदालतों में लंबित मामलों के निपटारे के लिए राष्ट्रीय अभियोग नीति। विभिन्न अदालतों में करीब पांच करोड़ मामले लंबित हैं। भारत को अपनी न्यायिक क्षमता में सुधार करने की आवश्यकता है।
अदालतों में मामलों का तेज निपटारा कारोबारी सुगमता और देश में रहना दोनों को आसान बनाएगा। तीसरा है पंचायती राज संस्थानों में वित्तीय स्वायत्तता। सर्वाधिक विकसित तथा तेजी से विकसित होते देशों में बुनियादी सरकारी सेवाएं स्थानीय निकाय देते हैं।
भारत में स्थानीय निकाय ऐसे अनुदान पर आश्रित होते हैं जो अक्सर अपर्याप्त एवं अनियमित होता है। रिजर्व बैंक के एक हालिया अध्ययन से पता चलता है कि स्थानीय कर एवं शुल्क पंचायतों के कुल राजस्व में महज 1.1 फीसदी के हिस्सेदार होते हैं। स्थानीय निकायों का सशक्तीकरण एक अहम कदम होगा।
इसके लिए राज्यों के सहयोग की आवश्यकता होगी लेकिन इससे विकास संबंधी नतीजों में बेहतरी आएगी। कुल मिलाकर अगले पांच सालों में बेहतर नीतिगत नतीजे हासिल करने के लिए यह अहम है कि संसद को समुचित ढंग से काम करने दिया जाए। यह सरकार का दायित्व होगा कि वह विपक्ष के साथ सकारात्मक संबंध बनाए तथा बेहतर विधायी परिणाम हासिल करे।