भाजपा के जन्मदिन को पार्टी के वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी उसका पुनर्जन्म दिन कहना पसंद करते हैं क्योंकि उसका जन्म सन 1980 में ईस्टर के सप्ताहांत पर हुआ था। उसके 43वें जन्मदिन के अवसर पर काफी कुछ लिखा गया। इस बीच पार्टी की दूसरी बार बनी सरकार अपने कार्यकाल के आखिरी वर्ष में प्रवेश कर रही है।
अगले वर्ष इस समय तक कुछ दौर का मतदान हो चुका होगा। फिलहाल जैसे हालात हैं उस हिसाब से तो विपक्ष की तमाम कवायद के बावजूद भाजपा हारती हुई नहीं नजर आती। पार्टी को यह कद अपने संस्थापकों के अधीन भी हासिल नहीं था। अभी भी काफी हद तक यह वही दल है जो जनता पार्टी की राख से निर्मित हुई थी लेकिन नरेंद्र मोदी, अमित शाह और अब जे पी नड्डा के नेतृत्व में काफी कुछ बदल चुका है। यह देखने का अच्छा समय है कि 43 वर्ष पुरानी पार्टी आडवाणी और अटल बिहारी वाजपेयी द्वारा स्थापित पार्टी के कितने समान है और कितनी बदली हुई है।
एक बात जो नहीं बदली है वह है उसकी विचारधारा। पार्टी के संस्थापक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की विचाराधारा के प्रति सच्चे रहे। बाहर से भी तमाम लोग पार्टी में आए। मोदी-शाह के काल में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन के दूसरे कार्यकाल में भी तमाम नेता बाहर से आए लेकिन शीर्ष नेतृत्व हमेशा एक ही विचारधारा का रहा। इनमें पार्टी के अध्यक्ष, प्रमुख महासचिव, ज्यादातर राज्यों के प्रमुख शामिल हैं। यह नेतृत्व संघ की विचारधारा के करीब है।
यद्यपि कई अंतर भी आए। हालांकि आप कह सकते हैं कि ये आंकड़ों की हकीकत भी दर्शाते हैं क्योंकि पार्टी के संस्थापकों को कभी बहुमत नहीं हासिल हुआ। विविधतापूर्ण गठबंधन को एकजुट रखने के लिए यह जरूरी था कि विचारधारा के कुछ तत्त्वों को ठंडे बस्ते में रखा जाए। जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करना, राम मंदिर निर्माण और समान नागरिक संहिता लागू करने की कोशिश इनका प्रमुख उदाहरण हैं।
उनके उत्तराधिकारियों ने बहुमत हासिल किया और उपरोक्त तीन में से दो बातों को शीघ्र ही हकीकत में बदला। तीसरे को बारीकी से लागू किया जा रहा है। तीन तलाक शुरुआत थी, विवाह की न्यूनतम आयु और बहु विवाह की दिशा में निश्चित पहलकदमी हो रही है।
यह तथ्य है कि संस्थापकों ने एक वैचारिक पार्टी खड़ी की जो सन 1977 के जनता पार्टी के प्रयोग में खो सी गई थी। जिन पांच प्रमुख घटकों से मिलकर जनता पार्टी बनी थी वे थे भारतीय जन संघ, भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (ओ), सोशलिस्ट पार्टी, भारतीय लोक दल (चरण सिंह) और बाबू जगजीवन राम की कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी। इन पांचों में से केवल एक दल बचा और नये अवतार के रूप में सामने आया और वह था भाजपा।
बाकी सभी दल हाशिये पर चले गए और कुछ राज्यों तक या जाति विशेष के दलों में सिमट कर रह गए। समाजवादी पार्टी और राष्ट्रीय जनता दल ऐसे ही दल हैं। समाजवादी धड़ा जॉर्ज फर्नांडिस के अधीन और अब नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड तक सिमट गया है।
जनता पार्टी की तकदीर को सन 1948 में मोहम्मद रफी और सुरैया की आवाज में आए युगल गीत से समझा जा सकता है जिसके बोल हैं: ‘इस दिल के टुकड़े हजार हुए, कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा।’ इनमें से केवल एक दल उभरा और आज अतुलनीय ढंग से हम पर शासन कर रहा है। जन संघ के भारतीय जनता पार्टी के रूप में उदय के पीछे स्पष्ट विचारधारा भी एक ठोस वजह रही।
अगर विचारधारा इतनी प्रभावी थी तो इसके साथ ही एक बोझ भी था जिसने दूसरों को साथ आने से रोका। इनमें ऐसे लोग भी थे जो कांग्रेस और गांधी परिवार से विमुख थे। भाजपा के लिए यह बहुत बड़ी चुनौती बनी रही। ऐसे में अगर मोदी और शाह आज इतने सफल हैं तो उन्हें अपने संस्थापकों, खासकर वाजपेयी का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि वे पार्टी को विपक्षी खेमे में अस्पृश्य की हैसियत से दूर ले आए।
इस दिशा में बड़ा कदम था विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार को समर्थन देना ताकि राजीव गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार न बन सके जबकि कांग्रेस उस समय भी सबसे बड़ा दल था। भले ही उस राजनीतिक घटना को आज उतना याद नहीं किया जाता है लेकिन भाजपा द्वारा वाम रुझान वाले एक गठबंधन का समर्थन करना। ऐसा इसलिए कि यह उसकी विचारधारा के एकदम उलट था।
यह राजनीतिक दृष्टि से एकदम उपयुक्त था क्योंकि कांग्रेस को सत्ता से दूर रखने का यही एक तरीका था। यह कितनी बड़ी चुनौती थी इसे इस बात से समझा जा सकता है कि कैसे बाद में कांग्रेस ने भाजपा विरोधी गठबंधनों को सत्ता में आने में मदद की। इनमें चंद्रशेखर, एचडी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल तक शामिल थे जिन्होंने सन 1990-91 से 1997-98 तक सत्ता संभाली। ‘धर्मनिरपेक्ष’ ताकतों को एकजुट रखने और ‘सांप्रदायिक’ शक्तियों को बाहर रखने के नाम पर इसे उचित ठहराना एकदम आसान था।
आडवाणी और वाजपेयी की बात करें तो बाद में इन्हीं में से कुछ दलों को साथ लेना एक बड़ी कामयाबी थी। ममता बनर्जी, चंद्रबाबू नायडू, नवीन पटनायक, राम विलास पासवान और कश्मीर का अब्दुल्ला परिवार आदि सभी ने भाजपा के साथ गठबंधन किया। अकाली दल और शिव सेना जैसे नैसर्गिक सहयोगी तो थे ही।
अब अंतर यह है कि भाजपा इतनी ताकतवर हो चुकी है कि उसे किसी साझेदार की जरूरत नहीं। यहां तक कि अकालियों और शिव सेना की भी नहीं। इसलिए उसने एक को त्याग दिया और दूसरे को तोड़ दिया। वह छोटी जाति आधारित पार्टियों से स्थानीय स्तर पर जरूरत के मुताबिक समझौते कर सकती है, खासतौर पर हिंदी क्षेत्र में लेकिन वह किसी पर निर्भर नहीं है। दो अपवाद हैं अखिल भारतीय अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम और एकनाथ शिंदे की शिव सेना। परंतु देखना होगा कि शिंदे की शिव सेना कितनी टिकाऊ साबित होती है।
अगर भाजपा शुरुआती अस्पृश्यता की चिंताओं को पीछे छोड़कर इतना विशाल कद हासिल कर चुकी है तो साथ ही उसने शुरुआती विचारों से कुछ दूरी भी बनाई है। आप उसे इसका विकास कह सकते हैं।
पहली बात, पार्टी में अब एक व्यक्ति का कद हावी है। याद रहे इंदिरा गांधी के दौर में पार्टी इसी के खिलाफ थी। वाजपेयी-आडवाणी युग में भी सत्ता में दोनों के साथ अन्य लोगों की साझेदारी थी। संघ समेत असहमत लोगों के कुछ कहने की पूरी गुंजाइश थी। अब संघ सरकार का पूरा समर्थन करता है और उसके सभी कदमों को सराहता है। आप कह सकते हैं कि अगर सरकार उसकी विचारधारा के मुद्दों पर खरी उतर रही है तो भला वह शिकायत क्यों करेगा?
अगला है राजनीति को लेकर बुनियादी रुख। वाजपेयी अक्सर कहा करते थे, ‘राजनीति सौदा नहीं है।’ उनके उत्तराधिकारियों ने लेनदेन वाली राजनीति का अपना अलग ही संस्करण तैयार किया है।
वाजपेयी ने एक मजबूत केंद्रीकृत प्रधानमंत्री कार्यालय तैयार किया था और संघ अक्सर उस पर प्रश्न करता था। मोदी के नेतृत्व में यह कार्यालय और अधिक शक्तिशाली है और किसी को शिकायत नहीं है। हमें याद रखना चाहिए कि वाजपेयी की सरकार में सुरक्षा मामलों की कैबिनेट समिति में जॉर्ज फर्नांडिस के रूप में कम से कम एक ऐसा व्यक्ति था जो विचाराधारा के स्तर पर बाहरी था।
संस्थापकों ने जो कदम उठाए उनमें प्रतिभा की तलाश शामिल थी। जनवरी 1984 में जब पार्टी राजीव लहर में दो सीटों पर सिमट गई थी तब मैंने भारत के कमजोर पड़ चुके विपक्ष को लेकर वाजपेयी का साक्षात्कार किया था। उन्होंने माना था कि युवा राजीव गांधी की ताकत हैं और वह खुद युवा नेताओं की तलाश में थे। उन्होंने अरुण जेटली और प्रमोद महाजन का नाम लिया था। सच तो यह है कि संस्थापकों के काल में उभरे कई युवा नेता अब पार्टी का नेतृत्व कर रहे हैं। मोदी भी उनमें से एक हैं।
मानव संसाधन के इस मानक पर मौजूदा नेतृत्व के रिपोर्ट कार्ड की संस्थापकों से किस प्रकार तुलना होगी? क्या हमें अगली पीढ़ी के नेताओं का उभार नजर आ रहा है? हिमंत विश्व शर्मा, योगी आदित्यनाथ और शायद देवेंद्र फडणवीस जैसे नेता हैं लेकिन ये उतनी संख्या में नहीं हैं जितनी संख्या में संस्थापकों के काल में थे।
भाजपा 43 वर्ष की हो चुकी है और प्रगति जारी है। इस बीच राजनीतिक तौर तरीके बदले हैं लेकिन विचारधारा के स्तर पर वही निरंतरता है। यह आपको पसंद है या नहीं यह इस बात पर निर्भर करता है कि आप किस सोच से आते हैं।