राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त उपहारों की घोषणा का नियमन करने के तरीके पर उच्चतम न्यायालय में जारी विचार-मंथन में मंगलवार को एक नया सवाल उठाया गया कि क्या मुफ्त उपहारों के लिए कोई कानूनी परिभाषा दी जा सकती है।
देश के मुख्य न्यायाधीश एन वी रमण ने कहा कि इस मुद्दे पर बहस करते समय संतुलन बनाना बेहद महत्त्वपूर्ण है। पीठ ने कहा, ‘मान लीजिए कि कल कोई राज्य कहे कि वह मुफ्त उपहार दे रहा है या कोई योजना शुरू कर रहा है, तो क्या हम कहते हैं कि यह राज्य सरकार का विशेषाधिकार है और इसे उसी हाल में छोड़ दिया जाए? इसमें एक संतुलन तो होना ही चाहिए।’वरिष्ठ अधिवक्ता और नेता कपिल सिब्बल ने कहा कि जब किसी राज्य का घाटा 3 प्रतिशत से अधिक बढ़ जाता है तब इसका नियमन किया जा सकता है। उन्होंने कहा, ‘अगर राज्य अपने बजट आवंटन के स्तर से अधिक बढ़ते हैं तब अगला आवंटन कम किया जा सकता है।’
सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने कहा कि जब किसी राज्य का मुख्यमंत्री मुफ्त उपहार दे तब लोग केवल दर्शक की भूमिका में नहीं बने रह सकते हैं। उन्होंने कहा कि झूठे वादे अर्थव्यवस्था की स्थिति को खराब कर रहे हैं।’याची अश्विनी उपाध्याय की ओर से वरिष्ठ वकील विकास सिंह ने कहा कि असली समस्या कानूनी परिभाषा से जुड़ी है। उन्होंने कहा कि चुनाव से पहले जब राजनीतिक दल अपना घोषणापत्र जारी करते हैं तब मुफ्त उपहारों को नियंत्रित किया जा सकता है। यह एक तरह से असमानता वाली स्थिति बनाता है। उन्होंने कहा, ‘मतदाताओं को यह जानने का अधिकार है कि उनके कर का पैसा कहां जा रहा है और इसका इस्तेमाल किस उद्देश्य के लिए किया जा रहा है। मुफ्त उपहारों के लिए भुगतान करने की आपकी क्या योजना है और इसका जिक्र घोषणापत्र में किया जाना चाहिए।’
उच्चतम न्यायालय ने तमिलनाडु के वित्त मंत्री पलनिवेल त्यागराजन की टिप्पणियों पर भी नाराजगी जताई। मुख्य न्यायाधीश रमण ने द्रविड़ मुन्नेत्र कषघम (द्रमुक) सांसद और वरिष्ठ अधिवक्ता पी विल्सन से कहा, ‘मैं कई बातें कहना चाहता हूं, लेकिन मैं मुख्य न्यायाधीश होने के नाते आपकी पार्टी या मंत्री के बारे में बात नहीं करना चाहता।’
इससे पहले द्रमुक मंत्री ने एक टेलीविजन चर्चा में केंद्र सरकार से पूछा था कि राज्य सरकारों को मुफ्त उपहारों के संबंध में अपनी नीति में किस आधार पर बदलाव करना चाहिए। पीठ ने कहा, ‘क्या आपके पास संवैधानिक आधार है? क्या आप एक वित्तीय विशेषज्ञ हैं? नहीं। क्या आपको नोबेल पुरस्कार मिला है? नहीं। क्या आपने हमसे बेहतर प्रदर्शन किया है? नहीं। मुझे आपके लिए अपनी नीति किस आधार पर बदलनी चाहिए, क्या यह संविधान से इतर फरमान स्वर्ग से आ रहा है?
अदालत की चर्चा को आगे बढ़ाते हुए, याची की ओर से वरिष्ठ वकील गोपाल शंकरनारायणन ने मुफ्त उपहार वाल योजनाओं की परिभाषा अदालत के सामने रखी। इसके मुताबिक ‘मुफ्त उपहार एक संवैधानिक दायित्व नहीं है। मुफ्त उपहार वाली योजनाएं पूरे आबादी नहीं बल्कि कुछ वर्ग के लिए होती है। इसका सार्वजनिक उद्देश्य से कोई सीधा संबंध नहीं है। इस तरह की घोषणाएं किसी संकट या आपातकाल के लिए नहीं होती हैं।’हालांकि, अदालत ने कहा कि इसकी अवधारणा को इतनी अस्थिरता के साथ नहीं पेश किया जाना चाहिए। अदालत ने सवाल किया, ‘ग्रामीण इलाकों में मुफ्त मकान और साइकिल ने कई लोगों के जीवन को बदल दिया है। इससे वहां के लोगों को काफी फर्क पड़ता है। तो क्या यह एक मुफ्त उपहारों की श्रेणी में आएगा या यह लोगों की तरक्की के लिए दिया गया है?’आम आदमी पार्टी (आप) की ओर से पेश हुए वरिष्ठ अधिवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी ने कहा कि अदालत चुनाव से पहले किए गए वादों पर रोक नहीं लगा सकती है क्योंकि इससे बोलने और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रभावित होगी। उन्होंने कहा, ‘चुनाव पूर्व के चरण में राजनीतिक दलों को कुछ कहने से रोकना सही नहीं है। कानूनी मायने में संसद कानून बना सकती है।’
अदालत को यह भी सुझाव दिया गया कि वह राजनीतिक दलों के लिए दिशानिर्देश दे सकती है। इसका विरोध करते हुए सिंघवी ने कहा कि अगर अदालत ऐसा करती है तो राजनीतिक दलों के लिए अदालत जाने का कोई मतलब नहीं रह जाएगा। उन्होंने कहा, ‘अगर संसद कानून बनाती है तो मैं अदालत का दरवाजा खटखटा सकता हूं लेकिन अगर शीर्ष अदालत दिशानिर्देश देती है तब मैं कहां जा सकता हूं?’