भारतीय रिजर्व बैंक (RBI) ने बुधवार को ऐलान किया कि उसके बोर्ड ने भारत सरकार को डिविडेंड (Dividend) के तौर पर दी जाने वाली राशि तय कर ली है। इसके बाद आया 2.11 लाख करोड़ रुपये का आंकड़ा चौंकाने वाला है।
केंद्रीय वित्त मंत्री द्वारा इस साल पेश वित्त वर्ष 2024-25 के अंतरिम बजट में रिजर्व बैंक से डिविडेंड के रूप में सिर्फ 1.02 लाख करोड़ रुपये मिलने का अनुमान लगाया गया था। इस तरह सरकार के लिए मौजूदा वित्त वर्ष में यह 1.09 लाख करोड़ रुपये के अप्रत्याशित लाभ जैसा है।
यह इसके बावजूद है कि रिजर्व बैंक के बोर्ड ने आकस्मिक जोखिम बफर को बढ़ाकर बहीखाते के 6.5 फीसदी तक करने का फैसला किया है जो कि कुछ साल पहले घोषित दिशानिर्देशों के तहत उच्चतम स्तर है। ऐसा उच्च धन हस्तांतरण सतह पर तो सुरक्षित लगता है। फिलहाल भारत की व्यापक आर्थिक स्थिरता को लेकर कोई वास्तविक चिंता भी नहीं है।
अतिरिक्त लाभांश से निश्चित रूप से अगली सरकार के लिए काम थोड़ा आसान हो जाएगा। जब जुलाई महीने में पूर्ण बजट पेश होगा तो यह उम्मीद है कि वित्त मंत्रालय इस अवसर का इस्तेमाल अपनी राजकोषीय मजबूती की प्रक्रिया को तेज करने के लिए करेगा।
सरकार के वित्त व्यवस्था पर अब भी कोरोना महामारी के कुछ प्रभाव दिख जाते हैं। महामारी आने से पहले राजकोषीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद (GDP) का 4.6 फीसदी था जो किसी भी लिहाज से ‘सामान्य समय’ के लिए काफी ज्यादा है। महामारी के वर्ष में जीडीपी में कमी और कुछ असाधारण कदम उठाने की मजबूरी की वजह से यह बढ़कर जीडीपी के 9 फीसदी से ज्यादा हो गया। हालांकि वित्त वर्ष 2024-25 के बजट अनुमान में यह अब भी 5 फीसदी से ज्यादा है।
इसलिए समझदारी इसी में है कि रिजर्व बैंक के इस धन हस्तांतरण का, जो कि जीडीपी के 0.3 फीसदी तक हो सकता है, इस्तेमाल राजकोषीय घाटे को 5 फीसदी से नीचे लाने के लिए किया जाए।
मौजूदा वित्त वर्ष में सरकार की सकल बाजार उधारी 14.13 लाख करोड़ रुपये तय की गई है और शुद्ध बाजार उधारी 11.75 लाख करोड़ रुपये होगी। अगर इस आंकड़े में कुछ कमी होती है इससे कर्ज प्रबंधन में मदद मिलेगी और सरकारी प्रतिभूतियों की यील्ड में गिरावट आएगी जो कि स्वागत योग्य बात होगी।
हालांकि, राजकोषीय टिकाऊपन के बड़े सवाल का समाधान होना चाहिए। सरकार लगातार केंद्रीय बैंक से हस्तांतरण या सार्वजनिक उद्यमों से मिलने वाले लाभांश पर निर्भर नहीं रह सकती। समुचित राजकोषीय प्रबंधन के लिए जरूरत इस बात की है कि सरकार देश में कर-जीडीपी अनुपात को बढ़ाए। यह वस्तु एवं सेवा कर (GST) को सुव्यवस्थित करने से हो सकता है। तो जीएसटी परिषद में जीएसटी दरों और स्लैब को वाजिब बनाने के लिए अगली सरकार को तत्काल कदम बढ़ाने होंगे।
अपरिपक्व तरीके से दरों में कटौती और कई स्लैब होने के कारण जीएसटी प्रणाली का प्रदर्शन कमजोर रहा है। प्रत्यक्ष कर सुधार के विचार पर भी नए सिरे से विचार होना चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि प्रत्यक्ष कर संहिता (डीटीसी) लाने की योजना में खास प्रगति नहीं हो पाई।
व्यय की बात करें तो सरकार ने ऊंची उधारी के दम पर पूंजीगत व्यय को बढ़ावा दिया है। लेकिन इस तरीके को बनाए रखने की भी एक सीमा है क्योंकि सरकार के आम बजट का घाटा और सार्वजनिक ऋण काफी ऊंचा है। इसके लिए ज्यादा उपयुक्त तरीका यह होगा कि मौजूदा सार्वजनिक क्षेत्र का विनिवेश किया जाए।
अब जबकि एयर इंडिया की सफल तरीके से बिक्री हो चुकी है, थोक में निजीकरण को वापस लाना होगा। अगले पांच वर्षों में सरकार के लिए यह अच्छा रहेगा कि विनिवेश पर जोर दिया जाए। रिजर्व बैंक के धन हस्तांतरण का तात्कालिक प्रभाव यह होगा कि वित्त मंत्रालय के राजकोषीय गणित को सरल बनाया जाए लेकिन दीर्घकालिक प्राथमिकताएं पहले जैसी ही रहेंगी।