लेख

जोशीमठ के परे

Published by
टी एन नाइनन
Last Updated- January 13, 2023 | 10:10 PM IST

हिमालय के गढ़वाल इलाके में स्थित तीर्थ जोशीमठ में मिट्टी के धसकने की खबरें लगातार सामने आईं। इसकी वजह से घरों को नुकसान पहुंचा और लोगों की जिंदगी का भी खतरा उत्पन्न हुआ है। इस विषय में प्रकाशित खबरों और टिप्पणियों में उचित ही कहा गया कि अतीत में इससे संबंधित चेतावनियों की अनदेखी की गई। हिमालय के एक हिस्से में भूस्खलन का खतरा पहले से मौजूद है और वहां इसके अलावा भी कई खतरे हैं क्योंकि वनों की जमकर कटाई हुई है। ऐसे में वहां महत्त्वाकांक्षी रेल, सड़क, जलविद्युत परियोजनाओं तथा अन्य परियोजनाओं के कारण पर्यावरण को हुई क्षति के बारे में भी उचित ही बातें कही गई हैं।

जोशीमठ के हालात तथा उसे मिली मीडिया कवरेज के साथ ही पर्यावरण को लेकर एक बड़ी चिंता उत्पन्न हुई है: उत्तर भारत के मैदानी शहरों और कस्बों में ठंड के दिनों में हवा की गुणवत्ता खराब हो जाती है, शहरों में बीते वर्षों के दौरान कचरे के पहाड़ खड़े हो गए हैं, पानी जैसे अहम और दुर्लभ संसाधन का जमकर दुरुपयोग, जलवायु परिवर्तन के कारण हो चुका नुकसान मसलन हिमालय के ग्लेशियरों का पिघलना, औद्योगिक कचरे का समुचित निपटान न होना, आदि कई समस्याएं हमारे सामने हैं।

कुल मिलाकर संदेश यही है कि उपरोक्त बातों को लेकर जो चिंता जताई जा रही है वह प्रभावी कदमों में रूपांतरित नहीं हो पा रहा है, सुधार की बात तो छोड़ ही दी जाए। इस प्रकार देश की हवा, पानी, जमीन और वन आदि प्राकृतिक संपदा तथा पानी एवं खनिज आदि को जो भी नुकसान पहुंचा है उसकी भरपाई बहुत मुश्किल है। कई पाठकों को यह बात चकित कर सकती है कि ‘हरित अंकेक्षण’ जो टिकाऊ वृद्धि का आकलन सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी तथा जीडीपी वृद्धि को हासिल करने में प्राकृतिक पर्यावरण को हुए नुकसान के आधार पर करता है, वह दिखाता है कि भारत के समग्र हरित प्रदर्शन में धीरे-धीरे सुधार हो रहा है।

गत अक्टूबर में भारतीय रिजर्व बैंक के बुलेटिन में प्रकाशित एक पर्चे में यही संदेश था लेकिन मीडिया ने इस पर ध्यान नहीं दिया। हकीकत में पारंपरिक जीडीपी और हरित जीडीपी के बीच का अंतर तेजी से कम हो रहा है। यानी हरित जीडीपी पारंपरिक जीडीपी की तुलना में तेजी से बढ़ रहा है। दूसरे शब्दों में कहें तो हम अपनी खोई हुई जमीन दोबारा हासिल कर रहे हैं। अगर आपको लगता है कि यह नजर के सामने दिख रही हकीकत के उलट है तो पर्चा कई सरकारी पहलों को भी रेखांकित करता है जिनकी बदौलत सुधार आया है।

उनमें शामिल हैं: नवीकरणीय ऊर्जा को महत्त्वाकांक्षी गति, जीडीपी की प्रति यूनिट के हिसाब से घटी भौतिक खपत, एलईडी बल्ब और ऊर्जा खपत वाली गतिविधियों में अनिवार्य ऊर्जा अंकेक्षण जैसी गतिविधियों की बदौलत कम ऊर्जा घनत्व हासिल करना, पदार्थों के पुनर्चक्रण में इजाफा, स्वच्छ भारत पहल के तहत ठोस कचरे का बेहतर प्रबंधन, नमामि गंगे परियोजना आदि। इस पर्चे के लेखक मानते हैं कि हाल के वर्षों में आया कुछ सुधार आंकड़ों की बेहतर उपलब्धता के कारण है।

अगर गैर विशेषज्ञ के नजरिये से देखें तो आरबीआई बुलेटिन ग्रीन जीडीपी के आकलन की दिशा में पहला कदम है। इसमें आकलन के लिए जो प्रविधि अपनाई गई है और जिसकी बदौलत निष्कर्ष निकाले गए हैं, उनमें सुधार आएगा अगर आकलन और परिभाषाओं के क्षेत्र में और अधिक लोग काम करें। पर्चे में सकारात्मक संदेश निहित है जिससे इनकार नहीं किया जा सकता है लेकिन अहम सवाल यह है कि क्या हरित जीडीपी यह भी दर्शाता है कि हमारे प्राकृतिक संसाधनों के साथ क्या हो रहा है। इसे बैलेंस शीट संबंधी रुख में आंकना जरूरी है। समुचित आकलन ही सुधार की दिशा में पहला कदम है। सवाल यह है कि पारंपरिक जीडीपी के अनुमानों के साथ हरित जीडीपी के आंकड़े क्यों नहीं पेश किए जा सकते हैं? तब शायद सतत विकास को सही संदर्भ में समझा जा सके और उस पर बहस की जा सके।

इस बीच कुछ चयन करने होंगे और कुछ सवालों को भी हल करना होगा। जोशीमठ के आसपास के इलाकों में फिलहाल विनिर्माण गतिविधियां बंद कर दी गई हैं लेकिन भविष्य में ऐसी घटनाओं के दोहराव को किस प्रकार रोका जाएगा। हिमालय तथा अन्य इलाकों में पर्यावरण को पहुंच रही क्षति को लेकर दी जा रही चेतावनियों की अनदेखी के परिणामों से कैसे बचा जाएगा? क्या पानी की खपत वाली धान और गन्ना जैसी फसलें हरियाणा और महाराष्ट्र जैसे पानी की कमी वाले इलाकों में उगाई जानी चाहिए?

चूंकि खेती में अभी भी सबसे अधिक पानी लगता है इसलिए क्या किसानों को समझाया जा सकेगा कि वे इस कदर भूजल का दोहन न करें या धान जैसी फसलों की खेती के लिए कम पानी की खपत वाले विकल्प आजमाएं? क्या इंजीनियरों और विनिर्माण उद्योगों के गठजोड़ को तोड़ा जा सकेगा? क्या हम मजबूत नियामकीय तथा संबद्ध संस्थान बना सकते हैं जो पर्यावरण संरक्षण सुनिश्चित कर सकें? अगर ऐसा नहीं किया गया तो जोशीमठ से लगा झटका एक सप्ताह से ज्यादा नहीं टिकेगा।

First Published : January 13, 2023 | 10:10 PM IST