अंतरिम बजट की प्रकृति आमतौर पर कामचलाऊ प्रबंधन वाले बजट की होती है लेकिन नीतिगत दिशा तय करने के लिहाज से यह महत्त्वपूर्ण होता है। कुछ अंतरिम बजटों में कर छूट देने के रुझान देखे गए हैं लेकिन इस बजट में अहम बात यह रही है कि प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों तरह के करों की दरों में कोई बदलाव करने से परहेज किया गया है।
इस बजट से एक महत्त्वपूर्ण संकेत यह मिला है कि सरकार खुले हाथों से खर्च करने के लिए तैयार नहीं है। वित्त मंत्रालय ने स्पष्ट रूप से इस बात का जिक्र किया है कि उधार लेने के लिहाज से सरकार की निर्भरता बाजार पर कम होगी और ऐसे में निजी क्षेत्र के लिए बैंकिंग प्रणाली से अधिक ऋण को सुगम बनाने की कोशिश की जाएगी।
विभिन्न विशेषज्ञों का आर्थिक विश्लेषण यह रहा है कि महामारी के बाद आर्थिक वृद्धि में सुधार हुआ है लेकिन चिंताजनक पहलू यह है कि बेरोजगारी का स्तर काफी ऊंचा है, विशेषकर युवाओं में, और निजी निवेश में गिरावट देखी जा रही है। सरकार को अपर्याप्त निजी निवेश की भरपाई के लिए अपना निवेश बढ़ाना पड़ा है जो बुनियादी ढांचे जैसे सड़क, रेलवे और बिजली के विकास में लगाया गया है।
सरकार ने यह प्रतिबद्धता जताई है कि वह वादे के मुताबिक वर्ष 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 4.5 प्रतिशत के स्तर तक लाने की कोशिश करेगी। इस साल राजकोषीय घाटा 5.8 प्रतिशत (5.9 प्रतिशत के बजट अनुमान की तुलना में) रहने का अनुमान है और अगले वर्ष 2024-25 में यह 5.1 प्रतिशत के स्तर तक जाने का अनुमान लगाया गया है।
राजकोषीय सुधार की सराहना की जानी चाहिए लेकिन सरकार के सामने वास्तविक चुनौती उच्च स्तर के निवेश को बनाए रखना है। इसके लिए कर-जीडीपी अनुपात को मध्यम अवधि में कम से कम 20 प्रतिशत के स्तर तक ले जाना महत्वपूर्ण है, जबकि वर्तमान स्तर 17 से 18 प्रतिशत है जो पिछले दो दशकों से स्थिर है।
कर-जीडीपी अनुपात में इस तरह की वृद्धि के लिए वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) के योगदान को जीडीपी के 6.4 प्रतिशत से बढ़ाकर कम से कम जीडीपी के 7.5 प्रतिशत के स्तर तक ले जाना होगा। इसके लिए औसत जीएसटी दर को मौजूदा 11.8 प्रतिशत से बढ़ाकर 14.8 प्रतिशत तक करना होगा जो जीएसटी से पहले की अवधि के दौरान चलन में था (यह राजस्व के तटस्थ दर को दर्शाता है)। इस सुधार के लिए दरों को तार्किक बनाए जाने आवश्यकता होगी जिसमें शायद 5 प्रतिशत के न्यूनतम दर और 28 प्रतिशत के शीर्ष दर में वृद्धि के साथ ही जीएसटी छूट खत्म करना शामिल है।
इसके अलावा, विनिर्माण के आधार को बढ़ाना होगा क्योंकि जीएसटी संग्रह विनिर्माण में मूल्य वृद्धि पर निर्भर करता है और यह कुल जीएसटी के 65 प्रतिशत का योगदान देता है। कुल जीडीपी में सेवा क्षेत्र की अच्छी-खासी हिस्सेदारी है लेकिन इसके बावजूद जीएसटी में सेवा क्षेत्र का योगदान केवल 35 प्रतिशत है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि भारत में सेवा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर असंगठित क्षेत्र की कम मूल्य योगदान देने वाली इकाइयां शामिल हैं। सरकार ने जीएसटी दर को तार्किक बनाए जाने के महत्त्व को समझ लिया है और इसी वजह से उत्तर प्रदेश के वित्त मंत्री के अधीन एक समिति का गठन किया है। उम्मीद है कि यह नई सरकार को अपनी सिफारिशें देगी।
सरकार ने इलेक्ट्रिक वाहनों, अक्षय ऊर्जा और नेटवर्क इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे नए उभरते हुए क्षेत्रों की पहचान की है जो विनिर्माण क्षेत्र में दिख रहे नए बदलाव की तेजी में योगदान दे सकते हैं और इससे भविष्य में जीएसटी संग्रह को बढ़ा सकते हैं।
इस वक्त मुख्य समस्या, उच्च स्तर की बेरोजगारी बनी हुई है। सरकार ने परिधान, चमड़ा और खाद्य प्रसंस्करण जैसे श्रम वाले क्षेत्रों की लागत कम करने का मौका गंवा दिया है क्योंकि इन क्षेत्रों में लगने वाले महत्वपूर्ण कच्चे माल और घटकों पर लगने वाले सीमा शुल्क को नहीं घटाया गया है। वहीं नेटवर्क इलेक्ट्रॉनिक्स के मामले में देखें तो सरकार पहले ही मोबाइल फोन के कलपुर्जे के आयात शुल्क को कम कर चुकी है। यही बात अन्य श्रम विनिर्माण उद्योगों के मामले में भी किया जा सकता था।
सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि जीएसटी का अध्ययन पूरी गंभीरता से किया जाना चाहिए जो एक परिवर्तनकारी कर सुधार है। कुछ असंगत निष्कर्ष भी निकल रहे हैं कि जीएसटी लागू होने से पहले के दौर की तुलना में जीएसटी राजस्व का प्रदर्शन कैसा रहा है। पूर्व मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम के एक हाल के अध्ययन से पता चलता है कि जीएसटी राजस्व सिर्फ वर्ष 2022-23 में ही जीएसटी से पहले के दौर के स्तर यानी जीडीपी के 6.1 फीसदी को पार कर पाया और तब यह 6.3 प्रतिशत के स्तर पर पहुंच गया था।
हालांकि इस तरह के नतीजे, किसी भी तरह से मजबूत डिजाइन वाले जीएसटी को कमजोर नहीं करते हैं क्योंकि यह कोरोना महामारी के वर्षों और राजस्व तटस्थ दर को जीएसटी से पहले के दौर के 14.8 प्रतिशत से घटाकर अब 11.8 प्रतिशत करने के बावजूद हासिल किया गया है।
जीएसटी की शुरुआत के कारण अर्थव्यवस्था पर परिवर्तनकारी प्रभाव की जांच के लिए साक्ष्य-आधारित अध्ययन जरूर किए जाने चाहिए। इसके लिए वस्तु एवं सेवा कर नेटवर्क के डेटा को शोध संस्थानों के साथ व्यापक तौर पर साझा करना आवश्यक है। इस तरह के शोध के लिए अध्ययन के विषयों में निम्नलिखित चीजें शामिल हो सकती हैंः
(क) आयातित इनपुट पर एकीकृत जीएसटी रिफंड के समायोजन के बाद जीएसटी लागू होने से पहले और जीएसटी लागू होने के बाद की अवधि के बीच राजस्व में अपेक्षाकृत तेजी
(ख) अंतरराज्यीय बाधाओं के दूर होने के बाद आंतरिक बाजार में विस्तार
(ग) राजकोषीय समानता का उद्देश्य-क्या गरीब राज्यों को अधिक लाभ मिला है?
अंत में अंतरिम बजट ने इस बात के मजबूत संकेत दिए हैं कि भारत व्यय पक्ष के लिहाज से उत्पादक निवेश और राजस्व पक्ष के लिहाज से बेहतर अनुपालन एवं कर आधार में विस्तार के संयोजन के जरिये राजकोषीय सुदृढीकरण की राह पर चल रहा है।
(लेखक सीबीआईसी के पूर्व सदस्य हैं। इसमें उनके निजी विचार हैं)