अमेरिकी केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के पूर्व चेयरमैन एलन ग्रीनस्पैन ने 1988 में कहा था, ‘मुझे लगता है कि आपको चेतावनी देनी चाहिए। अगर आपको मेरी बातें एकदम स्पष्ट लग रही हैं तो शायद आपने मेरी बातों को गलत समझा है।’
तब से अब तक दुनिया भर में केंद्रीय बैंकिंग में काफी कुछ बदल चुका है। किसी बड़े केंद्रीय बैंक का कोई वरिष्ठ अधिकारी यह नहीं चाहता कि वित्तीय बाजार उसे किसी भी तरह गलत समझें। वास्तव में वे स्पष्टता सुनिश्चित करने की हर कोशिश करते हैं और नीतिगत निर्णयों को सही ढंग से आगे पहुंचाया जाता है।
संचार अब एक अहम उपाय है जिसका इस्तेमाल खासतौर पर बड़े केंद्रीय बैंकों द्वारा नीतिगत निर्णयों को न्यूनतम दिक्कतों के साथ अपनाने में किया जाता है। हाल के दशकों में केंद्रीय बैंकिंग के आकलन और भविष्य की संभावित चुनौतियों को लेकर भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने काठमांडू में एक भाषण में दिलचस्प ढंग से बात की। इसके कुछ पहलुओं पर व्यापक चर्चा से नीतिगत स्पष्टता बढ़ेगी।
केंद्रीय बैंकों के सामने भी हाल के दशकों में अहम चुनौतियां आईं। अधिकांश केंद्रीय बैंकों के सामने उच्च मुद्रास्फीति की समस्या है क्योंकि उन्होंने शुरुआती चेतावनी वाले संकेतों को गलत समझा। वैश्विक वित्तीय संकट से तुलना करें तो ये हालात काफी अलग थे। उस समय केंद्रीय बैंक अपस्फीति की स्थिति से बचने की कोशिश कर रहे थे। कुछ बैंकों ने ऋणात्मक ब्याज दर का विकल्प चुना तथा अन्य ने बहुत बड़े पैमाने पर क्वांटिटेटिव ईजिंग को अपनाया ताकि वास्तविक अर्थव्यवस्था को सामान्य बनाया जा सके।
ज्यादा वक्त नहीं हुआ जब इनमें से कुछ उपायों पर केवल सैद्धांतिक चर्चा होती थी। हालांकि संकट की प्रकृति अलग थी। वैश्विक वित्तीय संकट के बाद के तौर तरीकों को कोविड-19 महामारी के दौरान लागू किया गया। उभरते बाजारों के केंद्रीय बैंकों की स्थिति अधिक जटिल रही है। उनको विकसित देशों में विस्तारित अवधि तक लागू नीतियों के छिटपुट प्रभाव से भी निपटना पड़ा है।
2013 में टैपर टैंट्रम (फेडरल रिजर्व द्वारा बॉन्ड खरीद कम करने की घोषणा के बाद मची उथलपुथल) के बाद भारतीय नीति निर्माताओं ने वृहद आर्थिक स्थिरता मजबूत करने पर ध्यान दिया। इससे भारत को हाल के वर्षों में वैश्विक प्रभावों से निपटने में मदद मिली। दास ने भविष्य की चुनौतियों के अहम पहलुओं को भी रेखांकित किया।
उदाहरण के लिए जलवायु परिवर्तन नीतिगत जटिलता बढ़ा सकता है। इससे कीमतों और मूल्य स्थिरता दोनों के लिए जोखिम बढ़ सकता है। भारतीय संदर्भ में जहां खाद्य पदार्थ खपत का एक बड़ा हिस्सा हैं वहीं जलवायु झटके शीर्ष मुद्रास्फीति दर को लंबी अवधि तक ऊपर रख सकते हैं और नीतिगत प्रतिक्रिया में वृद्धि का त्याग करना पड़ सकता है।
निरंतर भूराजनीतिक तनाव के कारण गंभीर चुनौतियां उत्पन्न हो सकती हैं और आपूर्ति श्रृंखला और पूंजी प्रवाह बाधित हो सकता है। एक अन्य पहलू है तकनीक का विकास। तकनीक ने हाल के वर्षों में बैंकिंग और वित्तीय क्षेत्र का चेहरा बदल दिया है और उसने वित्तीय समेकन बढ़ाने में मदद की है। हालांकि यह एक नई तरह की चुनौतियां भी लाती है।
उदाहरण के लिए बैंकिंग एक अस्थिर कारोबार है और भरोसे पर चलता है। विश्वास भंग होने की स्थिति में बैंकों से बहुत तेजी से जमा राशि बाहर जाती है। गत वर्ष अमेरिका में मिनी बैंकिंग संकट के समय ऐसा ही हुआ था। वित्तीय तंत्र की अंत: संबद्धता को देखते हुए कोई भी बड़ा वित्तीय संस्थान व्यवस्थागत जोखिम का शिकार हो सकता है।
ऐसे में यह अहम है कि सभी नियमित वित्तीय संस्थान हमेशा अच्छी स्थिति में रहें। रिजर्व बैंक की बात करें तो उसने भी समय के साथ समझदारी भरे कदम उठाए ताकि वे बैंकिंग और वित्तीय तंत्र में मुश्किलों को कम कर सकें।
हालांकि गलत आकलन जैसी घटनाएं भी हुई हैं, दुनिया भर के केंद्रीय बैंकों ने दशकों के दौरान काफी सुधार किया है। उन्होंने कीमतों और वित्तीय स्थिरता को बरकरार रखने के लिए नए उपाय विकसित किए हैं। ये उत्पादन में सुधार के लिए आवश्यक हैं। यह विकास ‘ज्ञात-अज्ञात’ और ‘अज्ञात-अज्ञात’ दोनों तरह के हालात को हल करने के लिए जारी रहना चाहिए।