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आरक्षण नहीं, समान अवसर पैदा करने से बनेगी बात; राहुल गांधी का दांव भी कांग्रेस के लिए बन सकता है मुसीबत

सामाजिक कारणों से विभिन्न लाभों से वंचित छात्रों एवं लोगों के लिए समान अवसर उपलब्ध कराने की आवश्यकता है। इस बारे में बता रहे हैं आर जगन्नाथन

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आर जगन्नाथन   
Last Updated- August 12, 2024 | 11:36 PM IST

भारत एक कुत्सित शिक्षा एवं रोजगार कोटा व्यवस्था अपनाने की दहलीज पर खड़ा है। असंवेदनशील राजनीति एवं न्यायिक हस्तक्षेप सहित कई कारणों से भारत इस गुत्थी में उलझता जा रहा है। क्षेत्रीय राजनीतिज्ञ और कांग्रेस नेता राहुल गांधी भारत में जाति आधारित जनगणना कराए जाने पर जोर दे रहे हैं, वहीं उच्चतम न्यायालय ने आरक्षण पर हाल में अपने एक आदेश में किसी भी श्रेणी में वास्तविक रूप से पिछड़े लोगों के लिए कोटा में अलग से कोटा (सब-कोटा) तैयार करने के विचार का समर्थन किया है। हालांकि, न्यायालय ने राजनीतिक दलों को यह चेतावनी भी दी है कि न्यायपालिका मनमाने ढंग से सृजित अलग से कोई कोटा स्वीकार नहीं करेगी। इस तरह, यह आदेश जाति-आधारित सर्वेक्षण की बात कहता है।

उच्चतम न्यायालय का आदेश अनुसूचित जाति (एससी), अनुसूचित जनजाति (एसटी) और अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) में संपन्न समूहों को उसी वृहद श्रेणियों में दूसरे लोगों के खिलाफ खड़ा कर देगा। इसका कारण यह है कि आदेश में उन जातियों के लिए अवसरों में कमी करने की बात कही गई है, जो अब तक कोटा से सबसे अधिक लाभान्वित हुए हैं। इससे अंतर-जाति टकराव शुरू हो जाएगा।

कांग्रेस के कुछ दलित नेता जैसे पी एल पुनिया और कुमारी शैलजा उच्चतम न्यायालय का यह आदेश निष्प्रभावी करने के लिए संविधान में संशोधन की मांग कर रहे हैं। स्पष्ट है कि राहुल गांधी का यह दांव कांग्रेस के लिए मुसीबत बन सकता है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि मणिपुर में जारी मौजूदा हिंसा पिछले साल न्यायालय के उस आदेश के बाद भड़की थी जिसमें कहा गया था कि हिंदू मैतेई भी अनुसूचित जाति माने जा सकते हैं। कुकी समुदाय ने इसका कड़ा विरोध किया था। अब कल्पना मात्र कीजिए कि यही हिंसा अगर कई राज्यों में एससी, एसटी एवं ओबीसी के बीच भड़क जाए तो क्या होगा।

वर्तमान श्रेणी के भीतर कोटा का पुनर्वितरण करने के बजाय कुल कोटा में विस्तार करने पर राजनीतिक आम सहमति बनेगी क्योंकि कोटे की मांग केवल एक दिशा में रही है, यानी इनका दायरा बढ़ाने की मांग की जा रही है। कोई भी राजनीतिक दल कोटा लाभार्थियों के किसी उप-समूह को वंचित नहीं करना चाहता है। इंद्रा साहनी मामले में पारित आदेश में कोटा पर तय 50 प्रतिशत की सीमा से उच्चतम न्यायालय ने स्वयं आर्थिक पिछड़ेपन के लिए विशेष कोटा प्रावधान जोड़ने के नरेंद्र मोदी सरकार के प्रस्ताव को स्वीकार किया है। कुछ राज्य (तमिलनाडु) काफी पहले 69 प्रतिशत कोटा की तरफ कदम बढ़ा चुके हैं।

अब इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि कोटा समर्थकों के लिए 69-75 प्रतिशत कोटे का प्रावधान हासिल करना नया लक्ष्य होगा। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) सरकार के दौरान निजी क्षेत्र में भी कोटे का प्रावधान करने का प्रस्ताव दिया गया (मगर बाद में कारोबार पर प्रतिकूल असर पड़ने की आशंका के बाद यह वापस ले लिया गया) मगर कांग्रेस ने न केवल 2024 के घोषणापत्र (न्याय पत्र में)में कोटा पर 50 प्रतिशत सीमा बढ़ाने के लिए संविधान संशोधन करने का वादा किया है बल्कि निजी शैक्षणिक संस्थानों में भी यह विभिन्न कोटा बढ़ाने की बात कही है। निजी क्षेत्र की नौकरियों में इन्हें लागू करना अब महज कुछ समय की बात रह गई है।

पहचान आधारित आक्रामक राजनीति का प्रसार और कोटा प्रणाली में अनवरत विस्तार रोकने के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों, बुद्धिजीवियों एवं निजी क्षेत्र के विचारकों को एससी, एसटी एवं ओबीसी में प्रतिस्पर्द्धी क्षमता बढ़ाने की एक वैकल्पिक रणनीति सुनिश्चित करने पर विचार करना चाहिए। इससे धीरे-धीरे कोटा प्रणाली आधारित व्यवस्था से दूर जाने में मदद मिलेगी। रोजगार के अवसर में बढ़ोतरी ऐसे किसी प्रयास का आधार होना चाहिए क्योंकि कोटा अंततः युवाओं के लिए उपयुक्त गुणवत्ता वाले रोजगार की कमी को परिलक्षित करता है। केंद्र, राज्य और स्थानीय निकायों को उन कानूनों को समाप्त करने के लिए मिलकर काम करना चाहिए, जो रोजगार सृजन की राह में बाधा बनते हैं।

विनिर्माण एवं सेवाओं में तकनीक एवं स्वचालन (ऑटोमेशन) के तेजी से इस्तेमाल से हुनरमंद लोगों की मांग बढ़ रही है। अत्यधिक सक्षम एवं हुनरमंद लोगों (जैसे साइबर विशेषज्ञ, न्यूरोसर्जन) की मांग काफी अधिक है और तकनीक संचालित मगर कम हुनर वाली नौकरियों (जैसे उबर चालक, सुरक्षाकर्मी, लॉजिस्टिक एवं डिलिवरी पर्सन, रिटेल क्लर्क) की भी उतनी ही मांग है। हालांकि, कोई भी साइबर सुरक्षा विशेषज्ञ या न्यूरो सर्जन की नियुक्ति कोटा के माध्यम से नहीं करना चाहेगा मगर कम हुनर वाली नौकरियों के लिए भर्तियां न्यूनतम योग्यता एवं पारदर्शी लॉटरी प्रणाली पर आधारित होनी चाहिए।

जब सरकार या निजी क्षेत्र (जो इस समय तीसरे पक्ष से काम कराने की तरफ मुड़ रहे हैं) अनुसेवक या कुरियर की भर्ती करना चाहते हैं तो कोटा जरूरी नहीं है, लॉटरियां विभिन्न जातियों के बीच नौकरियों का वितरण कर देंगी। किसी अतिरिक्त हुनर की जरूरत नियोक्ता (इस मामले में राज्य) की तरफ से पूरी की जा सकती है।

दूसरी बात यह है कि एससी, एसटी एवं ओबीसी श्रेणियों के छात्रों की कोचिंग एवं उनके मार्ग दर्शन की जरूरत है। यह व्यवस्था प्राथमिक एवं माध्यमिक स्तर से शुरू होकर स्नातक एवं तकनीकी शिक्षा तक जारी रहनी चाहिए। भारत में अनौपचारिक ट्यूशन पढ़ाने वाले शिक्षकों की हर जगह उपस्थिति है और सैकड़ों कोचिंग कक्षाएं प्रत्येक छात्रों की मांग पूरी कर रही हैं।

शिक्षुता (एप्रेन्टिसशिप के लिए पहसे से प्रतिबद्ध सरकार को कई स्तरों पर कोचिंग के लिए सब्सिडी मुहैया कराना चाहिए ताकि पीछे रह गई जातियां तकनीकी हुनर एवं उच्च खूबियां सीख सकें ताकि उन्हें एक अच्छे संस्थान में प्रवेश मिल जाए। शिक्षुता उस समय रुक जाएगी जब तकनीकी हुनर व्यापक स्तर पर जातियों एवं वर्गों तक पहुंच जाएगी।

तकनीकी हुनर जैसे अंग्रेजी या कोई एक भाषा धारा प्रवाह बोलने की क्षमता, संख्यात्मक जानकारियां उस शहरी क्षेत्रों में प्रति महीने 8,000-10,000 रुपये देने वाली नौकरी और 15,000-20,000 रुपये तनख्वाह में अंतर खत्म कर सकती है। इसका भी कोई कारण नहीं है कि सरकारी विद्यालयों का संचालन निजी न्यासों या कंपनियों द्वारा क्यों नहीं किया जाए क्योंकि मुख्य वित्त पोषण तो सरकारी खजाने से आ रहा है। कंपनियां अपनी तरफ से शिक्षकों के प्रशिक्षण, शिष्टाचार बहाल करने और बुनियादी ढांचे पर रकम खर्च खर्च कर सकती हैं।

कई होनहार एवं योग्य छात्रों एवं पहली बार नौकरी खोज रहे लोगों के पास लक्ष्य में सफल होने के लिए आवश्यक जानकारियां नहीं होती हैं। प्रत्येक विद्यालय, महाविद्यालय या कोचिंग संस्थानों में मार्गदर्शक तैयार करने की नीति से लाभ मिल सकता है। कंपनियां चाहें तो अपने निगमित सामाजिक उत्तरदायित्व (सीएसआर) के कोष से अवश्य ऐसा कर सकती हैं। अरबपतियों से वित्तीय सहायता वालों न्यासों के माध्यम से भी ऐसा किया जा सकता है। इनके अलावा कई अन्य बेहतर विचार या उपाय भी हैं जिन्हें आजमाया जा सकता है और अगर ये कारगर रहते हैं तो इनका विस्तार किया जा सकता है।

निष्कर्ष यही निकलता है कि सामाजिक कारणों से विभिन्न लाभों से वंचित छात्रों एवं लोगों के लिए हमें समान अवसर उपलब्ध कराने होंगे। यह सोचना गलत है कि केवल कोटा व्यवस्था के माध्यम से अवसरों की समानता सुनिश्चित की जा सकती है। केवल कोटा से विकसित भारत बनाने का सपना पूरा नहीं हो सकता। अगर कोटा पर हम आपस में यूं ही लड़ते रहें तो यह लक्ष्य प्राप्त करना और भी मुश्किल हो जाएगा।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं।)

First Published : August 12, 2024 | 10:36 PM IST