वृहद आर्थिक नीति दो प्रमुख विषयों के इर्द-गिर्द घूम रही है। इनमें पहला विषय दीर्घ अवधि से लगातार निजी निवेश में सुस्ती से जुड़ी समस्या है और दूसरा विषय वैश्विक अर्थव्यवस्था की सराहनीय प्रगति और इसमें भारत के भविष्य के लिए दिख रही बेहतर संभावना है।
मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने नीतिगत दरों में कटौती कर सही दिशा में कदम उठाया है। एमपीसी के इस कदम को व्यापक नीति के बड़े संदर्भ में देखा जाना चाहिए। भारत की आर्थिक तरक्की में सबसे महत्त्वपूर्ण पहलू बड़ी एवं उच्च उत्पादन क्षमता वाली निजी कंपनियों का उदय है। इन कंपनियों का श्रम एवं पूंजी संसाधनों पर काफी हद तक नियंत्रण है। इसे देखते हुए भारत की विकास यात्रा को समझने के लिए इन निजी कंपनियों की वृद्धि पर नजर रखना जरूरी है। बड़ी निजी गैर-वित्तीय कंपनियों की सालाना रिपोर्ट में निवेश की थाह लेने का अच्छा मानक शुद्ध अचल परिसंपत्तियों की सालाना वृद्धि दर है। वर्ष 2016-17 से 2023-24 तक शुद्ध अचल परिसंपत्तियों की औसत वृद्धि दर 6.6 फीसदी रही है। अगर 4 फीसदी मुद्रास्फीति पर विचार करें तो सालाना वास्तविक वृद्धि दर 2.6 फीसदी ही रह जाती है, जो भारत की सफलता के साथ मेल नहीं खाती है।
भारतीय निजी कंपनियों ने अपने निवेश की रफ्तार क्यों कम कर दी है? मोटे तौर पर कहा जाए तो इसके लिए केंद्रीय नियोजन एवं कानून-व्यवस्था जिम्मेदार है। कोई कारोबार खड़ा करने के लिए भावनात्मक ऊर्जा, समय, प्रयास, पूंजी सहित अन्य बातों की जरूरत होती है। जब बाहरी वातावरण बेतुका एवं अनावश्यक दबाव डालने लगते हैं तो निजी उद्यमी कारोबार खड़ा करने का अपना प्रयास रोक देते हैं। समाज का समाजवादी प्रारूप (जिसमें निजी कंपनियों में उत्पादों एवं प्रक्रियाओं पर सरकार का नियंत्रण होता है और सफल दावेदार के चयन में मनमाने अधिकार का इस्तेमाल किया जाता है) अर्थव्यवस्था में सुस्ती लाता है यह इस व्यवस्था का मूल लक्षण है।
अगर ये परिस्थितियां ऐसी ही रहती हैं तो एक बेहतर वित्तीय वातावरण हालात संभालने में मददगार होगा। अगर ये जोखिम ऐसे ही बने रहते हैं तो भी कम लागत पर अधिक पूंजी उपलब्ध हो तो इससे ऊंचे निवेश को बढ़ावा मिलेगा। इसके लिए एक दीर्घ उपाय पूंजी नियंत्रण तंत्र से जुड़ा हुआ है। भारत में पूंजी नियंत्रण समाप्त करना सदैव ही एक अच्छा विचार है क्योंकि इससे देश के भीतर पूंजी पर लागत कम हो जाती है। हाल के समय में इस तरह कुछ प्रयास किए गए हैं और हम उम्मीद करते हैं कि आने वाले साल में इस दिशा में काफी कुछ किया जा सकता है।
इसके बाद मौद्रिक नीति की बारी आती है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) का मूल उद्देश्य यह है कि मुद्रास्फीति 4 फीसदी तक नियंत्रित रखा जाए। आरबीआई मुद्रास्फीति की दिशा निश्चित एवं स्थिर कर भारत की संपन्नता में अपना सबसे बड़ा योगदान दे सकता है। मुख्य उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर विचार करें तो आरबीआई मुद्रास्फीति में बड़ी कमी लाने में सफल रहा है। अगस्त 2020 से दिसंबर 2022 की अवधि में मुद्रास्फीति 6 फीसदी से घट कर वर्तमान समय में लगभग 4 फीसदी रह गई है। इसे देखते हुए नीतिगत दरों में कटौती तर्कसंगत लगती है।
अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में कुछ इस तरह बदलाव हुआ है कि यह भारत के लिए नए अवसर लेकर आया है। हाल के घटनाक्रम ने चीन को वैश्विक अर्थव्यवस्था के केंद्र से दूर कर दिया है दिया है। वैश्विक कंपनियां अब चीन पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए सारा जोर लगा रही हैं। डॉनल्ड ट्रंप के राष्ट्रपति बनने के बाद अमेरिका में दिक्कत शुरू होने से वैश्विक कंपनियां अब वैश्विक क्षमता केंद्रों और भारत जैसे देश में अनुबंध आधारित ढांचे की दिशा में पहल करने के लिए कदम बढ़ा रही हैं।
लंबे समय तक मैं भारत को लेकर ‘चीन प्लस वन’ के दावे को लेकर सशंकित रहा हूं। मैंने अपना ध्यान प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) और वस्तुओं के निर्यात के आंकड़ों पर टिकाए रखा और पाया कि इनमें वास्तव में बढ़ोतरी नहीं हो पा रही है। मगर अब भारत के लिए लाभ के शुरुआती संकेत मिलने लगे हैं। अमेरिका को चीन से और भारत से अमेरिका को निर्यात इन दोनों के अनुपात पर नजर रखने की जरूरत है। मार्च 2025 में यह अनुपात 2.63 के ऐतिहासिक निचले स्तर पर आ गया था। यह 2019 में 8 तक रहा है और धीरे-धीरे घटते हुए भारत के पक्ष में दिख रहा है।
भारत के निर्यात को आंकने का एक अच्छा मानदंड वस्तु एवं सेवाओं का निर्यात (पेट्रोलियम उत्पादों एवं सोना को छोड़कर) है। वर्ष 2022-24 के दौरान यह प्रति महीने लगभग 55 अरब डॉलर के स्तर पर स्थिर था। हाल में महीनों में कुछ वृद्धि दिखी है और यह प्रति महीने 70 अरब डॉलर के निकट पहुंच गया है। भारत में एफडीआई के आंकड़े कमजोर बने हुए हैं। भारत में एफडीआई के ठोस प्रदर्शन के बिना दीर्घकालिक सफलता के मार्ग की कल्पना करना मुश्किल है।
वैश्वीकरण की राह में आने वाली बाधाएं भारत को निर्यात के मोर्चे पर आगे बढ़ने से रोक रही हैं। शुल्क एवं गैर-शुल्क बाधाएं भारतीय उत्पादकों के लिए कच्चा माल महंगा बना देती हैं। पूंजी नियंत्रण के कारण भारतीय उत्पादकों के लिए पूंजी महंगी हो जाती है और कई उद्योगों में पूंजी सबसे बड़ा कच्चा माल है। पिछले कई वर्षों में पहली बार हम इन मोर्चों पर लाभ मिलता दिख रहा है। भारतीय निर्यात में मजबूती के लिए यह अच्छा है। भारत-ब्रिटेन मुक्त व्यापार समझौते को भारतीय व्यापार उदारीकरण का लाभ मिला।
भारतीय नीति निर्धारक पहले इस तरह के व्यापार समझौते नहीं कर पा रहे थे। हम उम्मीद कर सकते हैं कि भारत-अमेरिका और भारत-यूरोपीय संघ समझौतों में बड़ी व्यापार बाधाएं भी दूर हो जाएंगी। कुछ महत्त्वपूर्ण देश जैसे ही व्यापार की राह में बाधाएं कम करेंगे वैसे ही दूसरे देशों के मामले में भी व्यापार बाधाएं कम होती जाएंगी। भारतीय व्यापार नीति चीन के वृहद आर्थिक संकट का लाभ उठाने पर केंद्रित होनी चाहिए और इसके साथ ही उसकी कंपनियों को भारत में सस्ते सामान खपाने से रोकने के प्रयास भी होने चाहिए। प्रत्येक व्यापार उदारीकरण वृहद आर्थिक हालात पर दबाव डालता है। शुल्क कम रहने से आयात मांग बढ़ती है जिससे व्यापार संतुलन की गुणवत्ता कम होती है। यह व्यापार घाटा संतुलन बहाली के लिए रुपये में कमजोरी को बढ़ावा दिया जाता है। घरेलू ब्याज दरें कम रहने से भी देश में पूंजी की आमद कम हो जाती है जिससे रुपया कमजोर होता है।
अगर भारत वैश्विक उत्पादन के केंद्र के रूप में सफल (शुल्क घटा कर, चीन और अमेरिका का एक मजबूत विकल्प बनकर और भारतीय पूंजी खाता विनियंत्रण के जरिये) होता है तो भारत में पूंजी प्रवाह बढ़ सकता है और इससे ह्रास के कारणों का प्रभाव कम किया जा सकता है।
नीतिगत उपायों का इस्तेमाल अक्सर रुपये में गिरावट थामने के लिए किया जाता है। भारत के इतिहास का यह एक महत्त्वपूर्ण अध्याय है जब सितारे भारत के पक्ष में दिख रहे हैं। वृहद आर्थिक नीति का श्रेष्ठ रुख व्यापार उदारीकरण, नरम मौद्रिक नीति, नीतिगत बुनियाद में सुधार (केंद्रीय नियोजन एवं कानून व्यवस्था से जुड़ी समस्याएं), पूंजी खाता विनियंत्रण और कमजोर रुपया इन सभी का मिश्रण है।
(लेखक एक्सकेडीआर फोरम में शोधकर्ता हैं)