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आर्थिक सुधारों के लिए राज्य सरकारों की पहल का इंतजार

अब केंद्र भविष्य में प्रमुख आर्थिक सुधारों के लिए राज्यों पर अधिक निर्भर होता दिख रहा है। बता रहे हैं ए के भट्टाचार्य

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ए के भट्टाचार्य   
Last Updated- March 14, 2024 | 11:44 PM IST

सरकार के एक वरिष्ठ अधिकारी ने पिछले हफ्ते आश्वासन देते हुए टिप्पणी की थी कि राज्यों को लंबित आर्थिक नीति एजेंडे पर ध्यान देने की आवश्यकता है जिससे भारत को टिकाऊ आधार पर 7 से 8 प्रतिशत की आर्थिक वृद्धि दर हासिल करने में मदद मिलेगी। उस अधिकारी ने कुछ ऐसे क्षेत्र भी बताए जिनमें जहां आने वाले महीनों में सुधार के कुछ उपाय करने की आवश्यकता है ताकि व्यापार में और सुगमता के साथ ही अधिक निवेश आकर्षित किया जा सके।

यह टिप्पणी इसलिए भी आश्वस्त करने वाली थी कि यह ऐसे समय में आई है जब आम चुनावों के बाद किए जाने वाले जरूरी सुधारों को रेखांकित करने के बजाय, सरकारें कई रियायतों और नई परियोजनाओं वाली घोषणाएं करने में व्यस्त हैं। ऐसे बयान पूरी तरह से अप्रत्याशित नहीं थे क्योंकि भारत की राजनीतिक अर्थव्यवस्था ही ऐसी है जहां सरकार के निर्वाचित प्रतिनिधि ऐसी घोषणाएं करने में ज्यादा यकीन करते हैं जिनसे वोट पाने में सहूलियत हो सकती है, खासतौर पर आम चुनाव से पहले।

दुर्भाग्य की बात यह है कि आर्थिक सुधार जैसे कदमों के बलबूते शायद ही कभी वोट मिलते हों। ऐसी स्थिति में सुधारों की आवश्यकता से जुड़ा बयान भले ही अधिकारियों की तरफ से आए तो इससे राहत मिलने के साथ ही यह भरोसा मजबूत होता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था को अधिक उत्पादक और सक्षम बनाने की कोशिशें अभी खत्म नहीं हुई हैं।

नई बुनियादी ढांचागत परियोजनाओं की घोषणा करना या चुनाव की तैयारी कर रही सरकारों के लिए सब्सिडी बढ़ाना अपेक्षाकृत आसान है और चुनाव के लिहाज से कहीं अधिक फायदेमंद है। फिर भी, प्रमुख नीतिगत सुधारों के लिए एक कार्ययोजना तैयार करने की अहमियत को कोई नकार नहीं सकता है जिसे सरकारों को चुनाव के बाद जरूर लागू करना चाहिए।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी सभी मंत्रालयों से चुनाव के बाद लागू करने के लिए 100 दिन की कार्ययोजना देने के लिए कहा है। उम्मीद है कि ये कार्ययोजनाएं नई योजनाओं और परियोजनाओं के बारे में कम और सुधार और संरचनात्मक प्रक्रिया में बदलाव से अधिक जुड़ी होंगी ताकि इन्हें पारदर्शी, नियम-आधारित बनाया जा सके जिससे अर्थव्यवस्था अधिक प्रतिस्पर्धी और सक्षम बन सके।

कारोबार में (निजीकरण) में सरकार की भूमिका ऐसा क्षेत्र है जहां 100 दिन की कार्य योजना का पर्याप्त प्रभाव दिख सकता है। सवाल यह है कि अप्रैल और मई में होने वाले चुनावों के बाद बनने वाली नई सरकार द्वारा लागू किए जाने वाले 100 दिन की कार्य योजनाओं के जरिये आर्थिक नीति में किस तरह के सुधारों की उम्मीद की जा सकती है?

सबसे पहले, भूमि, श्रम एवं कृषि कानूनों में सुधार को तत्काल प्राथमिकता मिलनी चाहिए। नरेंद्र मोदी सरकार ने इन तीनों क्षेत्रों में आवश्यक सुधार करने के प्रयास जरूर किए लेकिन इसमें कोई प्रगति करने में सरकार विफल रही।
वर्ष 2014 में सत्ता में आने के एक साल के भीतर मोदी सरकार ने उद्योग लगाने और बुनियादी ढांचागत परियोजनाएं शुरू करने के लिए भूमि अधिग्रहण के नियमों में ढील देने की कोशिश करते हुए आकर्षक मुआवजा राशि की पेशकश के साथ इस पूरी प्रक्रिया को सरल बनाने पर जोर दिया।

मोदी सरकार इस मुद्दे पर राजनीतिक दलों की सहमति हासिल करने को लेकर आत्मविश्वास से भरी थी। हालांकि राजनीतिक दलों और यहां तक कि सत्तारूढ़ दल के कुछ हलकों की तरफ से भी इसका जबरदस्त विरोध किया गया।

इसके साथ ही सरकार पर उद्योग जगत के साथ मधुर संबंध बनाने के आरोप इतनी गंभीरता से लगाए जाने लगे कि मोदी सरकार ने भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को चुपचाप ठंडे बस्ते में डालने का फैसला कर लिया। उस वक्त के बाद से भूमि अधिग्रहण कानूनों में संशोधन की योजना पर फिर कोई बात नहीं की गई है और अब ऐसा लगता है कि केंद्र सरकार यह उम्मीद कर रही है कि राज्य अपने संबंधित भूमि अधिग्रहण कानूनों में संशोधन कर लें।

अपने दूसरे कार्यकाल में मोदी सरकार ने दो प्रमुख पहल की लेकिन इनमें ज्यादा प्रगति नहीं देखी गई। श्रम कानूनों में सुधारों की शुरुआत करने के लिए मोदी सरकार ने लोक सभा में अपने बहुमत का इस्तेमाल कर 29 केंद्रीय श्रम कानूनों को चार संहिताओं में बदलने की कोशिश की जिनमें वेतन संहिता 2019, सामाजिक सुरक्षा संहिता 2020, व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता 2020 और औद्योगिक संबंध संहिता 2020 शामिल हैं।

यह एक बड़ा कदम था क्योंकि इन संहिताओं ने न केवल श्रम कानून को सरल बना दिया, बल्कि इसे लागू करना भी आसान हो गया। हालांकि श्रमिकों के प्रतिनिधि इनके कई प्रावधानों से खुश नहीं थे। लेकिन अभी तक इन संहिताओं के राष्ट्रव्यापी स्तर पर शुरू किए जाने और इनके अंतर्गत नियमों की अधिसूचना जारी किए जाने की तत्काल कोई उम्मीद नहीं है।

श्रम, भारतीय संविधान की समवर्ती सूची में शामिल है जिससे केंद्र और राज्य दोनों को इस विषय में कानून बनाने का अधिकार है। मोदी सरकार ने राज्यों और श्रमिक संघों को चार श्रम संहिताओं से सहमत होने के लिए कड़ी मेहनत की है।

कुल 31 राज्यों ने पहले ही वेतन संहिता के अंतर्गत मसौदा नियम प्रकाशित कर दिए हैं और 28 राज्यों ने औद्योगिक संबंध संहिता और सामाजिक सुरक्षा संहिता दोनों के लिए ऐसा किया है।

वहीं 26 राज्यों ने व्यावसायिक सुरक्षा स्वास्थ्य एवं कार्यदशा संहिता के तहत ऐसा किया है। इन चार श्रम संहिताओं के राष्ट्रीय स्तर पर लागू किए जाने की राह में बाधा यह है कि संभवतः श्रमिक संगठन नए कानून के सभी नए प्रावधानों को स्वीकार करने से इनकार कर रहे हैं। ऐसे में क्या राज्य इसमें सफलता हासिल कर सकते हैं?

मोदी सरकार द्वारा वर्ष 2020 में शुरू किए गए कृषि सुधारों के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। कोविड की पहली लहर के बाद आर्थिक बंदी के दौरान जून 2020 में तीन अध्यादेश लाए गए और तीन महीने बाद संसद की मंजूरी के साथ ही इन्हें कानून बना दिया गया। तीनों कानून भारतीय कृषि को संचालित करने वाले ढांचे में तीन मूलभूत बदलाव से जुड़े थे। कृषि उपज व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सुविधा) अधिनियम, 2020, ने देश भर में मंडियों के बाहर के क्षेत्र को एक व्यापार क्षेत्र के रूप में वर्गीकृत किया ताकि इन मंडियों के बाहर व्यापार के लिए एक व्यवस्था तैयार हो सके।

मूल्य आश्वासन एवं कृषि सेवा पर किसान (सशक्तीकरण एवं संरक्षण) समझौता अधिनियम, 2020 ने किसानों और खरीदार संस्थाओं के बीच अनुबंध खेती समझौतों के लिए एक ढांचा बनाने की कोशिश की गई। आवश्यक जिंस (संशोधन) अधिनियम, 2020 ने अधिनियम के दायरे से कुछ कृषि जिंसों को छूट दी और इन वस्तुओं के मूल्यों में असामान्य वृद्धि या गिरावट सहित असाधारण परिस्थितियों में ही इसे लागू करने तक सीमित कर दिया।

हालांकि मुख्य रूप से पश्चिमी उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में किसानों के लंबे समय तक चले आंदोलन के कारण इन कानूनों को निरस्त करने और सभी कृषि जिंसों के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) देने की कानूनी गारंटी की मांग की गई। दिसंबर 2021 में उत्तर प्रदेश और पंजाब में 2022 की शुरुआत में होने वाले चुनावों से पहले मोदी सरकार ने अपने कदमों की समीक्षा की और इन कानूनों को वापस लेने का फैसला कर लिया। जहां तक आर्थिक सुधारों का सवाल है, सत्तारूढ़ दल को एक बार फिर राजनीतिक रूप से झुकना पड़ा। वर्ष 2024 में किसानों ने एक बार फिर अपनी सभी उपज के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी के लिए आंदोलन शुरू कर दिया है।

ऐसी स्थिति में कृषि सुधारों पर काम शुरू किए जाने की संभावना कम ही नजर आती है। शायद कृषि सुधारों की जिम्मेदारी भी राज्यों पर टाली जा सकती है। राज्यों ने जैसे भूमि एवं श्रम कानूनों के मामले में किया है, ठीक वैसे ही वे कृषि कानून में भी बदलाव की पहल कर सकते हैं। कृषि भी संविधान की राज्य सूची के अंतर्गत आती है, हालांकि कृषि से संबंधित कुछ वस्तुएं संघ सूची और समवर्ती सूची में शामिल हैं।

First Published : March 14, 2024 | 11:44 PM IST