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बैड बैंक, अच्छा इरादा और बुरा कर्ज

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 11, 2022 | 11:50 PM IST

दस वर्ष के ठहराव के बाद शेयर बाजार एक बार फिर सरकारी बैंकों की संभावनाओं को लेकर उत्साहित है। निश्चित रूप से केवल भारतीय स्टेट बैंक के शेयर ही अब तक के उच्चतम स्तर पर पहुंचे हैं जबकि शेष बैंकों में से अधिकांश के शेयर अब भी सन 2010-11 के अपने उच्चतम स्तर से काफी नीचे हैं। मौजूदा उत्साह की दो वजह हैं: ‘बैड बैंक’ की शुरुआत और अर्थव्यवस्था में सुधार के कारण ऋण का संभावित विस्तार। यह बात सही है कि सैद्धांतिक तौर पर ये दोनों कारक बैंकों के भविष्य में बड़ा अंतर पैदा कर सकते हैं लेकिन बीते दशक से कुछ सबक भी सीखे जा सकते हैं। पिछली बार जब हमने ऋण का विस्तार देखा था तब इसकी वजह से फंसा हुआ कर्ज 20 लाख करोड़ रुपये हो गया था। क्या हम एक बार फिर वैसा ही परिणाम चाहते हैं?
सच तो यह है कि विगत 20 वर्षों में सरकारी बैंकों का प्रदर्शन केवल तेजी के दो ऐसे अवसरों पर बेहतर रहा है जिन्हें अस्वास्थ्यकर माना जाता है। पहला अवसर था 2003 से 2007 के बीच का जब अचल संपत्ति, धातु और विनिर्माण के कुछ क्षेत्र तथा पूंजीगत वस्तुओं की कंपनियों को अल्पावधि में मांग में तेजी देखने को मिली। उन्हें इसे फंड करने के लिए बहुत अधिक मात्रा में पूंजी उधार लेनी पड़ी। दुख की बात है कि इनमें से अधिकांश कारोबार ऐसे कारोबारी चला रहे थे जिनके इरादों और क्षमताओं को लेकर सवाल उठाए जा सकते थे। आश्चर्य नहीं कि इन प्रवर्तकों को सरकारी बैंकों के अधिकारियों में ऐसे सहयोगी मिले जिनकी कोई जवाबदेही नहीं थी। सभी सरकारी बैंकों के बीच यह प्रतिस्पर्धा थी और उन्हें बिजली, सड़क, इस्पात और अचल संपत्ति क्षेत्र की बड़ी बुनियादी परियोजनाओं में हजारों करोड़ रुपये का निवेश करना था। जैसा कि हम जानते हैं उस ऋण का बहुत बड़ा हिस्सा फंसे हुए कर्ज में तब्दील हो गया। यह कितना बुरा था?
लैंको की बबंध बिजली परियोजना पर एक नजर डालिए। इसकी मदद से यह समझा जा सकता है कि कई बड़ी पूंजी खपत वाली परियोजनाओं के साथ बीते दो दशक में क्या हुआ है। इस परियोजना की शुरुआती लागत 6,930 करोड़ रुपये थी जिसमें से प्रवर्तकों का योगदान 20 फीसदी होना था और शेष 80 फीसदी राशि विभिन्न प्रकार के ऋण मसलन नकद ऋण, टर्म ऋण और बैंक गारंटी आदि के माध्यम से आनी थी। यह राशि 14 भारतीय बैंकों और जीवन बीमा निगम से हासिल होनी थी। क्रिसिल ने लैंको इन्फ्राटेक की बैंक सुविधा रेटिंग को अगस्त 2008 के बीबीबी प्लस/स्थिर पी2 से सुधार कर मार्च 2010 में  ए/स्थिर/पी2 प्लस कर दिया। इससे लैंको इन्फ्राटेक का कुल कारोबारी जोखिम प्रोफाइल सुधरा। प्राथमिक तौर पर यह इस अनुमान पर आधारित था कि परियोजना की क्षमता 2008 में 500 मेगावॉट से बढ़ाकर दिसंबर 2010 में 2,680 मेगावॉट हो जाएगी।
मार्च 2015 में परियोजना की लागत को संशोधित करके 10,430 करोड़ रुपये कर दिया गया और जून 2016 में इसे 11,949 करोड़ रुपये कर दिया गया। सन 2019 में जब लैंको दिवालिया निस्तारण के लिए गई तब भी परियोजना पूरी नहीं हो सकी थी। लैंको ने परियोजना के 8,217 करोड़ रुपये के कर्ज के दावे को स्वीकार किया और औसत निष्पक्ष मूल्य तथा नकदीकृत मूल्य क्रमश: 1,800 करोड़ रुपये और 900 करोड़ रुपये निकला। इसके लिए केवल वेदांता समूह ने बोली लगाई और उसने एक करोड़ रुपये नकद तथा 5 फीसदी इक्विटी की पेशकश की। उसने पूंजी पुनर्गठन के बाद 10.27 करोड़ रुपये की चुकता पूंजी में से 51 लाख रुपये देने की बात कही। बैंकरों ने पेशकश ठुकरा दी और वेदांत ने इसे बढ़ाने से इनकार कर दिया। आखिरकार परियोजना के नकदीकरण से 290 करोड़ रुपये हासिल हुए। अब जरा इसकी तुलना इस बात से कीजिए कि सरकार अभी भी विजय माल्या की पूर्ण भुगतान की पेशकश को स्वीकार करने से इनकार कर रही है।
एक जानकार बैंकर का कहना है कि बैंकों द्वारा परियोजना जोखिम से निपटने के तरीके को लेकर कई मसले थे। उदाहरण के लिए: किसी कंपनी द्वारा परियोजना विकास से जुड़े जोखिम कम करने को लेकर पूर्व प्रतिबद्धता की शर्त नहीं थी, पहली किस्त की अदायगी असावधानी से हुई और इससे पता चला कि बैंक कर्ज देने को लेकर उत्सुक थे। प्रवर्तकों के परिचालन परिणाम और वित्तीय स्थिति का विश्लेषण नहीं किया गया जिससे पता चल सके कि उनकी प्रदर्शन क्षमता क्या थी। बैंकों ने कर्जदाताओं के तथाकथित स्वतंत्र इंजीनियरों पर भरोसा किया जिससे पता चलता है कि बैंकों का रवैया कितना लापरवाह था। संक्षेप में कहें तो बैंकों ने प्रवर्तकों के प्रस्ताव पर बिना कोई शक किए भरोसा कर लिया।
मंजूरी ज्ञापन भी लापरवाही से तैयार किया गया और परियोजनाओं की निगरानी नहीं की गई। बैंकर के निष्कर्ष के मुताबिक एलआईसी और बैंकों ने बिना जोखिम का आकलन किए पैसा दे दिया। आश्चर्य नहीं कि इस परियोजना से 3,000 करोड़ रुपये की राशि इधर-उधर की गई। इसमें 1,000 करोड़ रुपये की अतिरिक्त अग्रिम राशि ईपीसी (इंजीनियरिंग, खरीद, विनिर्माण) ठेकेदार को चुकाई गई। लैंको इन्फ्राटेक सात अन्य बिजली परियोजनाओं तथा एक टोल रोड परियोजना के साथ स्वयं नकदीकरण की प्रक्रिया में है। इन सभी को प्रमुख रूप से सरकारी बैंकों ने फंड किया था।
यदि केवल अक्षमता थी तो हमें यह जानना होगा कि वही बैंकर आज अचानक सक्षम कैसे हो जाएंगे। यदि यह भ्रष्टाचार था तो हमें यह जानने की आवश्यकता है कि इस बार यह कैसे रुकेगा क्योंकि केंद्र सरकार ने उन मामलों में से एक की भी जांच नहीं की है और सरकारी बैंकों में से कुछ का विलय करके बस उनके साथ मामूली छेड़छाड़ की है। इस बीच सरकार ने एक बैड बैंक की घोषणा कर दी जिसका नाम राष्ट्रीय परिसंपत्ति पुनर्गठन कंपनी लिमिटेड (एनएआरसीएल) होगा। यह पहले बैंकों से फंसे हुए कर्ज को खरीदेगा। इससे सरकारी बैंकों को दोबारा ऋण देने की आजादी मिलेगी लेकिन वे किसे ऋण देंगे?
राजनीतिक प्रभाव के अधीन खराब ढंग से ऋण देना कांग्रेसनीत सरकार में खूब फलाफूला लेकिन मोदी सरकार में ऐसा नहीं हो रहा है। कम से कम उस पैमाने पर तो नहीं। कर्ज के दम पर झूठी आर्थिक तेजी नहीं है लेकिन यदि सरकारी बैंक ऋण विस्तार के नाम पर पिछली बार की तरह कर्ज नहीं बांट पाए तो इन बैंकों का प्रदर्शन कैसा रहेगा।
(लेखक डब्ल्यूडब्ल्यूडब्ल्यू डॉट मनीलाइफ डॉट इन के संपादक हैं। )

First Published : November 1, 2021 | 11:18 PM IST