उच्चतम न्यायालय के एक फैसले के अनुसार टैक्स रिकवरी ट्रिब्यूनल के रिकवरी ऑफिसर को यह अधिकार नहीं है कि वह दिवालियेपन की स्थिति में किसी कंपनी की संपत्ति की बिक्री सुनिश्चित करे, तब जब कि कंपनी ने एक ऑफिशियल लिक्वीडिटेर नियुक्त किया हो।
यही वजह है कि उच्चतम न्यायालय ने एम वी जनार्दन रेड्डी बनाम विजया बैंक मामले में नीलामी को रद्द कर दिया था। बैंक ने दिवालियेपन के कगार पर पहुंच चुकी क्रान ऑर्गेनिक्स केमिकल्स लिमिटेड के खिलाफ एक याचिका दायर की थी।
आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के कंपनी न्यायाधीश ने संपत्ति की बिक्री के आदेश जारी की दिये थे। इसी बीच, मामले को कर्ज डेब्ट रिकवरी टिब्यूनल के पास भेजा गया और रिकवरी ऑफिसर ने नीलामी पर अपनी मुहर लगा दी।
कंपनी न्यायाधीश ने इस नीलामी को यह कहते हुए स्थगित कर दिया कि इसके लिए पहले उसके आदेश नहीं लिए गए थे। उन्होंने ऑफिशीयल लिक्विडेटर को संपत्ति बेचने का आदेश जारी किया। रेड्डी ने इस बारे में उच्चतम न्यायालय में अपील की। हालांकि, उच्चतम न्यायालय ने उसकी अपील को ठुकरा दिया पर इस करार के तहत उसे जितनी रकम का नुकसान हुआ था, उसमें से कुछ की वापसी का आदेश दिया गया।
इस फैसले में कहा गया, ‘अगर रिकवरी ऑफिसर ने बिक्री सुनिश्चित नहीं की होती तो, बिक्री के लिए उठाए गए सभी कदम जैसे सेल्स प्रमाणपत्र जारी करना, दस्तावेजों का पंजीकरण आदि का कोई औचित्य नहीं रह जाता। चूंकि कंपनी दिवालिया हो चुकी थी और ऑफिशीयल लिक्वीडेटर को कंपनी की संपत्ति की बिक्री का अधिकार सौंपा गया था, ऐसे में नीलामी की प्रक्रिया में उसका शामिल होना भी जरूरी था, जो नहीं किया गया।’
बीमा प्रीमियम का मसला
उच्चतम न्यायालय ने यह फैसला सुनाया है कि बीमा कंपनी किसी क्लेम के एवज में भुगतान तभी कर सकती है जब पॉलिसी प्रीमियम के तौर पर दिए गए चेक कसे भुनाया जा चुका हो। नेशनल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के एक मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय के फैसले के खिलाफ आदेश जारी करते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा, ‘बीमा करार किसी भी अन्य करार की तरह ही बीमा कराने वाली कंपनी और बीमा धारक के बीच का मसला होता है।
ऐसे में किसी भी अन्य करार की तरह ही करार को पूरा तब ही माना जा सकता है जब प्रीमियम की रकम अदा की जा चुकी हो।’ वहीं इस मामले में पहले उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया था कि जिस तारीख को बीमा धारक ने प्रीमियम का चेक जारी कर दिया उसी तारीख से बीमा कराने वाली कंपनी की जिम्मेवारी शुरू हो जाती है।
इंश्योरेंस एक्ट की धारा 64वीबी को दरकिनार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने बीमा करार को तभी पूरा समझा जा सकता है जब बीमा धारक की प्रीमियम की राशि बीमाकर्ता के पास पहुंच चुकी हो।
अदालती हस्तक्षेप हो या नहीं
उच्चतम न्यायालय के अनुसार किसी फैसले के निपटारे के लिए गठित समिति अगर कोई गलत फैसला लेती है, या फिर फैसले के दौरान तथ्यों की जांच परख ठीक ढंग से नहीं की गई होती है तो अदालत को इसमें हस्तक्षेप नहीं करना चाहिए। हालांकि, उसने यह साफ किया कि अगर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है तो अदालत मामले को सही रास्ते पर लाने के लिए आवश्यक कदम जरूर उठा सकता है।
सतना स्टोन ऐंड माइन्स लिमिटेड बनाम यूनियन ऑफ इंडिया के एक मामले में कंपनी को अपने उत्पाद की ढुलाई रेल की पटरी के जरिए करने की अनुमति दी गई थी। बाद में रेलवे ने अचानक मेंटेनेंस चार्ज में तीव्र बढ़ोतरी कर दी, जिस पर कंपनी ने विरोध जताया। जांच समिति ने कंपनी के दावे को स्वीकार कर लिया।
रेलवे ने इस फैसले के खिलाफ उच्च न्यायलय में अपील की। न्यायालय ने फैसले को स्थगित कर दिया। यह देखते हुए कंपनी ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। वहां भी कंपनी की दलील को खारिज कर दिया गया।
रेमंड को राहत
उच्चतम न्यायायल ने रेमंड लिमिटेड को निषेधात्मक कारोबार और टाई-अप सेल्स में संलंग्न होने के आरोप से बरी कर दिया। एक रिटेल डीलर की याचिका पर इस टेक्सटाइल कंपनी के खिलाफ मोनोपोलीज ऐंड रेस्ट्रीक्टिव प्रैक्टिस कमीशन ने ‘सीज ऐंड डेसिस्ट’ आदेश जारी किया था। इसके अनुसार, कंपनी को फास्ट सेलिंग रेडीमेड कपड़े की आपूर्ति तभी की जाएगी जब कंपनी स्लो मूविंग उत्पादों के लिये भी आर्डर देती है।
अदालत ने स्पष्ट करते हुए कहा कि सीज ऐंड डेसिस्ट आदेश तभी जारी किया जा सकता है जब कंपनी का काम सार्वजनिक हितों के तहत न्यायिक दायरे में आता हो। साथ ही कंपनी की गतिविधि किसी उत्पाद को लेकर प्रतियोगिता को प्रभावित करती हो। फैसले में कहा गया कि रेमंड के मामले में ऐसा कोई मुद्दा नहीं था।