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निजी स्कूलों के अस्तित्व का संकट

Last Updated- December 15, 2022 | 5:08 AM IST

के तुलसी विष्णु प्रसाद आजकल बेहद चिंतित रहते हैं। उन्होंने अपने पिता की तरह ही श्री राम ग्रामीण स्कूल में निवेश किया है जिसके वह अध्यक्ष हैं। इस स्कूल की स्थापना आंध्र प्रदेश के गुंटूर जिले के एक ग्रामीण कस्बे चिलुमरू में साल 1949 में उनके दादा जी ने की थी जब यह राज्य नहीं बना था।
शुरुआती दिनों में भी सैकड़ों मील दूर रहने वाले परिवार भी अपने बच्चों को यहां भेजा करते थे। यहां छात्र पढ़ाई करने के लिए 4 किलोमीटर दूर कोल्लूर से नाव से भी आया करते थे। आज, कोरोनावायरस महामारी की वजह से स्कूल में रहने वाले 900 छात्र और रोजाना पढऩे आने वाले छात्र अब दूर हैं। इसकी वजह से अब प्रसाद आगे का रास्ता खोजने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
प्रसाद कहते हैं, ‘अकादमिक कैलेंडर का तीन महीने से अधिक वक्त गुजर गया है लेकिन स्कूल वायरस संक्रमण की वजह से नहीं खोला गया है। शिक्षक अपने वेतन का इंतजार कर रहे हैं। मैं उनसे आंख कैसे मिलाऊं?’ हालांकि प्रसाद का यह स्कूल गैर सहायता प्राप्त बजट निजी स्कूल है। यह स्कूल भले ही इस क्षेत्र का मशहूर और पुराना स्कूल है लेकिन बाकी स्कूलों की तरह ही छात्रों की फीस ही कमाई का प्राथमिक स्रोत है। फीस का इस्तेमाल कर्मचारियों को उनके वेतन का भुगतान करने और बाकी जरूरतों के साथ स्कूल के रखरखाव की लागत को पूरा करने के लिए भी किया जाता है। स्कूल के कुछ स्टाफ 1970 के दशक से ही स्कूल से जुड़े हुए हैं। प्रसाद का कहना है, ‘हम स्कूल के परिसर में एक बड़े परिवार की तरह ही रहते हैं। हम किसी बड़े कॉरपोरेट स्कूल की तरह नहीं हैं। हमारी फीस कम है और हमारे संसाधन सीमित हैं।’
प्रसाद नैशनल इंडिपेंडेंट स्कूल्स अलायंस के उपाध्यक्ष (गुणवत्ता) है जो मंच 36,400 बजट स्कूलों का प्रतिनिधित्व करता है और इन स्कूलों से कुल 93 लाख छात्र जुड़े हैं। इनमें से कई स्कूलों को अब अनिश्चितता का सामना करना पड़ रहा है और इसलिए छात्रों में भी अनिश्चितता की स्थिति बन गई है।
शिक्षा के क्षेत्र में महामारी ने किफायती प्राइवेट स्कूलों को सबसे ज्यादा प्रभावित किया है। जो लोग अपने बच्चों को इन स्कूलों में भेजते थे उनकी आजीविका पर असर पड़ा है जिसकी वजह से इन स्कूलों पर भी असर पड़ रहा है। आमदनी कम होने के साथ ही कई लोगों को अपनी नौकरियां गंवानी पड़ी है जिसकी वजह से वे समय पर स्कूल की फीस का भुगतान नहीं कर पा रहे हैं। शिक्षा क्षेत्र में काम करने वाले कैजइन्वेस्ट की हाल में जारी ‘दि इंडियन एडुफाइनैंस सक्सेस स्टोरी: लेसंस फॉर अदर इमर्जिंग नेशंस’ शीर्षक रिपोर्ट के मुताबिक, कम फीस लेने वाले या बजट स्कूलों में से बेहद कम स्कूल ही होंगे जो इस घाटे को सह पाएंगे और इनमें से ज्यादातर अपने शिक्षकों को फीस देने में सक्षम नहीं होंगे। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘भारतीय रिजर्व बैंक के राहत पैकेज के तौर पर करीब 75-80 प्रतिशत बजट स्कूलों को कर्ज चुकाने की अवधि का फायदा मिला है। रिपोर्ट में कहा गया है कि उपयुक्त ऋण सुविधाओं के जरिये इन बजट स्कूलों की मदद करना पहले से ज्यादा मुश्किल हो गया है।’
किफायती या कम लागत वाले स्कूल आमतौर पर 100 रुपये से 1,000 रुपये महीने बतौर फीस लेते हैं। भारत जैसे देश में ये स्कूल उन छात्रों की शिक्षा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं जो स्कूल से वंचित रह जाते हैं। इन स्कूलों को सरकारी स्कूलों से ऊपर के पायदान पर रखा जाता है क्योंकि ऐसा माना जाता है कि ये सरकारी स्कूलों की तुलना में बेहतर गुणवत्ता (अंग्रेजी माध्यम) वाली शिक्षा देते हैं। दिल्ली में शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले एक गैर-लाभकारी थिंक टैंक, सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी (सीसीएस) के सीईओ के यतीश राजावत कहते हैं, ‘अक्सर सरकारी स्कूल ठीक तरीके से संचालित नहीं हो पाते हैं और राज्य भी शिक्षकों की अनुपस्थिति और अच्छे शिक्षकों की नियुक्ति जैसे बेहद बुनियादी मुद्दों को हल करने में नाकाम हो जाते हैं, ऐसे में कम आमदनी वाले अभिभावक अपने बच्चों को सरकारी स्कूलों के बजाय किफायती प्राइवेट स्कूलों में ही पढ़ाने को तरजीह देते हैं।’
सीसीएस के निदेशक (प्रोग्राम) रोहन जोशी कहते हैं कि किसी भी आपदा के वक्त बच्चों की शिक्षा सबसे ज्यादा प्रभावित होती है। हालांकि इस वक्त ऑनलाइन क्लास लेने का चलन है लेकिन जो बच्चे कम फीस वाले स्कूलों में जाते हैं उनके पास स्मार्टफोन, टैब, कंप्यूटर या लैपटॉप की सुविधा नहीं होती है। जोशी कहते हैं कि सरकारी मदद के जरिये या फिर कंपनियां कॉरपोरेट सामाजिक उत्तरदायित्व के तहत पैसे खर्च कर इस तबके की मदद कर सकती हैं।
कुछ जगहों पर स्थानीय प्रशासन ने आदेश दिया है कि स्कूल फीस नहीं ले सकते हैं और इससे स्कूल और अभिभावकों के बीच गतिरोध की स्थिति बन रही है। जोशी कहते हैं, ‘यह समझा जा सकता है कि मौजूदा स्थिति में किसी भी अभिभावक के लिए पूरी फीस देना आसान नहीं होगा लेकिन बीच का कोई रास्ता निकाला जा सकता है। मसलन स्कूलों को सिर्फ ट्यूशन फीस लेने की इजाजत दी जा सकती है और वे दो-तिहाई शिक्षकों को रखकर ऑनलाइन पढ़ाई जारी रख सकते हैं।’

First Published - July 8, 2020 | 11:46 PM IST

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