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CSR खर्च में बढ़ोतरी, फिर भी कॉरपोरेट की प्रतिष्ठा में मामूली सुधार

सीएसआर खर्च को अनिवार्य करने का कदम वास्तव में कॉरपोरेट जगत की गलतियों को सुधारने और उन पर लगने वाले मिलीभगत के आरोपों का जवाब देने के लिए उठाया गया था

Last Updated- August 25, 2025 | 11:18 PM IST
CSR
प्रतीकात्मक तस्वीर

देश में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार की दूसरी पारी के दौरान वर्ष 2013 में अनूठे कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) कानून की पेशकश की गई थी। यह कानून तब लाया गया था जब कंपनियों की छवि कुछ खराब हो रही थी। उस समय अनिल अग्रवाल की कंपनी वेदांता, ओडिशा के एक आदिवासी इलाके में बॉक्साइट की खुदाई को लेकर विवादों में थी। इसके अलावा, पर्यावरण के लिहाज से संवेदनशील जंगलों में कोयला खनन की अनुमति देने या न देने के ‘वर्जित क्षेत्र’ को लेकर विवाद भी चल रहा था।

इसके अलावा सरकार की 2005 की विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) नीति के कारण किसानों से जमीन हड़पने के कई मामले सामने आए, जिनमें उन्हें सही मुआवजा नहीं मिला। इन खराब तरीकों के चलते एक नया भूमि अधिग्रहण कानून बनाना पड़ा, जिसने कंपनियों के लिए जमीन खरीदना बहुत मुश्किल कर दिया। इसी दौरान, सत्यम घोटाला भी सामने आया, जिसने स्वतंत्र निदेशकों की भूमिका पर सवाल खड़े कर दिए और भारत के ‘सूचना प्रौद्योगिकी क्षेत्र’ पर एक बड़ा दाग लगा दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जब कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारी (सीईओ) को कम वेतन लेने की सलाह दी तब कंपनी जगत में हलचल मच गई। 

सीएसआर खर्च को अनिवार्य करने का कदम वास्तव में कॉरपोरेट जगत की इन गलतियों को सुधारने और उन पर लगने वाले मिलीभगत के आरोपों का जवाब देने के लिए उठाया गया था। कंपनी अधिनियम की धारा 135 के तहत,  एक निश्चित नेटवर्थ, टर्नओवर और मुनाफे वाली कंपनियों के लिए सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करना अनिवार्य कर दिया गया था। इसके तहत पात्र कंपनियों को पिछले तीन वित्तीय वर्ष के दौरान हुए औसत शुद्ध लाभ का कम से कम 2 फीसदी सीएसआर गतिविधियों पर खर्च करना होता है। ऐसा न करने पर कंपनियों को इसका कारण बताना होता है। इस कानून में यह भी बताया गया है कि किन क्षेत्रों में यह पैसा खर्च किया जा सकता है, जैसे कि स्वास्थ्य और शिक्षा, जिससे कंपनी जगत की तरफ से परोपकार के काम में दिए गए पैसे को सरकार की सामाजिक-आर्थिक नीतियों के साथ जोड़ा जा सके।

व्यापक तौर पर ‘कोई नुकसान न पहुंचाने’ के दार्शनिक सिद्धांत पर यह नीति काफी हद तक सफल रही है। केवल वित्त वर्ष 2024 में सीएसआर पर होने वाला खर्च तेजी से बढ़ा है और इस मद में सूचीबद्ध कंपनियों का खर्च 16 फीसदी बढ़कर करीब 17,967 करोड़ रुपये हो गया। प्राइम डेटाबेस के अनुसार, 98 फीसदी कंपनियों ने अपनी सीएसआर जिम्मेदारियों को पूरा किया और लगभग आधी ने तो तय सीमा से भी ज्यादा खर्च किए। 

यह बात इसलिए भी खास है क्योंकि सीएसआर खर्च पर कर में छूट नहीं मिलती, जब तक कि पैसा किसी ऐसी संस्था को दान न किया जाए जिसे कर में छूट मिलती हो। गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के लिए विदेशी फंडिंग में दिक्कत आने के कारण, घरेलू सीएसआर का पैसा जमीनी स्तर पर काम कर रहे कई स्वैच्छिक संगठनों के लिए फंडिंग का एक महत्त्वपूर्ण स्रोत बन गया है। इस नीति का एक और फायदा यह है कि इससे कॉरपोरेट क्षेत्र के अधिकारी अपने वातानुकूलित दफ्तरों से निकलकर असल भारत को देख पाते हैं। हालांकि, भारत की सामाजिक-आर्थिक स्थिति बदलने की रणनीति के रूप में इसके फायदे कम दिखते हैं। हाल के कुछ अध्ययनों में पता चला है कि महाराष्ट्र, राजस्थान और तमिलनाडु जैसे आर्थिक रूप से समृद्ध राज्यों को ही सीएसआर मद में मिली पूंजी का सबसे ज्यादा लाभ मिला है क्योंकि ज्यादातर कंपनियां यहीं मौजूद हैं। डेवलपमेंट इंटेलिजेंस यूनिट के एक नए अध्ययन के अनुसार, झारखंड, छत्तीसगढ़, बिहार, ओडिशा, मध्य प्रदेश और पूर्वोत्तर के छह ‘आकांक्षी’ (कम आय वाले) क्षेत्रों को कुल सीएसआर पूंजी का 20 फीसदी से भी कम हिस्सा मिला है। 

विभिन्न संस्थानों के कई शोधकर्ताओं ने पाया है कि ज्यादातर पैसा, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे बड़े क्षेत्रों में जाता है। झुग्गी-झोपड़ियों के विकास, आजीविका बढ़ाने और पर्यावरण से जुड़ी परियोजनाओं पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है, जबकि ये भी अहम मुद्दे हैं। हालांकि, सीएसआर को सिर्फ नीतियों का पालन करने के लिए दिखावा करने वाला नहीं कह सकते लेकिन यह भी सच है कि कंपनियां उन्हीं क्षेत्रों में निवेश करना पसंद करती हैं जो उनके दायरे में सीधे तौर पर नहीं आते हैं और जिनसे उन्हें ज्यादा से ज्यादा प्रचार मिलता है। 

कानूनी रूप से सीएसआर खर्च को अनिवार्य करने से एक और समस्या पैदा होती है कि इसमें सरकार का हस्तक्षेप बढ़ सकता है। यह वास्तव में लाइसेंस राज के दौर की याद दिलाता है, जहां कानून पहले ही कंपनियों को बताता है कि उन्हें कितना खर्च करना है और वे किन चीजों पर खर्च कर सकते हैं। यह संभव है कि सीएसआर खर्च में क्षेत्रीय असमानता देखकर, सरकार भविष्य में क्षेत्र के आधार पर लक्ष्य भी तय कर दे। इस कानूनी जिम्मेदारी से और भी परेशानियां खड़ी होती हैं। उदाहरण के तौर पर, 2018 में सरकार ने 272 कंपनियों को नोटिस भेजा था क्योंकि उन्होंने सीएसआर की जिम्मेदारियां पूरी नहीं की थीं।

भारत दुनिया का एकमात्र ऐसा देश है जहां कंपनियों के लिए सीएसआर (कंपनी अधिनियम की धारा 135 के तहत) कानूनी रूप से अनिवार्य है। वहीं, अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोपीय संघ जैसे ज्यादातर देशों में ऐसी नीतियां हैं जो कंपनियों को सीएसआर कार्यक्रम चलाने के लिए सिर्फ प्रोत्साहित करती हैं।

इन पश्चिमी देशों में उत्तराधिकार कर का प्रावधान है। यही मुख्य कारण है कि बिल गेट्स और जॉर्ज सोरोस जैसे मशहूर अरबपतियों ने अपने जीवनकाल में ही बड़े पैमाने पर धर्मार्थ संस्थाएं (चैरिटेबल फाउंडेशन) बनाई हैं। भारत में भी उत्तराधिकार कर था, लेकिन 1985 में इसे हटा दिया गया क्योंकि इससे मिलने वाला राजस्व बहुत कम था और इसे संग्रह करने की लागत बहुत ज्यादा थी। हालांकि पश्चिमी देशों में, इस उत्तराधिकार कर के कारण सामाजिक कार्यों के लिए बहुत बड़ी रकम दान में दी जाती है जिससे विभिन्न तरह के मुद्दों पर सकारात्मक प्रभाव देखने को मिला है।

कानूनी रूप से सीएसआर को अनिवार्य करने से भारत में एक मजबूत सीएसआर-उद्योग का निर्माण हुआ है। इसके बावजूद, सबसे बड़ा विरोधाभास यह है कि चाहे दुनिया में कहीं भी और कितना भी सीएसआर पर खर्च किया जाए,  लोगों की नजर में कंपनियों के द्वारा किए जाने वाले इस खर्च की प्रतिष्ठा का मूल्य अब भी उम्मीद से काफी कम है।

First Published - August 25, 2025 | 11:18 PM IST

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