पर्यावरण के अनुकूल यातायात को बढ़ावा देने के क्रम में भारत की अधिकांश कोशिशें अब तक नए इलेक्ट्रिक वाहनों की खरीद को प्रोत्साहित करने तक सीमित रही हैं। परंतु इसके समानांतर एक अधिक तेज विकल्प उभर रहा है और वह है पुराने इंटरनल कम्बस्टन इंजन (आईसीई) यानी पेट्रोल-डीजन से चलने वाहनों को इलेक्ट्रिक वाहनों में बदलना यानी उन्हें रेट्रोफिट करना। बेंगलूरु की कंपनी सन मोबिलिटी ने हाल ही में करीब 30,000 रुपये की औसत लागत पर सामान्य स्कूटर को ई-स्कूटर में बदलना शुरू किया है। यह इस वैकल्पिक नीति की दिशा में एक अहम पड़ाव है।
यह एक व्यावहारिक और किफायती तरीका है जिससे पुराने वाहनों के अपना जीवन चक्र पूरा करने की प्रतीक्षा किए बिना लाखों वाहनों को ईवी में बदला जा सकता है। देश की सड़कों पर करीब 20 करोड़ पारंपरिक दोपहिया वाहन और एक करोड़ तिपहिया वाहन चलते हैं। ऐसे में इनमें इलेक्ट्रिक इंजन फिट करने की बहुत अधिक संभावनाएं हैं।
नए ईवी खरीदने की बात करें तो उसके उलट कम आय वाले उपभोक्ता और छोटे बेड़े वाले संचालकों के लिए पुराने वाहन में नया इंजन फिट करवाना उपयोगी साबित होगा। यह चक्रीय अर्थव्यवस्था के सिद्धांत के अनुरूप ही है। इससे विनिर्माण संबंधी प्रदूषण कम होता है और प्रत्यक्ष लागत कम होती है। गिग वर्कर्स और शहरी माल ढुलाई करने वालों के लिए पुराने स्कूटरों को ईवी में बदलने का अर्थ है ईंधन और रखरखाव में तत्काल बचत। इसके साथ ही वे सख्त उत्सर्जन मानकों का अनुपालन भी कर पाते हैं।
नीति आयोग की वर्ष 2025 की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि देश में ईवी को 7.6 फीसदी हिस्सेदारी हासिल करने में करीब एक दशक का समय लगा है। रिपोर्ट कहती है कि 2030 के लक्ष्य को हासिल करने के लिए अगले पांच साल में उसे 22 फीसदी की उछाल लगानी होगी। ऐसे में पुराने वाहनों को ईवी में बदलना इस अंतर को दूर करने में अहम भूमिका निभा सकता है। जलवायु संबंधी अनिवार्यताएं भी हैं। जुलाई 2025 में जारी अंतरराष्ट्रीय स्वच्छ परिवहन परिषद की एक रिपोर्ट कहती है कि बैटरी से चलने वाले वाहन आईसीई वाहनों की तुलना में 73 फीसदी कम उत्सर्जन करते हैं।
उदाहरण के लिए स्पेन ने पुराने इंजन वाले वाहनों को बैटरी चालित बनाने के प्रमाणन की व्यवस्था को सुसंगत किया है। इससे सुरक्षा और नियामकीय अनुपालन सहित इसे अपनाने में मदद मिल रही है। इस बीच केन्या में नाइट्स एनर्जी ने डीजल से चलने वाली मिनीवैन को बिजली से चलने वाली शटल सेवाओं में बदल दिया है और वे नैरोबी के सार्वजनिक परिवहन मार्गों पर सेवा दे रही हैं। इस पहल से प्रति किलोमीटर ईंधन की लागत 70 फीसदी कम हुई है जबकि वायु प्रदूषण में भी अहम कमी आई है। इससे पता चलता है कि यह बदलाव कितना प्रभावी है। खासकर विकासशील देशों में यह स्वच्छ परिवहन को किफायती बना सकता है।
बहरहाल, यह रास्ता अभी भी पूरी तरह प्रयोग में नहीं लाया जा रहा है। इसकी राह में जो प्रमुख अड़चनें हैं उनमें एक है एकीकृत राष्ट्रीय नीति का अभाव। नियामकीय परिदृश्य विभाजित है और राज्य स्तर पर मंजूरी में तकनीकी दिशानिर्देशों का अभाव है। यह मानकीकृत रेट्रोफिट किट में निवेश को रोकता है। सुरक्षा, टिकाऊपन और दोबारा बेचने पर मिलने वाली कीमत को लेकर भी चिंता का माहौल है क्योंकि प्रमाणन की उपयुक्त व्यवस्था नहीं है। राष्ट्रीय मोटर रिप्लेसमेंट प्रोग्राम यान एनएमआरपी से सबक लेने की जरूरत है जो उच्च क्षमता वाली मोटरों को अपनाने के लिए वित्तीय सहायता के नवाचारी तरीकों और जागरूकता अभियानों की मदद लेता है। भारत वाहनों में रेट्रोफिट के लिए एक तुलनात्मक खाका तैयार कर सकता है।
एनएमआरपी की सफलता किफायत, संस्थागत मदद और व्यवहारात्मक परिवर्तन में निहित है। वित्तीय मदद सबसे अहम है। अधिकांश अंतिम उपभोक्ता मसलन डिलिवरी करने वाले, ऑटो चलाने वाले और छोटे उद्यमी औपचारिक ऋण तक पहुंच ही नहीं रखते। ऐसे में देश में पर्यावरण के अनुकूल परिवहन संबंधी बदलाव को पूरी तरह पुराने वाहनों को नकारने और नए को खरीदने पर केंद्रित नहीं किया जा सकता है। सही नीतिगत कदम के साथ पुराने वाहनों में नई फिटिंग भी इस दिशा में एक व्यावहारिक विकल्प हो सकती है।