भारतीय कार्पोरेट हाउस अधिग्रहण के जरिए विदेशों में निवेश करता रहा है ये बात तो जाहिर है लेकिन वो ये सब करने के लिए ऐसे देशों को चुनते हैं जहां या तो टैक्स की दर बहुत कम होती है या फिर उन पर किसी भी तरह का टैक्स नहीं लगता।
रिजर्व बैंक के ताजा आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल से दिसंबर 2007 के बीच भारतीय कंपनियों का बाहर लगाया जाने वाला पैसा सिंगापुर, नीदरलैंड्स और ब्रिटिश वर्जीनिया आईलैंड्स को गया है। ऐसा नहीं कि ये पैसा इन देशों में लगाया जाता है, बल्कि इस निवेश की मंजिल कोई और देश होती है। सिंगापुर एशिया पैसिफिक का फाइनेंशियल हब माना जाता है और इस तरह के एफडीआई का 37 फीसदी हिस्सा इस देश में किया, इसके बाद आता है नीदरलैंड्स जहां 26 फीसदी एफडीआई गया और ब्रिटिश वर्जीनिया आईलैंड्स में 8 फीसदी गया।
बैंक के आंकड़ों के मुताबिक अप्रैल-दिसंबर 2007 के बीच यह आउटवर्ड एफडीआई 13 फीसदी बढ़कर 10.11 अरब डॉलर का हुआ जब कि 2006 में इस दौरान 8.97 अरब डॉलर का निवेश किया गया था। अप्रैल-दिसंबर 2007 के दौरान कुल 19.74 अरब डॉलर का एफडीआई इनफ्लो रहा यानी जो विदेशी निवेश भारत आया। इसका मतलब यह कि इस दौरान नेट इनफ्लो केवल 9.63 अरब डॉलर का ही रहा है ।
प्राइस वाटरहाउस कूपर्स के ईडी जयराज पुरांदरे के मुताबिक भारतीय कंपनियां ये निवेश इसलिए भी करती हैं कि इस निवेश पर होने वाली कमाई पर या तो बहुत कम टैक्स लगता है या फिर कोई टैक्स नहीं लगता। इससे कंपनियां टैक्स देने के बजाए उस पैसे को वापस कारोबार में लगा पाती हैं। ये देश वैसे ही इंटरमीडियरी डेस्टिनेशन का काम करते हैं जैसे विदेशी निवेशक या फिर कई एमएनसी मॉरीशस के जरिए भारत में निवेश करते हैं। भारतीय निवेशक जो विदेशों में निवेश करते हैं उन्हे नए बाजार , नई तकनीक और नए कस्टमर का फायदा तो मिलता ही है, कारोबारी मुनाफा भी खासा होता है।