देश में क्षेत्रीय ग्रामीण बैंकों (आरआरबी) की स्थापना 1975 में एक कार्य समूह की अनुशंसाओं के बाद की गई थी। इसके पीछे विचार था क्षेत्रीय स्तर पर केंद्रित बैंकों की स्थापना करना जो स्थानीय मुद्दों से वाकिफ हों और ग्रामीण इलाकों में बैंकिंग सेवाओं का विस्तार किया जा सके।
आरआरबी का मालिकाना संयुक्त रूप से भारत सरकार, संबंधित राज्य सरकार और प्रायोजक वाणिज्यिक बैंक के पास होता है और ये उसमें क्रमश: 50 फीसदी, 15 फीसदी और 35 फीसदी के हिस्सेदार होते हैं। इन बैंकों का नियमन भारतीय रिजर्व बैंक करता है लेकिन उनकी निगरानी राष्ट्रीय कृषि एवं ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) करता है। जैसा कि इस समाचार पत्र में गत सप्ताह प्रकाशित हुआ, केंद्र सरकार आरआरबी के बीच समेकन की योजना पर काम कर रही है।
संभव है कि ‘एक राज्य एक आरआरबी’ का मॉडल सामने आए जिससे आरआरबी की तादाद 43 से कम होकर 30 रह जाएगी। इसका उद्देश्य यह है कि आरआरबी को अधिक सक्षम बनाया जाए और प्रायोजक बैंक के साथ प्रतिस्पर्धा समाप्त की जा सके।
यह सही है कि आरआरबी की क्षमताओं में सुधार करने की आवश्यकता है, लेकिन इस बात की संभावना बहुत कम है कि वे अपने प्रायोजक बैंक या किसी अन्य बैंक को टक्कर दे पाएंगे क्योंकि उनका आकार और ध्यान सीमित क्षेत्र पर रहता है।
उपलब्ध आंकड़ों के मुताबिक मार्च 2023 में 43 आरआरबी की समेकित बैलेंस शीट 7.7 लाख करोड़ रुपये थी। तुलना करें तो गत वित्त वर्ष के अंत में स्टेट बैंक की बैलेंस शीट ही करीब 62 लाख करोड़ रुपये की थी। आरआरबी की 90 फीसदी शाखाएं ग्रामीण इलाकों में होने के बावजूद कृषि में इनकी भूमिका सीमित रही है।
रिजर्व बैंक के आंकड़े दिखाते हैं कि कृषि क्षेत्र को दिए जाने वाले ऋण में आरआरबी की हिस्सेदारी केवल 11-12 फीसदी है। करीब 80 फीसदी कृषि ऋण अधिसूचित वाणिज्यिक बैंकों द्वारा दिया जाता है।
परिचालन की बात करें तो आरआरबी का समेकित लाभ सुधरा है लेकिन घाटे में चलने वाले बैंकों का कुल घाटा 9,800 करोड़ रुपये से अधिक हो चुका है। 2021-22 और 2022-23 में आरआरबी को 10,890 करोड़ रुपये की पुनर्पूंजीकरण सहायता प्रदान की गई। यह राशि सभी अंशधारकों द्वारा विगत 45 सालों में लगाई गई कुल पूंजी से अधिक थी।
स्पष्ट है कि बीते वर्षों के साथ पूंजी की बेहतर उपलब्धता उन्हें अपने वास्तविक उद्देश्य को पाने में मदद करती। बहरहाल, इस पूंजीकरण के बावजूद नौ आरआरबी मार्च 2023 के अंत में न्यूनतम पूंजी आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सके। 2020-21 में इनकी संख्या 16 थी।
इसके अलावा बीते वर्षों के दौरान हालात तेजी से बदले हैं और पूरी सेवाएं देने वाले वाणिज्यिक बैंक अब ग्रामीण इलाकों में भी बैंकिंग सेवाएं देने के मामले में बेहतर स्थिति में हैं। ऐसे में सरकार की समेकन की प्रक्रिया के दौरान इस बात पर भी विचार किया जाना चाहिए कि क्या घाटे में चल रहे आरआरबी बंद किए जा सकते हैं?
परिसंपत्तियां और मानव संसाधन प्रायोजक बैंक में शामिल किए जा सकते हैं। छोटे पैमाने पर और तकनीक में सीमित निवेश के साथ आरआरबी के लिए वाणिज्यिक बैंकों के साथ प्रतिस्पर्धा करना बहुत मुश्किल हो जाएगा। अपनी भारी भरकम बैलेंस शीट और मुनाफे के साथ कुछ वाणिज्यिक बैंक तकनीक में अच्छा खासा निवेश कर रहे हैं ताकि ग्राहकों को बेहतर सेवा दे सकें।
उदाहरण के लिए यूनिफाइड लेंडिंग इंटरफेस के उपयोग के साथ वाणिज्यिक बैंक ग्रामीण इलाकों में बेहतर ऋण वितरण कर सकेंगे। कुछ गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियां भी कई क्षेत्रों में बेहतर प्रदर्शन कर रही हैं। उदाहरण के लिए ग्रामीण इलाकों में कृषि उपकरणों की खरीद आदि।
ऐसे में आरआरबी के सभी अंशधारकों का लक्ष्य उनकी क्षमता में सुधार प्रतिस्पर्धी क्षमता बढ़ाने का होना चाहिए। इस दौरान पर्याप्त पूंजी के प्रावधान भी होने चाहिए। छोटे और घाटे में चलने वाले बैंकों को प्रायोजक बैंक या किसी अन्य वाणिज्यिक बैंक में मिल जाने देना चाहिए।