केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने हाल ही में कहा कि सरकार वैश्विक क्षमता केंद्रों यानी जीसीसी को एक ‘बड़े अवसर’ के रूप में देख रही है। इससे पहले इस वर्ष के आरंभ में केंद्रीय बजट में उन्होंने कहा था कि एक राष्ट्रीय ढांचा तैयार किया जाएगा ताकि जीसीसी को छोटे शहरों की ओर ले जाने के काम को प्रोत्साहित किया जा सके। यह सही है कि एक मरणासन्न उद्योग के लिए जीसीसी एक नया और उत्साहवर्धक घटनाक्रम है।
भारत के लिए यह अहम है कि सेवाओं के निर्यात में उसकी ताकत तकनीकी प्रगति से पीछे न छूट जाए, बल्कि उसके साथ कदम से कदम मिलाकर आगे बढ़े। कारोबारी प्रक्रियाओं में बदलाव और अंदरूनी स्तर पर क्षमता का विकास जो जीसीसी की वृद्धि से संबंधित हो, भारत को इसका लाभ उठाना चाहिए। सीतारमण ने ऐसे केंद्रों की वृद्धि से संबद्ध वैश्विक भूमिकाओं को लेकर कुछ आशावादी अनुमान पेश किए। मसलन अगर सही कदम उठाए गए और स्वदेशी प्रतिभाएं तैयार की गईं तो उनकी तादाद मौजूदा 6,500 से बढ़कर वर्ष 2030 तक 30,000 हो जाएगी।
वित्त मंत्री ने यह भी कहा कि सरकार अन्य तरीकों के अलावा कराधान और विधायी समर्थन की मदद से जीसीसी की सहायता करेगी। यह बात हमेशा महत्त्वपूर्ण है कि हम कर संबंधी आवश्यकताओं में स्पष्टता और पारदर्शिता रखें। इसमें अग्रिम मूल्य निर्धारण समझौतों का उपयोग भी शामिल है। कर कानून जीसीसी की प्राथमिक बाधा नहीं हैं। व्यापक प्रशासनिक, न्यायिक और शासन सुधार भी आवश्यक हैं। यह सही है कि जीसीसी के सामने वही बाधाएं हैं जो देश भर में विनिर्माण सहित कई उद्यमों के सामने हैं।
करों को लेकर निश्चितता एक पहलू है लेकिन नियामकीय आवश्यकताओं और अधोसंरचना की उपलब्धता की सुनिश्चितता शायद और अधिक महत्त्वपूर्ण है। बुनियादी तौर पर देखा जाए तो जैसा कि नए और उभरते क्षेत्रों के साथ है, सरकार को यह समझना होगा कि उसकी भूमिका विकास में बाधा डालने वाली चीजों को ठीक करना और फिर रास्ते से हट जाना है। सरकार को बुनियादी ढांचे में निवेश करना चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि भवन निर्माण की मंजूरी समय पर मिल जाए।
उसे यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बिजली की अबाध आपूर्ति हो। जो बातें विनिर्माण और खुदरा क्षेत्र के लिए सही होंगी वही जीसीसी के लिए भी उपयुक्त होंगी। व्यापक कारोबारी माहौल में सुधार होना चाहिए ताकि भारत जीसीसी का लाभ ले सके। जैसा कि इतिहास ने हमें दिखाया है, अगर व्यापक माहौल प्रतिकूल हो तो किसी एक क्षेत्र पर या किसी एक बाधा पर ध्यान केंद्रित करने से कुछ खास नहीं हासिल होने वाला है।
गहन सवाल यह है कि क्या भारत का मानव संसाधन मूल्य श्रृंखला में परिवर्तन के लिए तैयार है। सूचना प्रौद्योगिकी सक्षम सेवाओं के निर्यात के पिछले संस्करण आवश्यक तौर पर उच्च कौशल वाले कर्मियों की नियुक्ति पर निर्भर नहीं थे। बहरहाल अगर जीसीसी के भीतर वैश्विक भूमिकाएं ही अंतिम लक्ष्य हैं तो बात अलग है।
मानव संसाधन में निवेश भारत के लिए हमेशा से समस्या रही है और अतीत की कौशल संबंधी पहलें या तो पूर्व अर्हता पर बहुत अधिक निर्भर रहीं या फिर वे उन कौशलों के साथ सुसंगत नहीं थीं जो निजी क्षेत्र के संभावित नियोक्ताओं के लिए जरूरी थे। अगर जीसीसी को उच्च उत्पादकता वाले कर्मचारी चुनने हैं तो इन हालात को बदलना होगा। आखिर में, जीसीसी के समग्र पारिस्थितिक प्रभाव पर गहराई से चर्चा करने की आवश्यकता है।
भारत के अंदर अधिक मूल्यवर्धन अपने आप में एक ऐसा लक्ष्य है जिसका अनुसरण करना आवश्यक है, लेकिन जीसीसी पारिस्थितिकी तंत्र के नवाचार और उद्यमिता पर इसका क्या असर होगा? पारंपरिक शोध नेटवर्क अक्सर सकारात्मक प्रभावों से इस प्रकार लाभान्वित होते हैं कि घरेलू कंपनियां चाहे पुरानी हों या नई, नई तकनीक और अवसर पा सकें। जीसीसी में चुनिंदा और सीमित अनुसंधान कार्यक्रमों का शायद उतना असर न पड़े।