कई बार राजकोषीय कानून में संदेह का लाभ किसे मिलना चाहिए, इसे लेकर गलतफहमियां पैदा हो जाती हैं।
कई दफा वकील सीमा शुल्क, उत्पाद कर, बिक्री कर और आयकर से जुड़े मामलों की पैरवी करते वक्त यह दलील पेश करते हैं कि अगर व्याख्या में कहीं संदेह होता है तो ऐसे में संदेह का लाभ कर अदाकर्ता को ही मिलना चाहिए। पर जहां तक राजकोषीय कानून की बात है तो यह सही नहीं है।
हालांकि आपराधिक कानून के लिए यह सही है। पर फिर राजकोषीय और आपराधिक कानूनों के बीच यही तो अंतर है। अगर हम उच्चतम न्यायालय के फैसलों पर ध्यान से निगाह डालें तो पता चलता है कि अदालत ने कभी किसी को संदेह का लाभ नहीं दिया है।
राजकोषीय कानून की व्याख्या करने में संशय पैदा करना बहुत मुश्किल नहीं है क्योंकि इनसे जुड़े मामलों पर आए दिन कई फैसले आते रहते हैं जो किसी न किसी बिंदु पर एक दूसरे से अलग होते हैं।
यही वजह है कि उच्चतम न्यायालय ने जब अदाकर्ता को संदेह का लाभ दिया था तो उससे पहले तथ्यों और कानूनों पर काफी बारीकी से नजर दौड़ाई थी और फैसला सुनाने से पहले यह सुनिश्चित कर लिया था कि अदाकर्ता का पक्ष सही है। उसके बाद ही संदेह का लाभ उसे दिया गया था हालांकि अगर उसे यह लाभ नहीं भी दिया जाता तो फैसला उसी के पक्ष में होता क्योंकि उसका पक्ष सही था।
हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय ने सीसीई बनाम कलकत्ता स्प्रिंग्स- 2008 (229) ईएलटी 161 (एससी) मामले में फैसला सुनाया है जिस दौरान राजकोषीय कानून में संदेह के लाभ को लेकर काफी चर्चा की गई।
मामला दरअसल यह था कि क्या ग्लास फिल्ड नायलॉन इंसुलेटिंग लाइनर्स (जीएफएनआईएल) को प्लास्टिक उत्पाद समझकर टैरिफ उत्पाद 39.20 की श्रेणी में रखा जाए या फिर इलेक्ट्रिकल इंसुलेटर के तौर पर उत्पाद 85.46 की श्रेणी में।
उत्पाद की कार्यप्रणाली पर विचार करने के बाद अदालत इस फैसले पर पहुंची कि उत्पाद कोई इंसुलेटर नहीं बल्कि प्लास्टिक का उत्पाद (39.26) है। इस मामले में अदालत ने संदेह के लाभ को अपनाया जबकि इसके पहले वह एसेसी के मेरिट को ध्यान में रखते हुए वह उसी के पक्ष में उत्पाद का वर्गीकरण करने वाला था।
उच्चतम न्यायालय ने मुंबई स्थित कस्टम्स के कमिश्नर बनाम जेडी ऑर्गोकेम लिमिटेड और कलकत्ता स्थित कस्टम्स के कमिश्नर बनाम साउथ इंडिया टेलीविजन लिमिटेड 2007 के मामले में सुनवाई के दौरान यह पाया कि अंडर वैल्युएशन को पक्के साक्ष्यों के साथ प्रमाणित करने की जरूरत है।
अगर आयात के मामले में अंडर वैल्युएशन को पक्के साक्ष्यों और सूचनाओं के साथ स्पष्ट नहीं किया जाता है तो संदेह का लाभ आयातक को मिलना चाहिए। हालांकि जब वित्तीय मामलों में पेनल्टी का जिक्र किया जाता है तो यहां आपराधिक मामलों की तरह ही यहां भी वही सिद्धांत अपनाए जाते हैं।
आखिरकार निष्कर्ष यही निकलता है कि वित्तीय कानूनों में संदेह का लाभ आपराधिक कानून से बिल्कुल अलग है। वित्तीय कानून में अगर कोई संदेह होता है तो इसका फायदा राजस्व विभाग को जाता है। पर अगर डयूटी को लेकर किसी उत्पाद का वर्गीकरण किया जाना है तो ऐसे में संदेह का लाभ एसेसी को दिया जाता है पर उसके पहले भी यह सुनिश्चित कर लिया जाता है कि मेरिट उसी के पक्ष में हो।