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  ताजा खबरें  दिल्ली सरकार-फेसबुक विवाद से जवाबदेही के मुद्दे पर सवाल
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दिल्ली सरकार-फेसबुक विवाद से जवाबदेही के मुद्दे पर सवाल

बीएस संवाददाता बीएस संवाददाता —October 6, 2020 11:00 PM IST0
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दिल्ली विधानसभा और सोशल मीडिया कंपनी फेसबुक के बीच हाल ही में हुई तकरार ने एक अहम सवाल खड़ा कर दिया है क्या सोशल मीडिया क्षेत्र की दिग्गज कंपनी राज्यों या सरकार के प्रति जवाबदेह है? फेसबुक के मुताबिक इसका जवाब नहीं है। यह तकरार उन आरोपों की जांच के साथ शुरू हुई थी कि फेसबुक और इसकी सहयोगी कंपनी व्हाट्सऐप का इस्तेमाल इस साल जनवरी में हुए दिल्ली दंगों के दौरान सांप्रदायिक पोस्ट का प्रसार करने के लिए किया गया था जिसमें 50 से अधिक लोगों की मौत हो गई थी। दिल्ली विधानसभा की शांति एवं सद्भाव समिति ने फेसबुक के उपाध्यक्ष अजित मोहन को इस बात की जांच के लिए बुलाया कि क्या कंपनी ने भड़काऊ पोस्ट को रोकने के लिए जरूरी कार्रवाई या उचित सावधानी बरती। कंपनी ने इस पेशी से इनकार कर दिया और इसके बजाय अदालत का दरवाजा खटखटाया।
फेसबुक ने अपनी याचिका में दलील दी है कि दिल्ली विधानसभा के पास इस तरह का समन जारी करने और किसी गैर-सदस्य को उसके सामने पेश होने के लिए मजबूर करने का अधिकार नहीं है क्योंकि ‘पुलिस’ और ‘पब्लिक ऑर्डर’ इसके दायरे में नहीं आते हैं। इसमें कहा गया है कि दिल्ली विधानसभा इसके प्रतिनिधियों को बोलने के लिए मजबूर नहीं कर सकती है क्योंकि कानून उन्हें चुप रहने का अधिकार देता है। इसमें यह भी तर्क दिया गया है कि कोई भी राज्य किसी गवाह को ‘संचार’ के मुद्दे पर गवाही देने के लिए मजबूर नहीं कर सकता है क्योंकि यह संविधान के अनुसार केंद्र के विशेष दायरे में आता है।
भारत के शीर्ष अदालत के समक्ष इन दलीलों के कारण कंपनी को अंतरिम राहत मिली और शीर्ष अदालत ने दिल्ली विधानसभा को अगली सुनवाई तक कोई ‘बलपूर्वक कार्रवाई’ न करने का निर्देश दिया। बहस इस पर है कि बिचौलिये क्या अपने मुताबिक उन बातों का चुनाव भी कर सकते हैं जिसके लिए वे जवाबदेह हैं। यह चिंता हाल ही में आई ‘वॉलस्ट्रीट जर्नल’ की एक रिपोर्ट से बढ़ी है जिसमें कंपनी के कुछ शीर्ष अधिकारियों पर भारत में कुछ राजनीतिक दलों का पक्ष लेने का आरोप लगाया गया है।
दिल्ली विधानसभा ने इन तर्कों का विरोध किया है। राज्यसभा सदस्य और दिल्ली विधानसभा के वकील अभिषेक सिंघवी ने कहा, ‘मामला न्यायालय में विचाराधीन है इसलिए मैं केवल अपने विवादों के बारे में बताऊंगा। पहला मुद्दा यह है कि क्या विधानसभा की कार्यवाही में कारण बताओ के स्तर पर हस्तक्षेप किया जा सकता है। दूसरा यह है कि सोशल मीडिया को मजबूत करने के तरीकों पर विचार करने वाली समितियों द्वारा जांच का विषय पूरी तरह से विधानसभा के अधिकार क्षेत्र में है और अदालतों द्वारा इसमें हस्तक्षेप नहीं किया जा सकता है। तीसरा, यह विधानसभा का एक रुख है कि कोई बलपूर्वक कदम नहीं उठाया गया है और इसलिए कोई भी निजी कंपनी उपस्थिति से मना नहीं कर सकती और खुद को समन से ऊपर नहीं मान सकती है।’
विशेषज्ञों का कहना है कि सूचना प्रौद्योगिकी कानून में प्रस्तावित दिशानिर्देशों और प्रावधानों के बाद भी मध्यस्थ की जवाबदेही तय करने का कानून पूरी तरह स्पष्ट नहीं है। साइबर कानून विशेषज्ञ पवन दुग्गल कहते हैं, ‘जब मध्यस्थ कानूनों की बात आती है तो भारत ने इसको लेकर अपनी पूरी तैयारी नहीं रखी है। अब सर्वोच्च न्यायालय के लिए इसे और स्पष्ट करने का मौका है। सूचना प्रौद्योगिकी कानून की धारा 79 के तहत फेसबुक को सावधानी बरतना अनिवार्य है। एक बार जब आपका कोई कर्तव्य बनता है तब आपके मौन रहने का कोई अधिकार नहीं है। आपको इसके अनुपालन को दिखाने की जरूरत होगी।’
वकीलों का तर्क है कि ‘संचार’ संघ की सूची के तहत आता है जिसकी वजह से एक मध्यस्थ केवल संघ के प्रति जवाबदेह है किसी और के प्रति नहीं, ऐसे में यह अतर्कसंगत साबित हो सकता है। टेकलेजीस एडवोकेट्स के मैनेजिंग पार्टनर सलमान वारिस का कहना है, ‘दिल्ली एक अनोखी स्थिति में है जहां कानून व्यवस्था राज्य के दायरे में नहीं आती है। इसका कोई अलग कानून नहीं है जिसकी वजह से इसे पेश होने के लिए बाध्य होना होगा। हालांकि, फेसबुक को इस मामले को दरकिनार नहीं करना चाहिए था। यह दूसरे राज्यों के लिए एक खराब मिसाल कायम कर सकता है।’ इस मामले पर टिप्पणी करने के अनुरोध पर फेसबुक की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है। कुछ नीतिगत पेशेवरों का मानना है कि आईटी पर संसदीय समिति और राज्यों की विशेष समितियों को भी ऐसे मामलों की जांच करने में सक्षम होना चाहिए।
बेंगलूरु स्थित सेंटर फॉर इंटरनेट ऐंड सोसाइटी के रिसर्च मैनेजर गुरशाबाद ग्रोवर का कहना है कि भले ही केंद्र और राज्यों के लिए विषयों पर कानून बनाने की क्षमता परिभाषित की गई हो लेकिन किसी भी स्तर पर नीति पर चर्चा करने से रोक नहीं लगनी चाहिए। वह कहते हैं कि व्यापक कानूनी सिफरिशों पर पहुंचने में समितियों को कोई परेशानी नहीं होनी चाहिए। इन तर्कों के भी कई आलोचक हैं। कई लोगों का तर्क है कि दिल्ली विधानसभा द्वारा जारी किए गए समन का अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर असर पड़ सकता है।

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