लगभग 1.38 अरब भारतीयों का डॉलर के मुकाबले रुपये के स्तर को लेकर एक अलग किस्म का लगाव है। उनकी यह चाह है कि वह 80 का स्तर पार न करे। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि वायदा अनुबंध अक्सर पूर्ण अंक में लिखे जाते हैं। इससे एक किस्म की स्थिरता आती है।
36 देशों की वास्तविक प्रभावी विनिमय दर (आरईईआर) के आधार पर देखें तो रुपया अभी भी अप्रैल 2020 के स्तर से मजबूत है। आरईईआर को नॉमिनल विनिमय दर के रूप में परिभाषित किया जाता है जो घरेलू और विदेशी मुल्कों के बीच सापेक्षिक मूल्य अंतर पर आधारित होता है तथा बाह्य प्रतिस्पर्धा का परिचायक भी होता है।
जाहिर है मुद्रा बाजार हमारी आहों, चीख चिल्लाहटों को तवज्जो नहीं देगा। रुपया अपना स्तर तलाश लेगा और यह कई कारकों पर आधारित होगा। पिछले दिनों रुपया 80 के स्तर के पार चला गया और पहली बार हाजिर बाजार 80 के स्तर के ऊपर कारोबार कर रहा था। केंद्रीय बैंक के हस्तक्षेप के चलते उसके बाद से इसकी कीमत में सुधार हो रहा है।
भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने गिरावट रोकने के लिए डॉलर की बिकवाली की है। अपने उच्चतम स्तर पर देश का विदेशी मुद्रा भंडार 642 अरब डॉलर था लेकिन यह 572.7 अरब डॉलर के साथ 20 महीनों के न्यूनतम स्तर पर आ गया। आरबीआई की डॉलर बिकवाली, डॉलर के अलावा अन्य मुद्राओं का अवमूल्यन आदि ने भी विदेशी मुद्रा भंडार में आई कमी में योगदान किया है।
अधिकांश उभरते बाजारों की मुद्राओं का अवमूल्यन रुपये के अवमूल्यन के अनुरूप ही है लेकिन यूरो, पाउंड स्टर्लिंग तथा जापानी येन जैसी आरक्षित मुद्राओं में भी दो अंकों में गिरावट आई है। दक्षिण कोरिया की मुद्रा वॉन, फिलिपींस की पेसो, थाई मुद्रा बहत और ताइवानी डॉलर में रुपये के मुकाबले अधिक गिरावट आई है।
यानी रुपया कोई अपवाद नहीं है। रुपये में गिरावट क्यों आ रही है? इसकी तीन प्रमुख वजहें हैं: अमेरिका में ब्याज दरों में इजाफा, भारत के चालू खाते के घाटे में इजाफा और मुद्रास्फीति में इजाफा। हमारी खुदरा मुद्रास्फीति अमेरिका तथा कुछ विकसित देशों के साथ तुलना लायक नहीं है लेकिन थोक मुद्रास्फीति अप्रैल 2021 से ही दो अंकों में है। इसके अलावा अमेरिका और यूनाइटेड किंगडम पर मंदी का खतरा है तथा वैश्विक वृद्धि खामोश है। रूस-यूक्रेन जंग ने भूराजनीतिक जोखिम बढ़ा दिए हैं और हाल तक जिंस कीमतों में लगातार इजाफा हो रहा था।
इस परिदृश्य में विदेशी पोर्टफोलियो निवेशक जनवरी से अब तक करीब 30 अरब डॉलर की राशि निकाल चुके हैं। इसके चलते मांग और आपूर्ति के बीच अंतर उत्पन्न हो रहा है जो स्थानीय मुद्रा के मूल्य में नजर आता है। आरबीआई इस गिरावट को नहीं रोक सकता, वह केवल अवमूल्यन की प्रक्रिया को सहज बना सकता है। अतीत में जब रुपये के मूल्य में तेज गिरावट आई तब भारत ने इसे अलग-अलग ढंग से प्रबंधित किया। उदाहरण के लिए अगस्त 1998 में रीसर्जेंट इंडिया बॉन्ड्स की मदद से 4.8 अरब डॉलर की राशि जुटाई गई थी ताकि पोकरण-2 विस्फोट के बाद लगाए गए अमेरिकी आर्थिक प्रतिबंधों को देखते हुए मुद्रा भंडार मजबूत किया जा सके। 2001 में इंडिया मिलेनियम डिपॉजिट स्कीम की मदद से 5.5 अरब डॉलर की राशि जुटाई गई। सन 2013 के आखिर में अमेरिकी फेडरल रिजर्व ने अपनी बॉन्ड खरीद को कम करने की बात कही। उस समय रुपये में भारी गिरावट आई और विदेशी मुद्रा अनिवासी जमा की मदद से 34.3 अरब डॉलर की राशि जुटाई गई। अब हालात बदल गए हैं। जिंस कीमतों में कमी आने से चालू खाते का घाटा कम हो सकता है। परंतु शेयर कीमतों में 10 फीसदी से अधिक की गिरावट के बाद भी वे विदेशी खरीदारों को आकर्षक नहीं लग रहे हैं और ऐसे में पूंजी प्रवाह पर सवाल बना हुआ है। यह सही है कि भारत को मंदी का सामना नहीं करना पड़ेगा और उच्च तीव्रता वाले आंकड़े बताते हैं कि गतिशीलता विद्यमान है लेकिन वृद्धि अभी तक जोर नहीं पकड़ सकी है। आयातक खुद को रुपये के अवमूल्यन से बचाने का प्रयास कर रहे हैं जबकि निर्यातक प्रतीक्षा कर रहे हैं और आशा कर रहे हैं कि वे कुछ और कमाई कर सकेंगे। रुपये का अवमूल्यन होने पर बाहर से आने वाले धन की आवक भी धीमी हो जाती है। ऐसा और अवमूल्यन की प्रत्याशा में होता है।
आरबीआई पहले ही कंपनियों के लिए विदेशी उधारी की सीमा बढ़ा चुका है और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के मानक उदार बनाए गए हैं। उसने सीमा पार व्यापारिक लेनदेन को रुपये में निपटाने को भी इजाजत दे दी है। अभी इन मानकों के असर को आंकना जल्दबाजी होगी। केंद्रीय बैंक के एक वरिष्ठ स्रोत के हवाले से एक हालिया रिपोर्ट में कहा गया है कि जरूरत पड़ने पर आरबीआई रुपये के बचाव में 100 अरब डॉलर की और राशि व्यय कर सकता है। दरअसल आज भी भारत चीन, जापान और स्विट्जरलैंड के बाद चौथा सर्वाधिक विदेशी मुद्रा वाला देश है और वह कम से कम 10 महीने के आयात को संभाल सकता है। अलग-अलग देशों में मुद्रा भंडार का स्वरूप भी अलग-अलग है। भारत में इसका एक बड़ा हिस्सा ऋण के रूप में है। निश्चित तौर पर मार्च 2022 के अंत में बाह्य ऋण -जीडीपी अनुपात 19.9 फीसदी था जबकि एक वर्ष पहले यह 21.2 फीसदी था। परंतु कुल व्यय में अल्पावधि के डेट की हिस्सेदारी मार्च 2022 तक बढ़कर 19.6 फीसदी हो गई जबकि मार्च 2021 के अंत तक यह 17.6 फीसदी थी। क्या पुराने तौर तरीके कारगर होंगे? खासतौर पर 2013 की तरह बैंकों को प्रोत्साहन के साथ एनआरआई जमा जुटाना तथा दरों में अचानक तेज इजाफा। उस समय उच्च मुद्रास्फीति मांग आधारित थी जबकि आज यह आपूर्ति क्षेत्र के दबाव की वजह से है। कुछ देशों में जंग तथा मंदी का खतरा है जिससे भारत समेत कई देशों के वृद्धि पूर्वानुमान प्रभावित हो रहे हैं। इसके साथ ही मुद्रास्फीति के आने वाले कई महीनों तक तेज बने रहने की संभावना है।
हमें दरों में व्यवस्थित इजाफा करते हुए अमेरिका के साथ ब्याज दरों का अंतर बरकरार रखना होगा और रुपये को उसका उचित मूल्य तलाशने देना होगा।
पुनश्च: कई लोग मानते हैं कि वैश्विक बॉन्ड सूचकांक में भारत को शामिल करने से बात बन सकती है। लेकिन यह एक दोधारी तलवार है। इससे नकदी की आवक हो सकती है लेकिन जब विदेशी मुद्रा सुरक्षा की दृष्टि से बाहर जाती है तब यह मुद्रा और बॉन्ड प्रतिफल पर विपरीत प्रभाव भी डालेगा।
