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पार्टिसिपेटरी नोट को लेकर उठे सवाल, क्या हो इसका जवाब?

Last Updated- December 07, 2022 | 1:43 AM IST

विदेशी डेरिवेटिव उपकरणों (जिन्हें आम तौर पर ‘पार्टिसिपेटरी नोट्स’ या ‘पी नोट्स’ कहा जाता है) पर नियंत्रण करने वाले भारतीय प्रतिभूति कानूनों की गाथा में हाल ही में एक नया अध्याय जुड़ गया है।


प्रतिभूति अपील न्यायाधिकरण (सैट) ने अपने निर्णय में भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) के उस निर्देश को गलत ठहराया है, जिसके मुताबिक विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) को यह हलफनामा दाखिल करना चाहिए कि उन्होंने कुछ चुनी हुई श्रेणियों में आने वाले व्यक्तियों को पी नोट जारी नहीं किए हैं।

एफआईआई का नियमन करने वाले कानूनों पर सरसरी नजर डालना बेहतर होगा। एफआईआई भारत से बाहर रहने वाले वे व्यक्ति होते हैं, जो एक बार सेबी में पंजीकरण करा लेने के बाद भारतीय स्टॉक एक्सचेंजों में पूरी आजादी से प्रतिभूतियां खरीदने और बेचने के हकदार हो जाते हैं। इसके अलावा वे इस खरीदफरोख्त के लिए भारत में पैसा मंगाने के लिए आजाद होते हैं और उन्हें भारत से बाहर धन भेजने का भी पूरा अधिकार होता है।

पी नोट्स वे उपकरण या दस्तावेज होते हैं, जिन्हें एफआईआई एक करार के तहत तीसरे पक्षों के नाम जारी करते हैं। इसके तहत उन पक्षों को भारतीय प्रतिभूतियों में रुपये के उतार चढ़ाव और कंपनियों की कार्रवाई से होने वाले आर्थिक लाभ में भागीदारी करने का अधिकार मिल जाता है।

पारंपरिक रूप से पी नोट्स एफआईआई और पी नोट धारक के बीच खुले तौर पर हुए (ओवर द काउंटर) डेरिवेटिव करार के बाद ही अस्तित्व में आते हैं। पी नोट के जरिये एफआईआई के साथ करार करने वाला पक्ष वास्तविक प्रतिभूतियों का कानूनी अधिकार हासिल किए बिना और वोटिंग की शक्ति पाए बिना ही भारतीय प्रतिभूतियों के आर्थिक लाभ हासिल कर लेता है।

सेबी ने 2003 में एक परिपत्र जारी किया था, जिसके मुताबिक एफआईआई के लिए हर 15 दिन के अंतराल पर पी नोट्स धारकों की विस्तृत जानकारी एक निश्चित प्रारूप में देना जरूरी कर दिया गया था। इस प्रारूप में एक हलफनामा भी था, जिसमें यह प्रमाणित किया जाता था कि एफआईआई ने कोई भी पी नोट भारत के किसी निवासी, प्रवासी भारतीय एनआरआई, भारतीय मूल के व्यक्तियों और विदेशी कॉरपोरेट संस्थाओं (ऐसे निकाय जिनमें एनआरआई के कम से कम 60 फीसद हित होते हैं) को जारी नहीं किए हैं।

सेबी का यह परिपत्र सेबी (विदेशी संस्थागत निवेशक) नियम, 1995 के तहत जारी किया गया। लेकिन एफआईआई नियमों में ऐसी किसी भी रोक का प्रावधान नहीं था। एफआईआई नियमों के जिस प्रावधान के तहत यह परिपत्र जारी किया गया था, असल में उसके मुताबिक एफआईआई को कभी-कभार इस तरह की जानकारी देनी पड़ती है, जब सेबी उससे यह जानकारी मांगे।

सेबी से पंजीकृत एफआईआई हलफनामे की जगह केवल यह लिख सकता है कि ‘जहां तक हमारी जानकारी है’। इसका मतलब है कि सेबी के साथ हुए समझौते के आधार पर भी हलफनामे में भारतीय मूल के व्यक्तियों का जिक्र जरूरी नहीं होता, इसकी वजह से भी नया नियम लागू करने में सेबी के अधिकारियों को परेशानी हुई। लेकिन उसके बाद सेबी ने कानूनी कार्यवाही शुरू कर दी और एफआईआई पर 1 करोड़ रुपये का जुर्माना ठोक दिया, जिसे एफआईआई ने चुनौती दे दी।

अपील में सैट ने निर्णय दिया कि सेबी एफआईआई नियमों में प्रावधान हुए बगैर किसी पर भी इस तरह का हलफनामा दाखिल करने के लिए जोर नहीं डाल सकता, जिसमें यह पुष्टि की गई हो कि पी नोटस किन्हीं विशेष व्यक्तियों के नाम जारी नहीं किए गए हैं।

इसके अलावा दस्तावेज में दर्ज प्रमाण से यह पता चला कि सेबी के अधिकारियों ने उस परिपत्र के कारण होने वाली मुश्किलों को देखकर सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया और एफआईआई को हलफनामे में तब्दीली करने की इजाजत दी। इसके बाद भी सेबी ने एफआईआई पर जुर्माना ठोक दिया।

सैट का ताजातरीन फैसला भी उस दोहरे रवैये की ओर इशारा करता है, जो पी नोट्स से संबंधित कानूनी प्रारूप में मौजूद है। कई बुनियादी मसलों को परिभाषित ही नहीं किया गया है और सेबी की फाइलों में ही विभिन्न प्रतिबंध और नीतिगत मुद्दे पैदा हो गए हैं, जबकि कानून में इस तरह के कोई प्रावधान हैं ही नहीं (देखिए विदआउट कंटेम्प्ट के 31 मार्च 2008 और 22 अक्टूबर 2007 के संस्करण)।

सैट की ही एक पहले वाली पीठ ‘नो योर क्लाइंट’ फॉर्म पेश नहीं करने पर एक एफआईआई पर जुर्माना लगाने का सेबी का आदेश खारिज कर चुकी थी क्योंकि एफआईआई यह पुष्टि करने में ही सक्षम नहीं था कि दूसरे पक्ष को जारी किए गए पी नोट में किसी भी स्तर पर हिस्सेदारी कर भारतीय मूल का कोई व्यक्ति या कोई एनआरआई किसी भी तरीके से लाभ हासिल नहीं कर रहा है।

एफआईआई नियमों में इस स्तर पर ऐसा ब्योरा दर्ज करने की कोई जरूरत ही नहीं थी। सेबी का कहना था कि ‘नो योर क्लाइंट’ शब्द का अंग्रेजी में सीधा मतलब पूरा ब्योरा देना होता है।

मजे की बात है कि ‘पी नोट’ या ‘ऑफशोर डेरिवेटिव इंस्ट्रूमेंट’ शब्द की परिभाषा दी ही नहीं गई। इसलिए सेबी की ओर से लागू किए गए नियम का क्रियान्वयन भी इंस्ट्रूमेंट की प्रकृति के कारण अस्पष्ट हो सकता है। मसलन एक एफआईआई खुद को खतरे से बचाने की कोशिश नहीं करता है, तो वह प्रतिभूतियां नहीं होते हुए भी पी नोट जारी कर सकता है।

आज तक ऐसा कोई भी प्रावधान नहीं है, जिसके मुताबिक एफआईआई उन्हीं प्रतिभूतियों के लिए पी नोट जारी कर सकता है, जो उसके पास हैं। यह पूरी तरह से अस्पष्ट है कि पी नोट नीति में दिए गए प्रतिबंध ऐसे पी नोट्स पर कोई असर डालेंगे, जिन्हें खतरे से बचाया नहीं गया है।

सेबी ने एक्सचेंज में खरीद फरोख्त वाले ऑप्शंस और वायदा प्रतिभूतियों के बदले पी नोट्स जारी करने पर पिछले साल ही प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन किसी विदेशी व्यक्ति द्वारा निफ्टी (निफ्टी नेशनल स्टॉक एक्सचेंज का मुख्य सूचकांक है) की उन वायदा प्रतिभूतियों के बदले पी नोट्स जारी किए जाने पर किसी तरह का कानूनी प्रतिबंध नहीं लग सकता, जिनका कारोबार सिंगापुर एक्सचेंज में होता है।

यह मानना सरासर बेवकूफी होगी कि सिंगापुर में निफ्टी वायदा प्रतिभूतियों का उतार चढ़ाव भारतीय प्रतिभूतियों की कीमतों के उतार चढ़ाव से प्रभावित होगा। इसलिए डेरिवेटिव आधारित पी नोट्स पर प्रतिबंध भी कमोबेश निरर्थक ही हो जाता है। अब समय आ गया है कि पी नोटस के लिए नियामक ढांचे पर गहरी और सख्त नजर डाली जाए और यथार्थ से जुड़े कुछ सवाल पूछे जाएं।

(लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के साझेदार हैं। उपरोक्त विचार उनके निजी विचार हैं।)

First Published - May 26, 2008 | 2:18 AM IST

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