पिछली तिमाही कच्चे तेल की कीमतों के लिए अपेक्षाकृत मजबूती भरी रही। रूस द्वारा यूक्रेन पर हमले के शुरुआती दौर में लगे झटकों के बाद जिंस कीमतों में भी बीते तीन महीनों के दौरान इजाफा देखने को मिला।
जून के अंत में जब पश्चिमी टैक्सस इंटरमीडिएट क्रूड की कीमतें करीब 70 डॉलर प्रति बैरल थीं, तब से अब तक उनमें इजाफा हुआ है और अब उनकी कीमत 90 से 95 डॉलर प्रति बैरल के बीच रही है। शुरुआती तेजी उस समय आई जब तेल निर्यातक देशों के समूह (ओपेक) तथा कुछ अन्य गैर ओपेक तेल निर्यातकों मसलन रूस इस बात पर सहमत हो गए कि मांग बढ़ने के बावजूद आपूर्ति में कटौती की जाए।
गत सप्ताह तेल कीमतें वर्ष के रिकॉर्ड स्तर तक बढ़कर 95 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर हो गईं। उस समय अमेरिकी अधिकारियों ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया था कि कच्चे तेल की वाणिज्यिक इन्वेंटरी वर्ष के अपने अब तक के निचले स्तर पर आ गई है।
बीती दो तिमाहियों में तेल क्षेत्र में मांग और आपूर्ति का मिश्रण ऐसा रहा है कि उसके बारे में कोई अनुमान लगाना मुश्किल रहा है। कुछ विश्लेषकों का मानना है कि प्रति बैरल तेल की कीमत तीन अंकों में पहुंच सकती है। वहीं दूसरों का कहना है कि अगर कीमतें उस ऊंचाई तक पहुंच गईं तो भी मांग के रुझान को देखते हुए कीमतें निरंतर ऊंचे स्तर पर नहीं रहेंगी। इस समीकरण में भी कई पहलू जाने पहचाने नहीं हैं। उनमें से एक है बड़े निर्यातकों, खासकर सऊदी अरब का व्यवहार।
सऊदी अरब ने इस वर्ष के अंत तक तेल आपूर्ति एकपक्षीय ढंग से रोक दी है। इससे संकेत मिलता है कि उसका इरादा कीमतों को ऊंचा बनाए रखने के लिए आपूर्ति को प्रबंधित करते रहने का है। इराक के प्रधानमंत्री अतीत में कह चुके हैं कि ओपेक मानता है कि एक बैरल कच्चे तेल का उचित मूल्य 85 से 95 डॉलर’ से कम नहीं होना चाहिए। वहीं दूसरी ओर चुनावी वर्ष में प्रवेश कर रहा अमेरिका भी दबाव बना रहा है और ऐसे में सऊदी अरब को आपूर्ति पर पकड़ ढीली करनी पड़ सकती है।
मांग का मामला भी उतना ही जटिल है। एक ओर वैश्विक खपत मजबूत रही है तो दूसरी ओर कीमतों को लेकर उपभोक्ताओं का व्यवहार भी पहले की तुलना में अधिक लचीला हुआ है। कुछ लोगों को इस बात पर आश्चर्य भी हो सकता है कि महामारी के बाद आम लोग और कारोबारों ने गैर जरूरी यात्राओं में पहले की तुलना में अधिक कटौती भी की है अथवा नहीं।
इसके अलावा अमेरिका में ब्याज दरें भी ऊंची हैं जिससे अटकलबाजी की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। चीन की बात करें तो कोविड शून्य नीति की विफलता के बाद उसके अर्थव्यवस्था को खोलने से मांग में जो शुरुआती तेजी आई थी वह अब समाप्त हो गई नजर आती है। भारतीय कंपनियों की बात करें तो केंद्रीय बैंक और केंद्रीय वित्त मंत्रालय के लिए यह अनिश्चितता बहुत चिंतित करने वाली है।
भारत कच्चे तेल की अपनी खपत में निरंतर इजाफा करने वाला है। कीमतें मोटे तौर पर नियंत्रण में रही हैं और मोटे तौर पर ऐसा रूस से होने वाले तेल आयात में इजाफे की बदौलत हुआ है। रूस के पश्चिम में स्थित तीन बंदरगाहों प्रिमोर्स्क, उस्त-लुगा और नेावोरोसिस्क से सितंबर में 21.5 लाख बैरल तक कच्चे तेल की निकासी हुई। इन बंदरगाहों से निर्यात हुए 80 लाख टन कच्चे तेल में भारत को केवल 33 लाख टन तेल मिलना था जबकि चीन को करीब 5,00,000 टन और तुर्किये को 10 लाख टन से थोड़ा कम तेल मिलना था।
घरेलू तेल विपणन कंपनियों ने कीमतों को एक वर्ष से लगातार ऊंचे स्तर पर रखा है लेकिन कच्चे तेल की ऊंची कीमतें और आने वाले महीनों में पंप पर तेल की कीमतें कम रखने की राजनीतिक अनिवार्यता से वृहद आर्थिक प्रबंधन बिगड़ सकता है।