सू क्ष्म, लघु एवं मझोले उद्यम (एमएसएमई) भारतीय अर्थव्यवस्था में महत्त्वपूर्ण योगदान देते हैं। सरकार ने जो आंकड़े दिए हैं उनके अनुसार सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में एमएसएमई के सकल मूल्य वर्द्धन (जीवीए) की हिस्सेदारी वर्ष 2022-23 में बढ़कर 30.1 प्रतिशत तक पहुंच गई, जो 2020-21 में 27.3 प्रतिशत दर्ज हुई थी। एमएसएमई क्षेत्र से निर्यात भी बढ़ा है। इस क्षेत्र से 2020-21 में लगभग 4 लाख करोड़ रुपये मूल्य का निर्यात हुआ था, जो 2024-25 में बढ़ कर 12.39 लाख करोड़ रुपये हो गया। आर्थिक वृद्धि में एमएसएमई के योगदान को ध्यान में रखते हुए उन्हें आगे बढ़ने के लिए अनुकूल एवं उपयुक्त माहौल देना चाहिए। उन्हें अनुकूल नीतियों के जरिये समर्थन भी दिया जाना चाहिए।
भारतीय उद्योग परिसंघ (सीआईआई) ने नीति फ्रंटियर टेक हब और अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद के साथ मिलकर बुधवार को एक प्लेटफॉर्म की शुरुआत की। इस प्लेटफॉर्म को डिजिटल एक्सीलेंस फॉर ग्रोथ ऐंड एंटरप्राइजेज या ‘डीएक्स-एज’ का नाम दिया गया है। यह प्लेटफॉर्म एमएसएमई को बदलते वक्त में प्रतिस्पर्द्धी बने रहने के लिए आवश्यक तकनीक एवं ज्ञान उपलब्ध कराएगा। सरकारी संस्थानों के साथ मिलकर एक औद्योगिक संगठन द्वारा की गई ऐसी पहल का अवश्य स्वागत किया जाना चाहिए क्योंकि वे लघु एवं मझोली कंपनियों को नई तकनीक के साथ आगे बढ़ने में मदद कर सकती हैं।
किंतु, लघु एवं मझोली कंपनियों के समक्ष तकनीक तक पहुंच हासिल करने की ही एकमात्र चुनौती नहीं है। नीति आयोग के मुख्य कार्याधिकारी बीवीआर सुब्रमण्यम ने ‘एक्स-एज’ की शुरुआत के अवसर पर कहा कि भारत में आर्थिक वृद्धि को रफ्तार देने के लिए पर्याप्त मझोली कंपनियां मौजूद नहीं हैं। सच्चाई तो है कि यह कोई नई समस्या नहीं है। भारत में छोटी आकार की कंपनियां बड़ी संख्या में मौजूद रही हैं किंतु उनमें अधिकांश अपना आकार या कारोबार बढ़ाने में विफल रहती हैं। वास्तव में, भारत सरकार के पूर्व आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम एवं अन्य लोगों द्वारा हाल में किए गए एक शोध में निकल कर आया है कि उनमें कुछ कंपनियां बड़ी मानी जा रही थीं किंतु वास्तव में असलियत कुछ और है और वे कई संयंत्रों से संचालन कर रही थीं। इसका परिणाम यह हुआ है कि वे अपने आकार का फायदा उठाने में सफल नहीं रही हैं। विभिन्न छोटे-छोटे संयंत्रों से परिचालन करने के कई कारण रहे हैं। उनमें एक यह है कि वे कानूनी एवं राजनीतिक जोखिम कम करने के इरादे से ऐसा करती हैं। कारोबार बढ़ने के साथ ही उद्यमियों के लिए नियमों का अनुपालन करना कठिन हो जाता है।
इससे श्रम का संविदाकरण बढ़ गया है। नियामकीय बाधाओं एवं कमियों के कारण भारतीय कंपनियों को अपना आकार बढ़ाने में दिक्कत महसूस हुई है जिससे विनिर्माण जीवीए कम रहा है। इसका एक परिणाम यह भी सामने आया है कि भारतीय श्रम बल का लगभग आधा हिस्सा कृषि क्षेत्र में ही लगा हुआ है और श्रम की पर्याप्त उपलब्धता का देश को पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाया है। यह तो मालूम ही है कि देश में मझोली आकार की कंपनियां अधिक नहीं है इसलिए समाधान पर भी चर्चा होती रही है। श्रम कानून इसी से जुड़ा हुआ है और नए श्रम कानून पारित भी हुए हैं, किंतु संबंधित हितधारकों के बीच आपसी सहमति नहीं होने के कारण वे लागू नहीं हो पाए हैं। विभिन्न स्तरों पर कानूनी एवं संचालन से जुड़ी कठिनाइयों को भी दूर करने की आवश्यकता है। संसद की लोक लेखा समिति ने इस सप्ताह अपनी रिपोर्ट में एमएसएमई एवं निर्यातकों को वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के अंतर्गत आ रही कठिनाइयों का उल्लेख किया है। इन मामलों का समाधान पूरी तत्परता के साथ किया जाना चाहिए।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल में डीरेगुलेशन आयोग का जिक्र किया था। ऐसा कोई आयोग अगर अस्तित्व में आता है तो इससे सरकार एवं नियामकों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में महत्त्वहीन हो चुके एवं अनावश्यक नियम-कायदों को समाप्त करने में काफी सहायता मिल सकती है। दुनिया में बढ़ती संरक्षणवादी मानसिकता को देखते हुए वैश्विक आर्थिक परिस्थितियां निकट भविष्य में अनुकूल नहीं रह सकती हैं। इसे देखते हुए वर्तमान परिस्थितियों में सरकार की नीति का लक्ष्य भारतीय कारोबार की राह से बाधाएं दूर करने और उन्हें आगे बढ़ने एवं प्रतिस्पर्द्धी बनाने पर केंद्रित होना चाहिए।