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अदाणी मामला और भारत के समक्ष अवसर

इन आरोपों से इनकार किया गया है और कहा गया है कि रिश्वत देने के प्रमाण ही नहीं हैं।

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अमित टंडन   
Last Updated- December 13, 2024 | 10:50 PM IST

अमेरिका के न्याय विभाग और प्रतिभूति एवं विनिमय आयोग ने गौतम अदाणी, उनके भतीजे सागर अदाणी और छह अन्य लोगों पर आरोप लगाया है कि उन्होंने भारत में अधिकारियों को 25 करोड़ डॉलर की रिश्वत दी और इस बात को अमेरिकी निवेशकों से छिपाया। इन आरोपों से इनकार किया गया है और कहा गया है कि रिश्वत देने के प्रमाण ही नहीं हैं।

अभी दो वर्ष भी नहीं हुए जब न्यूयॉर्क की शॉर्ट सेलर फर्म हिंडनबर्ग ने अदाणी समूह पर आरोप लगाए थे। जनवरी 2023 में हिंडनबर्ग ने अदाणी समूह पर शेयरों के साथ छेड़छाड़ करने और बहीखातों में धोखाधड़ी का आरोप लगाते हुए दावा किया था कि समूह ने विदेशी रकम का इस्तेमाल कर अपना बाजार मूल्य बढ़ा कर दिखाया है। भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) ने समूह के सौदों और लेनदेन की जांच की मगर उसे गड़बड़ी का कोई सबूत नहीं मिला।

सेबी ने हिंडनबर्ग को ही कठघरे में खड़ा कर दिया और कहा कि इस शॉर्ट सेलर फर्म की जांच की जा रही है क्योंकि उसने अपनी रिपोर्ट में मौजूद उस जानकारी का इस्तेमाल कर शेयरों की खरीदफरोख्त की, जो सार्वजनिक तौर पर उपलब्ध नहीं थी।

इन आरोपों के कारण बाजार में काफी उतार-चढ़ाव आया और निवेशकों को बड़ा नुकसान उठाना पड़ा। इसके बाद मार्च 2023 में सर्वोच्च न्यायालय ने न्यायमूर्ति ए एम सप्रे के नेतृत्व में एक समिति का गठन यह पता लगाने के लिए किया कि इसमें कोई नियामकीय नाकामी तो नहीं थी। समिति ने जांच के कई पहलुओं पर अदाणी को पाक साफ नहीं करार दिया लेकिन उसने कहा कि ‘अब तक’ समूह के खिलाफ कोई प्रमाण नहीं है। समिति ने पाया कि अदाणी कंपनियों की जांच में बतौर नियामक सेबी की कोई नाकामी नहीं थी।

हिंडनबर्ग के आरोप अधिक गंभीर थे मगर इस बार के आरोप अधिक विश्वसनीय स्रोत से आए हैं और उनके गंभीर परिणाम भी हो सकते हैं। परंतु तथ्यों और परिणामों को छोड़ दें तो भी इन आरोपों ने देश में कारोबार करने की मूल भावना को ठेस पहुंचा दी है। पिछले कई सालों में भारत को ‘चीन प्लस वन’ नीति का फायदा मिला है। इस नीति के तहत कंपनियां चीन में विनिर्माण जारी रखती हैं मगर भारत समेत अन्य अर्थव्यवस्थाओं की टोह भी लेती हैं ताकि उन्हें विनिर्माण का वैकल्पिक केंद्र बनाकर आपूर्ति श्रृंखला में विविधता लाई जा सके।

इस नीति को कोविड-19 महामारी के दौरान बल मिला जब महसूस हुआ कि विनिर्माण और माल की आवाजाही के लिए एक ही देश पर निर्भर रहना कितना जोखिम भरा है। इस चलन को बढ़ावा मिला क्योंकि कंपनियां उन चुनौतियों से निपटने के तरीके तलाशने लगीं, जो उनकी आपूर्ति श्रृंखला में आ सकती थीं। ये चुनौतियां चीन-अमेरिका तनाव जैसे भू-राजनीतिक जोखिमों और दोनों देशों के बीच व्यापार युद्ध तथा चीनी माल पर शुल्क के कारण आ सकती हैं। चीन में महंगी होती मजदूरी ने भी कारोबारियों को किफायती जगह खोजने पर मजबूर किया है।

निवेश के लिहाज से भारत में जबरदस्त संभावनाएं हैं मगर धारणा यही बनी हुई है कि हाल-फिलहाल हुई सारी प्रगति के बाद भी भारत चीन का स्थान नहीं ले सकता – कम से कम निकट भविष्य में तो नहीं। चीन के पास भारी-भरकम बुनियादी ढांचा है, प्रौद्योगिकी में उसकी तकात से पूरी दुनिया जलती है और उसके पास बेहद एकीकृत आपूर्ति व्यवस्था है। उसने विनिर्माण प्रौद्योगिकी में महारत हासिल कर ली है और वहां सुगम कारोबारी माहौल है। इन्हीं सब कारणों से चीन दुनिया का कारखाना बन गया है।

अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को भारत में भी चीन जैसा बुनियादी ढांचा मिलने की उम्मीद शायद नहीं होगी। उन्हें यह भी नहीं लगता कि भारत में उनको चीन जैसे प्रशिक्षित श्रमबल की वजह से इतनी कुशलता के साथ कारोबार करने का मौका मिलेगा। इसलिए चीन प्लस वन असल में जोखिम कम करने की नीति है। दूसरे देश अगर चीन से हटने की नीति का फायदा उठाना चाहते हैं तो उन्हें हर तरह की तसल्ली देनी होगी।

भारत में कामकाजी आबादी की उम्र कम है और मध्य वर्ग तेजी से बढ़ रहा है, जिससे आने वाले दशकों में खपत बढ़ेगी। मगर हाल में काफी निवेश और सुधार के बाद भी भारत को अपना बुनियादी ढांचा बेहतर बनाने की जरूरत है। लोकतंत्र, पारदर्शिता और कानून का शासन आदि भारत की सकारात्मक बातें हैं मगर कारोबार को फलने-फूलने के लिए और भी काफी कुछ चाहिए। उत्पादक श्रम शक्ति को प्रशिक्षित श्रमबल की आवश्यकता होती है।

स्वास्थ्य, स्वच्छता, स्वच्छ पेयजल और बेहतर जीवन सुविधाएं आदि जरूरी क्षेत्र हैं, जिनमें सुधार की आवश्यकता है। इसके अलावा मजबूत न्यायपालिका, स्वतंत्र संस्थान, स्थिर नीतियों और निरंतरता वाली कर प्रणाली आदि पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।

भारत में मजबूत अधोसंरचना तैयार करने और भूराजनीतिक रणनीति में गहराई लाने के लिए भारत सरकार ने निजी क्षेत्र की पूंजी का इस्तेमाल करने की ठानी। उसे पता है कि वह स्वयं एक सीमा तक ही खर्च कर सकती है। यही वजह है कि बड़े निजी समूह देश के रणनीतिक हित वाले क्षेत्रों में काम कर रहे हैं जैसे रक्षा, नवीकरणीय ऊर्जा, सेमीकंडक्टर आदि। देश के कारोबारी जगत को वैश्विक पूंजी बाजारों से पूंजी जुटानी होगी। निस्संदेह ऐसा करने में वैश्विक स्तर पर उसकी छानबीन भी होगी।

इसीलिए दुनिया भर की सरकारें, कंपनियों के निदेशक मंडल और निवेशक अब इस बात पर नजर रखेंगे कि भारत इन घटनाओं पर क्या करता है। भारतीय नियामकों को मोटे तौर दुनिया के बेहतरीन नियामकों में शामिल किया जाता है और इस हकीकत को किसी भी कीमत पर बदलने नहीं देना चाहिए। भारत की रणनीतिक प्रगति में देर नहीं होने देनी है तो देश की नियामकीय व्यवस्था को तेजी से प्रतिक्रिया देनी होगी। विधि के शासन में भरोसा कायम रखकर तथा देश की व्यवस्थाओं पर यकीन करके ही ‘मेक इन इंडिया’ और ‘विकसित भारत’ का सपना साकार किया जा सकता है।

First Published : December 13, 2024 | 10:50 PM IST