भारतीय अर्थव्यवस्था की गति कोविड-19 महामारी द्वारा उथलपुथल मचाने के पहले ही धीमी होने लगी थी। हालांकि अब अर्थव्यवस्था महामारी के कारण बनी विपरीत परिस्थितियों से उबर रही है लेकिन बीते दो वर्षों में रोजगार और आय पर बहुत बुरा असर पड़ा है। तथ्य यह भी है कि महामारी के दौरान भी अन्य बड़ी अर्थव्यवस्थाओं की तुलना में भारत का राजकोषीय हस्तक्षेप सीमित था। इस वजह से भी महामारी के बाद बनी परिस्थितियों में हमारी खपत ज्यादा प्रभावित हुई। नि:शुल्क खाद्यान्न वितरण जरूर एक बड़ा हस्तक्षेप था जिसने बड़ी तादाद में परिवारों की मदद की। परिवारों की खपत की वास्तविक हालत का पता तब चलेगा जब नए उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण के परिणाम सामने आएंगे। इसके जुलाई से शुरू होने की खबर है।
सरकार ने प्रक्रिया को शुरू करके अच्छा किया है क्योंकि भारतीय अर्थव्यवस्था के कामकाज को समझने के लिए यह सर्वे अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। हाल ही में प्रकाशित दो प्रपत्रों में भारत में गरीबी के स्तर का आकलन किया गया। इनमें से एक विश्व बैंक द्वारा तथा दूसरा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा प्रकाशित किया गया है। यद्यपि दोनों की कड़ाई से तुलना नहीं की जा सकती लेकिन उनका निष्कर्ष यही है कि हाल के वर्षों में देश में गरीबी में उल्लेखनीय कमी आई है। अर्थशास्त्रियों ने खपत के ताजा आधिकारिक आंकड़ों के अभाव में गरीबी का स्तर अलग-अलग तरीके अपनाकर मापा। सरकार ने 2017-18 में किए गए उपभोक्ता व्यय सर्वेक्षण को नकारने का निर्णय लिया क्योंकि आंकड़ों की गुणवत्ता को लेकर कुछ समस्या थी। महामारी शुरू होने के कारण नया सर्वेक्षण नहीं हो सका। परंतु अब जबकि महामारी नियंत्रण में है, सरकार ने यह तय किया है कि इस अहम सर्वेक्षण को दोबारा शुरू किया जाए। चूंकि यह सर्वेक्षण बहुत महत्त्वपूर्ण है तथा पिछला सर्वेक्षण गुणवत्ता के कारण खारिज किया जा चुका है इसलिए सांख्यिकी विभाग को यही सलाह होगी कि वह सभी अंशधारकों को यह बताए कि क्या बदलाव किए जा रहे हैं। प्रविधि का व्यापक मूल्यांकन और अपनाये गए बदलावों का आकलन प्रक्रिया को अधिक पारदर्शी बनाएगा तथा नतीजे भी ज्यादा विश्वसनीय होंगे। विभाग को इस प्रक्रिया में मिलने वाले सुझावों से भी मदद मिल सकती है।
सर्वेक्षण के नतीजे न केवल खपत का स्तर जांचने में अहम होंगे बल्कि सकल घरेलू उत्पाद के आधार तथा उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में संशोधन के लिए भी वे महत्त्वपूर्ण होंगे। यह संभव है कि इन नतीजों के बाद अन्य वृहद संकेतकों तक पहुंचने के तरीकों में बदलाव की जरूरत पड़े। उदाहरण के लिए यह कहा जाता रहा है कि एक विकसित होती अर्थव्यवस्था के साथ भारतीय परिवारों की खपत के तौर तरीके बीते 10 वर्षों में काफी बदल गए हैं। यह भी संभव है कि खपत में खानेपीने की वस्तुओं का भार कम हुआ हो तथा सेवा पर व्यय बढ़ा हो। चूंकि शीर्ष उपभोक्ता मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति की दर मौद्रिक नीति से संबद्ध है इसलिए यह महत्त्वपूर्ण है कि सूचकांक सही तस्वीर पेश करे। यदि सूचकांक लंबे समय तक पुराना बना रहता है या वास्तविक तस्वीर नहीं पेश करता है तो मौद्रिक नीति में अनुचित बदलाव उत्पादन को प्रभावित कर सकते हैं तथा दीर्घावधि का असंतुलन कायम कर सकते हैं।
व्यापक स्तर पर देखें तो यह दोहराना उपयुक्त होगा कि डेटा का समय पर संग्रह और विश्लेषण करना तेजी से बदलते आर्थिक माहौल में कोई बड़ी मांग नहीं है। संभवत: यह नीतिगत हस्तक्षेप को दिशा दिखाने वाला सबसे शक्तिशाली उपाय है। अब जबकि सरकार सर्वे को दोबारा शुरू कर रही है उसे डेटा संग्रह की कमियां दूर करने का प्रयास भी करना चाहिए। उदाहरण के लिए जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है, भारत को एक नये उत्पादक मूल्य सूचकांक की आवश्यकता है। उत्पादन, खपत तथा कीमतों में बदलाव सटीक का आकलन करना जरूरी है। ऐसा करने से ही वृहद आर्थिक स्थिरता सुनिश्चित हो सकेगी।
