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दवा और सौंदर्य प्रसाधनों के बीच की जंग

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बीएस संवाददाता
Last Updated- December 08, 2022 | 6:06 AM IST

अधिकांश घरों में त्वचा संबंधी समस्याओं के लिए इस्तेमाल किए जाने वाली बोरोप्लस के बारे में पिछले दो दशकों में एक दर्जन से अधिक फैसले सुनाए जा चुके हैं।


इनमें उच्चतम न्यायालय का वह फैसला भी शामिल है जिसमें आखिरकार अदालत ने साफ किया कि यह सौंदर्य प्रसाधन सामग्री नहीं बल्कि दवा है। राजस्व विभाग के अधिकारियों के सिवाय कोई अन्य इसे सौंदर्य उत्पाद नहीं कह सकता है।

उच्चतम न्यायालय ने हाल ही में जैव-एलोवेरा, जैव-भृंगराज, जैव- खीरा, जैव- नारियल और जैव-कोस्टस आदि के बारे में फैसले सुनाए हैं।

इन उत्पादों में ऐसे तत्व पाये जाते हैं जिनमें आयुर्वेदिक दवा के गुण हैं और जिन्हें 1940 के ड्रग्स ऐंड कॉस्टमेटिक कानून के तहत दवा का लाइसेंस प्राप्त कर बनाया गया है। अदालत ने इन सभी को दवा करार दिया है।

भले ही सर्वोच्च न्यायालय इस तरह के मामलों पर कई फैसले सुना चुका है पर अब तक कोई ऐसा नियम नहीं बनाया गया है कि जिसके अनुसार दवा और सौंदर्य उत्पाद में अंतर किया जा सके। इसकी वजह है कि इन उत्पादों का दोनों ही तरह से इस्तेमाल किया जाता है।

अदालत में जब भी ऐसा कोई मामला आता है तो यही तय करना मुश्किल होता है कि उस उत्पाद को किस तरह से इस्तेमाल किया जा रहा है। अब तक सबसे बेहतरीन फैसला रूसी को खत्म करने वाले ‘सेल्सन’ नाम के एक उत्पाद के मामले में उच्चतम न्यायालय ने दिया था।

इस फैसले को सुनाने के पहले अदालत ने विस्तार से यह पता लगाया कि लोग इस उत्पाद को किन किन स्थितियों में और कैसे इस्तेमाल करते हैं।

अदालत का कहना था कि कोई भी फैसला ड्रग्स ऐंड कॉस्टमेटिक कानून 1940 में शामिल परिभाषा के आधार पर ही दिया जाना चाहिए। इस परिभाषा को ध्यान में रखकर उच्चतम न्यायालय ने मोटे मोटे तौर पर दवा और और सौंदर्य प्रसाधन में ये अंतर बताए:

दवा का इस्तेमाल मनुष्यों या फिर जानवरों में किया जाता है और इसके इस्तेमाल का उद्देश्य बीमारी का पता लगाना, उपचार या फिर किसी बीमारी से बचाव हो सकता है।

इसमें वे लोशन या मरहम भी शामिल हैं जिन्हें मच्छरों को भगाने के लिए शरीर पर लगाया जाता है।

हालांकि इस परिभाषा को जब सेल्सन पर लागू कर के देखा गया तो सवाल यह उठा कि यूं तो इस उत्पाद को रूसी नष्ट करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, यानी मूल रूप से एक दवा के तौर पर तो यह एक शैम्पू ही है जो आमतौर पर एक सौंदर्य प्रसाधन सामग्री ही होती है।

उच्चतम न्यायालय ने पाया कि इस मामले में कई पहलुओं को देखना पड़ेगा। ये पहलू कुछ इस तरह से हैं:


लेबल पर इस बारे में क्या लिखा गया है कि इस उत्पाद को किस रूप में बेचा जा रहा है।

उत्पाद में कौन से गुण अधिक हैं यानी उपचार के या फिर सौंदर्य बढ़ाने के, सफाई करने के और आकर्षक बनाने के।


क्या यह उत्पाद प्रिस्क्रिपशन के बगैर बिकता है?

ये सारे पहलू विवाद से जुड़े हैं। आमतौर पर इन सवालों के जवाब के लिये बाजार में जाकर पूछताछ की जा सकती है पर यह विकल्प भी बहुत कारगर साबित नहीं होगा अगर दुकानदार और उपभोक्ता अलग अलग राय देते हैं।

जहां तक उत्पाद के गुण की बात है तो इसके लिए रासायनिक परीक्षण की जरूरत होगी। और प्रिस्क्रिप्शन मिलना या नहीं मिलना ही बहुत बड़ा सबूत नहीं हो सकता है।

जहां तक उत्पाद के इस्तेमाल की बात है तो आमतौर पर यह देखा जाता है कि सौंदर्य प्रसाधन सामग्री का इस्तेमाल अमीर करते हैं जबकि दवा का इस्तेमाल गरीब भी करते हैं।

पहले सौंदर्य उत्पादों पर सीमा शुल्क काफी अधिक, करीब 100 फीसदी हुआ करता था। धीरे धीरे यह घट कर 30 फीसदी पर आ गया है।

वहीं दूसरी ओर दवाओं पर सीमा शुल्क महज 12.5 फीसदी का ही है। हालांकि दोनों ही के लिए केंद्रीय उत्पाद शुल्क 14 फीसदी कर दिया गया है, फिर भी दवा और सौंदर्य उत्पादों में फर्क करना अब भी मुश्किल है।

उत्पाद शुल्क समान होने के बाद भी दोनों में अंतर करना बहुत जरूरी होगा क्योंकि सीमा शुल्क अब भी दोनों पर अलग अलग ही वसूला जाता है। इस विवाद को सुलझाने का एक ही तरीका हो सकता है कि दोनों ही पर समान शुल्क वसूला जाए।

समान शुल्क वसूले जाने पर यह होगा कि कंपनियां अपने उत्पाद को किसी दूसरी श्रेणी में डाले के लिए मश्क्कत नहीं करेंगी। इस तरह लंबे समय से अलग अलग उत्पादों को लेकर जो बहस छिड़ती रहती है वह शांत हो सकेगी।

First Published : November 30, 2008 | 11:51 PM IST