भारतीय कंपनियों ने पिछले छह वर्षों में इक्विटी की विदेशी सूचीबद्धता के जरिये पूंजी नहीं जुटाई है। यह उदारीकरण के बाद का सबसे लंबा अंतराल है। प्राइम डेटाबेस के आंकड़ों के अनुसार इस जरिये से रकम जुटाने का आखिरी मामला 2018 में हुआ था।
साल 1992 से 2016 तक लगभग हर साल विदेश में घरेलू शेयरों की सूचीबद्धता हुई। हालांकि साल 2017 इसका अपवाद रहा। 2018 में एक आखिरी इश्यू के बाद कोई लिस्टिंग नहीं हुई। यह खालीपन ऐसे समय हुआ है जब कुछ भारतीय कंपनियां गांधीनगर की गुजरात इंटरनैशनल फाइनैंस टेक-सिटी (गिफ्ट सिटी) में सूचीबद्ध होने की संभावनाएं तलाश रही हैं, जिसे सिंगापुर जैसे ऑफशोर केंद्र के विकल्प के रूप में देखा जा रहा है।
सरकार ने 2024 में भारतीय कंपनियों की विदेशी एक्सचेंजों पर सीधी सूचीबद्धता का रास्ता साफ कर दिया। गिफ्ट सिटी में इंडिया इंटरनैशनल एक्सचेंज (इंडिया आईएनएक्स) और एनएसई इंटरनैशनल एक्सचेंज (एनएसई आईएक्स) इसके लिए निर्धारित प्लेटफॉर्म हैं। कंपनी (संशोधन) अधिनियम, 2020 के तहत पहले ही विदेशी एक्सचेंजों पर सीधी लिस्टिंग की अनुमति दी जा चुकी है। बाजार नियामक सेबी की ओर से नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने 2018 में विदेशी लिस्टिंग के लिए ब्रिटेन, अमेरिका और स्विट्जरलैंड समेत 10 ऐसे क्षेत्राधिकारों की सिफारिश की थी।
सेबी की 2018 की रिपोर्ट में कहा गया है, अंतर्निहित मुद्रास्फीति और अपेक्षाकृत छोटे घरेलू संस्थागत और गैर-संस्थागत पूंजी कोष को देखते हुए भारत में पूंजी की लागत विदेशी कंपनियों की तुलना में अधिक बनी हुई है। इस कारण भारतीय कंपनियां अपने ही बाजार में नुकसान में रहती हैं। एक सरल और सिद्धांत आधारित अंतरराष्ट्रीय लिस्टिंग व्यवस्था के तहत भारतीय निगमित कंपनियां बाजार से पूंजी जुटा सकती हैं। इस तरह वे अपनी लागत को अभीष्तम कर लेती हैं और उन्हें मूल्य, वॉल्यूम, गुणवत्ता और ब्रांडिंग का सबसे ज्यादा लाभ होता है और यही समय की मांग है।
प्राइम डेटाबेस के प्रबंध निदेशक प्रणव हल्दिया ने कहा, नए जमाने की या कई तकनीकी कंपनियां पहले अपने कारोबार के बारे में निवेशकों की बेहतर समझ के कारण विदेशों में सूचीबद्ध होना पसंद करती थीं जिससे उनका मूल्यांकन बढ़ता और निवेशकों की दिलचस्पी भी बढ़ी। उन्होंने कहा कि स्थानीय स्तर पर ऐसी इक्विटी पूंजी की बढ़ती उपलब्धता के साथ यह रुझान कम हुआ है।
कानूनी फर्म सीएमएस इंडसलॉ में पार्टनर कौशिक मुखर्जी की राय में घरेलू शेयर बाजार में तेजी ने भी विदेशी लिस्टिंग के आकर्षण को और कम कर दिया है। उन्होंने कहा कि कंपनियां अब अपनी इक्विटी पूंजी की जरूरतें भारतीय बाजारों के जरिए पूरी कर सकती हैं जिससे विदेश जाने की उनकी जरूरत कम हो जाती है।
मुखर्जी ने कहा कि कन्वर्टिबल जैसे अन्य साधनों ने रिटर्न के मामले में उतना अच्छा प्रदर्शन नहीं किया है, हालांकि प्रमुख क्षेत्रों में विदेशी बॉन्ड अभी भी लोकप्रिय हैं। उन्होंने कहा, बैंक और गैर-बैंकिंग वित्तीय कंपनियां सबसे ज्यादा सक्रिय हैं क्योंकि यह फंडिंग का एक स्थिर स्रोत है। उन्होंने कहा कि समूह भी विदेशी पूंजी पर नजर रख रहे हैं। गिफ्ट सिटी में बॉन्ड जारी करने वालों की संख्या बढ़ी है।
खेतान ऐंड कंपनी के पार्टनर थॉमस जॉर्ज ने कहा, कई भारतीय कंपनियों ने अपनी वित्तीय जरूरतों को अंतरराष्ट्रीय ऋण बाजारों के जरिये के पूरा करने का विकल्प चुना है और डिपॉजिटरी रिसीट्स (डीआर) कार्यक्रमों के जरिये इक्विटी जुटाने के बजाय बॉन्ड जारी करके रकम एकत्रित की है। डीआर जारी करने में गिरावट के कारण लागत और बहु-क्षेत्रीय जटिलताएं रही हैं।
इक्विटी फंड जुटाने की प्रक्रिया सीमित रही है। लेकिन डेट और कनवर्टिबल कैपिटल मार्केट के निर्गम जारी हैं। 2018 से अब तक 1.8 अरब डॉलर के कनवर्टिबल जारी किए जा चुके हैं, जबकि ऋण प्रतिभूतियों के निर्गम का मूल्य 60 अरब डॉलर से ज्यादा रहा है।