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एफडीआई की पेचीदगियां कैसे हो कम

Last Updated- December 07, 2022 | 5:44 AM IST

अच्छे कानून की सबसे बड़ी विशेषता होती है कि उसमें अनुमान लगाने की क्षमता हो।


कानून इस बात को अच्छे तरीके से देखता है कि कारण और प्रभाव के बीच का संबंध कैसा है, कानून को लेकर लोगों की क्या प्रतिक्रियाएं है और उसकी कानूनी उपयोगिता कितनी है। कानून के रखवाले अपने विचारों को पारदर्शी तरीके से रखने की कोशिश करते हैं और अपने विचारों को प्रस्तुत करने का कारण बताते हैं।

वे समाज को इस बात के लिए आश्वस्त भी करते हैं कि आने वाले समय में कानून की उपादेयता बनी रहे। किसी भी कानून की उपादेयता तब तक बनाए रखने की कोशिश की जाती है जब तक कि इसमें किसी प्रकार का संशोधन न हो। वैसे प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफडीआई) पर निगरानी रखने वाली सरकार की प्रशासकीय नीति नियंता कानून के इन मानदंडों पर खरे नहीं उतरते हैं।

भारत में एफडीआई को प्रेस नोट के जरिये निर्देशित किया जाता है। इसी प्रेस नोट के जरिये केंद्र और राज्य सरकार की एफडीआई नीतियों की घोषणा की जाती है। एफडीआई के तहत विदेशी विनिमय प्रबंधन कानून (फेमा) ही सारे नियमों के लिए दिशा निर्देश जारी करती है। प्रेस नोट के जरिये फेमा एफडीआई को लेकर नीतियों का निर्धारण करती है। वैसे प्राय: प्रेस नोट और फेमा रेग्युलेशन निरंतर नहीं रह पाता है।

वर्ष 1991 के बाद जब से भारत में एफडीआई की शुरुआत मानी जाती है, उसके बाद से इसे समय के दो मानकों में विभाजित किया जाता है। पहला, 1991 से 1999 तक, जब एफडीआई को लेकर विशेष प्रकार के उपबंध मौजूद हुआ करते थे। वैसे इस दौरान, जिस एफडीआई की हम आज बात कर रहे हैं, उस लिहाज से यह प्रतिबंधित ही था।

इस दौरान जहां एफडीआई को अनुमति भी मिली हुई थी, वहां ज्यादातर मामले में सरकार से अनुमति लेनी पड़ती थी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि नई दिल्ली की मुहर लगना काफी जरुरी हो जाता था। उस समय भारत में हो रहा वार्षिक एफडीआई चीन के मासिक एफडीआई से भी तुलना नहीं कर पाता था। क्रमश: इसमें सुधार होता गया। इसके बाद तो अपने आप स्वीकृति की बात आने लगी। जबकि 1999 में एक मौलिक शिफ्ट बना।

एक खास क्षेत्र में एफडीआई या तो प्रतिबंधित था या इसके लिए दिशा निर्देश प्रस्तावित थे। कुछ क्षेत्र ऐसे भी थे जहां बिना एफडीआई बिना किसी रोक टोक के चल रहा था। वैसे जब से देश में फेमा लागू हुआ तो इस तरह की बात कही जाने लगी कि भारत के किसी भी भाग में किसी प्रकार की गतिविधियों के लिए एफडीआई को अनुमति मिल गई है।

अगर भारत में एफडीआई को किसी प्रकार से ग्रहण नहीं किया जाएगा तो पूरी दुनिया की नजर इस पर होगी और भारत को यह कहा जाएगा कि वे एफडीआई को निर्बाध तरीके से संचालित होने दे। इस तरह के दिशा निर्देश देने के बाद भारत में एफडीआई में बढोतरी हुई।

जबकि पहले के समय में जो एफडीआई के लिए प्रेस नोट जारी किए जाते थे, उसमें भी उसे संचालित करने की ही बात की जाती थी। वैसे इस प्रेस नोट के कुछ प्रावधान थोड़े ढीले ढाले होते थे। इसमें जो घोषणाएं लिखी जाती थी उसकी भाषा और व्याकरण इतना अस्पष्ट और कठिन हुआ करता था कि समस्याएं सुलझने की बजाय और उलझ जाया करती थीं।

इसका एक उदाहरण सरकार की हाल की घोषणाओं में देखा जा सकता है कि सरकार ने निर्माता कंपनियों से पूछा है कि वे इस बात के लिए आश्वस्त करें कि कैसे वह एक होल्डिंग कंपनी है। इन कंपनियों से पूछा गया है कि बिना सरकार की विशेष अनुमति के वे अपने को होल्डिंग कंपनी कैसे कहती हैं और अपनी पूंजी को बढ़ाने के लिए कैसे वह एफडीआई को आकर्षित कर रही है।

भारतीय कंपनी कानून के मुताबिक एक होल्डिंग कंपनी वह कंपनी है जो अपने दूसरे कंपनी के आधे से ज्यादा पूंजी का अधिकार रखता हो या सहायक कंपनी के निदेशकों का नियंत्रण अपने हाथ में रखता हो। एक भारतीय कंपनी बिना किसी निर्माण कार्य और सेवा देने के भी होल्डिंग कंपनी का दर्जा पा सकती है, जैसे, टाटा ग्रुप की कंपनी टाटा इंडस्ट्रीज या यह निर्माण कंपनी भी हो सकती है या ऑपरेटिंग कंपनी भी या कुछ सहायक कंपनियों की होल्डिंग कंपनी भी हो सकती है, जैसे आईआईसीआई, टाटा स्टील, इन्फोसिस।

अगर हम एफडीआई के प्रतिबंधों या दिशा निर्देशों को देखें तो ऐसी होल्डिंग कं पनियां जिसके इन्फ्रास्ट्रक्चर उसकी सहायक कंपनियों द्वारा प्रबंधित की जाती है, पर लागू होती है। 1997 के एक प्रेस नोट को देखें तो विदेशी कंपनी अधिकृत एक भारतीय कंपनी पूरी तरह से एक होल्डिंग कंपनी थी। वर्ष 1999 के एक प्रेस नोट में भी यह जुमला काफी प्रचलित हुआ करता था, विदेशी अधिकृत भारतीय होल्डिंग कंपनी। इसके दस साल के बाद भी इस मुहावरे का अर्थ स्पष्ट नहीं हो पाया है।

होल्डिंग कंपनी में एफडीआई को लेकर किसी प्रकार का विशेष उपबंध नहीं है। हालांकि ऐसी कंपनियां जिसके लिए विदेशी अधिकृत भारतीय कंपनियां इस्तेमाल किया जाता है, में भी कमोबेश एफडीआई हो सकता है और इसकी सीमा 50 प्रतिशत तक हो सकती है। वैसे इस संदर्भ में अभी तक उपबंधों की व्याख्या अधूरी है। कारण बताओ नोटिस , जो निर्माता कंपनियों के लिए जारी किए जाते हैं, होल्डिंग कंपनियों के लिए भी लागू होता है।

इस संबंध में सरकारी कानून कहता है कि ऐसी भारतीय कंपनी जिसकी कई सहायक कंपनियां हैं, तो उसे किसी प्रकार के एफडीआई को आमंत्रित करने से पहले सरकार से अनुमति लेनी चाहिए। इस संदर्भ में कंपनी की गतिविधियों से कोई मतलब नहीं रह जाता। इस सिद्धांत का अगर तार्किक विस्तार किया जाए तो और मुश्किल तथ्य सामने आते हैं।

मिसाल के तौर पर, यदि टाटा स्टील या इन्फोसिस अपने स्टॉक जारी करने के लिए विदेशी निवेशकों को आमंत्रित करते हैं तो उसे नई दिल्ली यानी केंद्र सरकार से अनुमति लेनी होगी। हो सकता है कि ये कंपनियां स्टील और सूचना तकनीक के क्षेत्र में एक बहुत बड़ी कंपनी क्यों न हो , जहां कि 100 प्रतिशत एफडीआई आमंत्रित किए जा सकते हैं। 

यह निर्णय केंद्र सरकार करेगी कि ये कंपनियां अपने एक शेयर के लिए भी विदेशी निवेशकों को आमंत्रित करे या न करे।  दूसरा पहलू देखें तो हिंदुस्तान यूनीलीवर, जिसमें 51 प्रतिशत शेयर विदेशी कंपनियों की है और यह कंपनी बहुत ही पुरानी कंपनी है, को हर बार अपनी सहायक कंपनियों के शेयर में विदेशी निवेशों को आकर्षित करने के लिए केंद्र सरकार से अनुमति लेनी होगी।

First Published - June 16, 2008 | 1:43 AM IST

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