देश भर के व्यापारी होली और दीवाली का खास तौर से इंतजार करते हैं। आखिर इंतजार क्यों न हो। त्यौहारों की खुमारी बाजार के भी सिर चढ़ कर बोलती है।
लेकिन छत्तीसगढ़ के कोरबा जिले में खारहारी गांव के व्यापारियों के लिए होली आए या जाएं, क्या फर्क पड़ता है। यहां कि फिजाओं में रंग और गुलाल की फागुनी महक नहीं तैयारी है। खारहारी में पूरे 150 सालों से होली खेली ही नहीं गई है।
गांव के एक बुर्जुग बोधराम ने बताया कि आप इसे आस्था, विश्वास या फिर कुछ भी कह लें। इस गांव के लोगों ने कभी भी होली नहीं खेली है। उनकी जानकारी में पिछले 150 वर्षो के दौरान गांव में कभी भी होली नहीं खेली गई है। उन्होंने बताया कि हालांकि इस बात को ठीक आंकड़ा नहीं मौजूद है कि गांव में अंतिम बार होली कब खेली गई थी।
बोधराम की उम्र इस समय 82 वर्ष है। उन्होंने अपने दादा से होली न खेलनी कहानी सुनी थी। दंत कथाओं के मुताबिक वर्षो पहले गांव में होली के दौरान कई तरह की दुर्घटनाएं होती थीं। एक बार होलिका दहन के दौरान लगाई गई आग पूरे गांव में फैल गई और कई घर जल गए। कुछ लोग भी मारे गए। इसके अगले साल होली के दौरान फैली महामारी ने गांव को अपनी चपेट में ले लिया। मिथकीय दानव ने इस बार भी सैकड़ों लोगों की बलि ले ली। लेकिन अभी और भी मौतें बाकी थी।
बोधराम ने आगे बताया कि तीसरे साल गांव में दो गुटों के बीच हिंसक झड़प हो गई और करीब एक दर्जन लोग मारे गए। इस बाद कई दुर्घटनाएं और घटी जिसके बाद गांव के लोग इस निष्कर्ष पर पहुंचे की उनकी पूज्य माधवादेवी उनसे नाराज हो गई हैं। गांव वालों ने देवी के मंदिर में एक पूजा का आयोजन किया और यहां होली न खेलने का फैसला किया गया। बुधराम ने बताया कि इसके अगले साल न तो होली खेली गई और न ही गांव में कोई अप्रिय घटना घटी। इसके बाद पिछले 150 वर्षो से यह परंपरा चली आ रही है।
ऐसा नहीं है कि यह परंपरा सिर्फ यहां के स्थानीय लोगों में ही प्रचलित है। बाहर से आकर यहां बसने वाले लोग भी होली नहीं खेलते हैं। खारहारी में ब्याही गई सावित्री देवी ने बताया कि गांव के लड़के की शादी तय करने के दौरान यह शर्त रखी जाती है कि बाहर से आने वाली लड़की इस परंपरा का पालन करेगी। उन्होंने मेरे पिता से भी पूछा था कि क्या मैं इस परंपरा को निभा सकती हूं, अन्यथा वे कोई और लड़की खोज लेते। दूसरे राज्यों ने आने वाले मजदूर भी इस परंपरा को पूरी तरह से निभाते हैं।
इस गांव की आबादी करीब 7,000 है और ज्यादातर लोग व्यापार से जुड़े हुए हैं। होली खुशियों का त्यौहार तो है ही, साथ ही यह कमाई का भी अच्छा मौका होता है। लेकिन गांव के कारोबारियों को मुनाफे के मुकाबले सुख शांति ज्यादा पसंद है। किराने की दुकान चलाने वाले मनीराम साहू ने बताया कि, होली न खेलने से गांव के व्यापारियों को 70,000 रुपये से 1 लाख रुपये तक का नुकसान होता है।’ हालांकि उन्हें इस बात की चुभन है कि पड़ोस के गांव में दुकान चलाने वाला उनका भाई हर होली के बाद घर में नए फर्नीचर ले आता है। इस चुभन के बावजूद साहू गांव की परंपरा पर कायम हैं।