प्रतीकात्मक तस्वीर
आर्थिक लोकलुभावनवाद एक राजनीतिक दृष्टिकोण है जो आर्थिक मुद्दों को आम जनता और भ्रष्ट या वास्तविकता से कटे हुए अभिजात वर्ग के बीच संघर्ष के रूप में प्रस्तुत करता है। इसमें अक्सर राष्ट्रवाद की तीव्र भावना होती है, जो वैश्वीकरण का विरोध करती है। लोकलुभावनवाद दोबारा चलन में है, इस बार यह अमेरिका, हंगरी और दुनिया के कुछ गरीब देशों में हो रहा है। लोकलुभावनवादी दलों को यूरोप में, खासकर फ्रांस और जर्मनी में भारी लाभ हुआ है।
यूनाइटेड किंगडम (जो यूरोपीय संघ से अलग हो चुका है) में बोरिस जॉनसन और लिज ट्रास के अधीन लोकलुभावनवादी और अक्षम सरकारों का एक दौर रहा जिसने मतदाताओं को कंजरवेटिव पार्टी से दूर कर दिया। ऋषि सुनक ने कंजरवेटिव पार्टी में भरोसा बहाल करने की कोशिश की लेकिन उन्हें लेबर पार्टी के हाथों तगड़ी हार का सामना करना पड़ा। पोलैंड में 10 साल तक लोकलुभावनवादी सरकार रही और उसके बाद कहीं अधिक उदार डॉनल्ड टस्क सत्ता में आए। परंतु डॉनल्ड ट्रंप 2016-2020 के बीच अफरातफरी भरे कार्यकाल और महामारी के दौरान कुप्रबंधन के चलते 2020 का चुनाव हारने के बाद अमेरिका में दोबारा सत्ता में आ गए हैं। वहीं हंगरी में विक्टर ओर्बान के रूप में एक अन्य दक्षिणपंथी लोकलुभावनवादी मजबूत बने हुए हैं।
दुनिया में पहले भी लोकलुभावनवाद की लहरें आई हैं। अमेरिकन इकनॉमिक रिव्यू में 2023 में प्रकाशित एक अध्ययन में फुंके एवं अन्य1 ने 1900 से 2020 के बीच दुनिया भर में लोकलुभावनवादी सरकारों के कार्यकाल का परीक्षण किया। 1930 के दशक में लोकलुभावन सरकारों की हिस्सेदारी बढ़ी। यूरोप में हिटलर और मुसोलिनी का उभार हुआ। 1950 में लैटिन अमेरिका में इनकी संख्या बढ़ी। लोकलुभावनवाद बढ़ता है और फिर खत्म हो जाता है।
1930 के दशक के लोकलुभावनवाद ने दूसरे विश्व युद्ध को जन्म दिया। सोवियत संघ के पतन के बाद लोकलुभावनवाद की दूसरी लहर दुनिया में नजर आई। अध्ययन से पता चलता है कि स्वतंत्र देशों में लोकलुभावन सरकारों की हिस्सेदारी 1991 में 5 प्रतिशत से कम थी, जो 2019 तक 25 प्रतिशत से अधिक हो गई, और अब यह लगभग 30 प्रतिशत के करीब पहुंच गई है।
फुंके एवं अन्य ने 120 सालों के अपने अध्ययन में दिखाया कि इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ती है। इसके चलते सकल घरेलू उत्पाद में प्रति व्यक्ति 10 फीसदी की कमी देखने को मिली, सार्वजनिक ऋण 10 फीसदी बढ़ गया और संस्थागत गुणवत्ता में कमी आई। आगे उन्होंने पाया कि वाम धड़े का लोकलुभावनवाद भी उतना ही नुकसानदेह है जितना कि दक्षिणपंथी। उनके अध्ययन में कई वाम लोकलुभावनवादी शामिल हैं। उदाहरण के लिए अर्जेंटीना के जुआन और एवा पेरोन, भारत की इंदिरा गांधी, वेनेजुएला के हुगो चावेज और निकोलस मादुरो और मेक्सिको के आंद्रेस मैनुएल लोपेज ओब्राडॉर।
दक्षिणपंथ की बात करें तो ब्राजील के जैर बोल्सोनारो, तुर्किये के रेचेप तैय्यप एर्दोआन और भारत के नरेंद्र मोदी को लोकलुभावनवादी करार दिया जा सकता है। हालांकि कुछ लोग अध्ययन की श्रेणियों को लेकर छोटी-मोटी आलोचना कर सकते हैं, लेकिन यदि कुछ नामों को हटा भी दिया जाए, तो व्यापक परिणामों में कोई विशेष बदलाव नहीं होगा।
लोकलुभावन नेता, चाहे वे वामपंथी हों या दक्षिणपंथी, आमतौर पर आत्मनिर्भर नीतियों की ओर अधिक झुकाव रखते हैं, जो व्यापार को सीमित करती हैं और दुनिया को एक व्यापारिक शून्य-योग दृष्टिकोण से देखती हैं। ट्रंप द्वारा लगाए गए भारी शुल्क इसके ताजे उदाहरण हैं। कुछ नेता केंद्रीय बैंक की ब्याज दर नीतियों में हस्तक्षेप करने की कोशिश भी करते हैं, जिससे उनकी विश्वसनीयता कमजोर होती है। एर्दोआन ने तुर्किये में ऐसा ही किया।
दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद को अक्सर आव्रजन प्रतिबंधों से भी जोड़ा जाता है, जो इस गलत धारणा पर आधारित होते हैं कि प्रवासी स्थानीय लोगों की नौकरियां छीनते हैं, सेवाओं का अनुचित लाभ उठाते हैं, और अपराध बढ़ाते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि प्रवासी आर्थिक समृद्धि में योगदान करते हैं, कर चुकाते हैं, और अपराध की प्रवृत्ति कम होती है।
वे ऐसी औद्योगिक नीति का समर्थन करते हैं जहां सब्सिडी चुनी हुई कंपनियों को जाती है। उन्हें आयात संरक्षण भी हासिल होता है। जरूरत इस बात की है कि बाजार समर्थक नीतियां बनाई जाएं जहां मजबूत संस्थान विधि के शासन का ध्यान रखें। वे जो नीतियां लागू करते हैं, वे आमतौर पर कारोबार समर्थक होती हैं, लेकिन इसके साथ-साथ संस्थाओं को कमजोर करती हैं और भाई-भतीजावाद को बढ़ावा देती हैं। वे राजकोषीय रूप से गैर-जिम्मेदार भी होते हैं।
जहां दक्षिणपंथी लोकलुभावन नेता अमीरों को कर में छूट देना पसंद करते हैं, वहीं वामपंथी लोकलुभावन नेता गरीबों के लिए बड़े पैमाने पर कल्याणकारी योजनाएं लागू करते हैं, जो अक्सर सही तरीके से लक्षित नहीं होतीं, जिससे बरबादी, भ्रष्टाचार, और सरकारी ऋण में वृद्धि होती है। इटली की 8,000 नगरपालिकाओं पर 20 वर्षों तक किए गए एक विस्तृत अध्ययन से यह सामने आया कि लोकलुभावन सरकारों, चाहे वे स्थानीय स्तर पर ही क्यों न हों, उनके चलते परियोजनाओं की लागत बढ़ी, राजस्व संग्रह में कमी आई, ऋण चुकाना कम हुआ, अफसरशाही में बदलाव आया और उसकी गुणवत्ता में कमी आई।
हालिया अनुभव दर्शाता है कि विकासशील देशों के दक्षिणपंथी लोकलुभावन नेताओं को प्रतिष्ठा दर्शाने वाले बुनियादी ढांचे के प्रोजेक्ट्स की ओर विशेष आकर्षण होता है। ठीक वैसे ही जैसे पहले के नेता, जैसे कि मुसोलिनी आदि, करते थे। ब्राजील में बोल्सोनारो ने एमेजॉन जंगल में सड़कें बनवाने की शुरुआत की। तुर्किये में एर्दोआन ने इस्तांबुल में नए हवाई अड्डे, पुल और सुरंगें बनवाईं और खराब गुणवत्ता वाले निर्माण कार्यों को मंजूरी दी, जो हालिया भूकंप में ढह गए।
हालांकि इस तरह के बुनियादी ढांचे पर खर्च से आर्थिक गतिविधियां तेज़ होती हैं, लेकिन ये अकेले करोड़ों लोगों के लिए नौकरियां पैदा करने में सक्षम नहीं होते, और इसके साथ-साथ देश का ऋण भी बढ़ता है।अधिकतर मामलों में, लोकलुभावन नेता संकट प्रबंधन (जैसे महामारी) में कमजोर साबित होते हैं, क्योंकि उनकी प्रवृत्ति सलाह लेने या वैज्ञानिक प्रमाणों और विशेषज्ञता का पालन करने की नहीं होती, बल्कि वे अक्सर कड़े और कठोर आदेश जारी करते हैं।
कुछ लोग मोदी सरकार के लिए फुंके एवं अन्य के अध्ययन में दिए गए दक्षिणपंथी आर्थिक लोकलुभावनवाद के लेबल पर सवाल उठा सकते हैं। इसकी बुनियादी ढांचा योजनाओं ने बड़े पैमाने पर अनावश्यक प्रतिष्ठा परियोजनाओं से परहेज किया है और ये अर्थव्यवस्था के लिए काफी सकारात्मक रही हैं। भारत की सूचना प्रौद्योगिकी संरचना ने सेवा वितरण और वित्तीय पहुंच को बेहतर बनाने में भारी लाभ प्रदान किया है।
सरकार ने मुद्रास्फीति लक्ष्य निर्धारण व्यवस्था लागू की है और भारतीय रिज़र्व बैंक की मौद्रिक नीति समिति के निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं किया है। इसके अलावा, सरकार ने वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी और ऋणशोधन अक्षमता एवं दिवालिया संहिता यानी आईबीसी जैसे सुधार भी लागू किए हैं। हालांकि, 2018 से आयात संरक्षण में वृद्धि और बड़े व्यवसायों के पक्ष में नीतियां दक्षिणपंथी लोकलुभावनवाद की शैली से मेल खाती हैं, जबकि 60 करोड़ लोगों को मुफ्त खाद्यान्न देने की योजना वामपंथी लोकलुभावनवाद की ओर अधिक झुकती है। लेबल्स से परे, भारत को चाहिए कि वह लोकलुभावनवाद के इन पहलुओं को सुधारने पर ध्यान केंद्रित करे ताकि अर्थव्यवस्था अधिक प्रतिस्पर्धी और समावेशी बन सके।
यह स्पष्ट नहीं है कि दुनिया भर में लोकलुभावनवाद की यह लहर कब समाप्त होगी। सबक यह है कि आगे का रास्ता दुनिया के लिए अनिश्चित हो सकता है जिसमें भूराजनीतिक विभाजन, व्यापार युद्ध, कृत्रिम बुद्धिमत्ता का आगमन, और जलवायु परिवर्तन जैसी चुनौतियां शामिल हैं। लेकिन अतीत के अनुभव हमें एक स्पष्ट चेतावनी देते हैं कि लोकलुभावनवाद के मोहक गीत, चाहे वह वामपंथी हो या दक्षिणपंथी उनसे सावधान रहना चाहिए।
(लेखक जॉर्ज वॉशिंगटन यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट फॉर इंटरनैशनल इकनॉमिक पॉलिसी में प्रतिष्ठित विजिटिंग स्कॉलर हैं)