यह भारत में तमाम सुविधाओं वाला अपनी तरह का पहला थीम पार्क होता, जो देश का अपना डिज्नीलैंड कहलाता। इसमें लोग हर तरह के झूले, साइंस पार्क, वाटर पार्क, वाटर स्कीइंग आदि का लुत्फ तो उठाते ही, दूर तक फैले हरे-भरे पार्क, शानदार रेस्टोरेंट और लक्जरी होटल भी इसकी शान में चार चांद लगाते।
दिल्ली-हरियाणा सीमा पर इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे के करीब प्रस्तावित यह परियोजना डीएलएफ के मालिक केपी सिंह के दिमाग की उपज थी। हालांकि इस पर हरियाणा सरकार को काम करना था।
नई दिल्ली में इसी गुरुवार की शाम अपने 95वें जन्म दिन पर अपनी पुस्तक व्हाई द हेक नॉट (सह लेखक अपर्णा जैन) के विमोचन कार्यक्रम से इतर बिज़नेस स्टैंडर्ड के साथ बातचीत में केपी सिंह ने कहा, ‘मैंने इस परियोजना को लेकर डिज्नी थीम पार्क के लोगों से बात की थी।’
ओम प्रकाश चौटाला के नेतृत्व वाली तत्कालीन हरियाणा सरकार ने इस दिशा में कदम बढ़ाते हुए विशाल एम्यूजमेंट पार्क के लिए भूमि अधिग्रहण अधिनियम के तहत 28,000 एकड़ जमीन अधिसूचित भी कर दी थी।
यह नब्बे के दशक के शुरुआती दिन थे। डीएलएफ के अध्यक्ष सिंह कहते हैं, ‘यदि यह पार्क बन जाता, तो गुरुग्राम के साथ-साथ पूरे हरियाणा की किस्मत बदल जाती।’ लेकिन ऐसा नहीं हो सका। कृषि भूमि को अधिग्रहीत करने के विरोध में व्यापक स्तर पर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए और किसान सड़कों पर उतर आए। अपना विरोध दर्ज कराने के लिए बहुत से किसान हाथी और ऊंटों पर बैठकर दिल्ली की तरफ बढ़ने लगे और इस तरह प्रस्तावित पार्क परियोजना भारी राजनीतिक विवाद में फंस गई।
बाद में भजनलाल सरकार ने इसे ठंडे बस्ते में डाल दिया। एक शानदार परियोजना के मूर्त रूप नहीं ले सकने के कारण होने वाले पछतावे के सवाल पर सिंह कहते हैं, ‘मेरे पास हरियाणा और अपने देश के लिए कुछ खास करने का अवसर था, लेकिन थीम पार्क को लेकर उठे राजनीतिक बवंडर के कारण डीएलएफ का काम प्रभावित हो सकता था। अब मुझे दोनों में से एक को चुनना था और मैंने डीएलएफ पर हाथ रखा।’
व्यावहारिक जोखिम और कब पीछे हटना है अथवा कब आगे बढ़ना है, यह निर्णय लेने की समझ ऐसी चीजें हैं, जिनके बारे में सिंह ने अपनी किताब ही नहीं, इसके विमोचन के मौके पर राजनयिक एवं पूर्व सांसद पवन के वर्मा के साथ चर्चा के दौरान भी बड़ी गंभीरता से वर्णन किया। यह पुस्तक न तो उनकी जीवनी और न ही आत्मकथा पर आधारित है, जो ‘व्हाटएवर द ओड्स’ शीर्षक से लगभग 13 साल पहले नवंबर 2011 में आई थी।
वह कहते हैं, ‘आत्मकथा में आप अपने जीवन से संबंधित उन चीजों-घटनाओं का वर्णन करते चलते हैं, जो आपको याद रह जाती हैं। इसमें कुछ ऐसा नहीं होता, जिससे किसी निष्कर्ष पर पहुंचा जा सके अथवा कोई सीख मिले। मेरी जिंदगी बड़ी ही अस्त-व्यस्त रही और इसकी कई घटनाएं, जो मेरे कारोबार तक सीमित नहीं थीं, ने मुझे कई बड़े सबक दिए और मार्गदर्शन भी किया, जिन्हें मैं लोगों से साझा करना चाहता था।’
केपी सिंह जिस सबक या सीख के बारे में बात करते हैं, वह शहरी बुनियादी ढांचे से जुड़ी है। सिंह कोई नगर योजनाकार नहीं हैं। वह एक रियल एस्टेट डेवलपर हैं, लेकिन वह टुकड़ों में बसे उस शहर की कहानी के अहम किरदार जरूर हैं, जो बाद में हरियाणा की वित्तीय राजधानी बन कर उभरा।
वह यह कहने में बिल्कुल भी हिचक नहीं दिखाते कि आज जो गुरुग्राम वह देख रहे हैं, यह वह शहर नहीं है, जिसकी उन्होंने परिकल्पना की थी। जैसा शहर वह बसाना चाहते थे, यदि यह उसी हिसाब से विस्तार लेता तो आज कहीं अधिक हरियाली होती। यह आज से अधिक व्यवस्थित होता और इसमें बेहतर नागरिक बुनियादी ढांचा आकार लेता। इसके उलट आज प्राय: गुरुग्राम का उदाहरण देकर कहा जाता है कि किसी शहर को इस तरह नहीं बनाना-बसाना चाहिए।
वह कहते हैं, ‘यह एक विकासशील शहर है।’ लेकिन वह यह भी कहने से गुरेज नहीं करते, ‘यदि यहां डीएलएफ नहीं होती, तो यह शहर एक विशाल पुनर्वास कॉलोनी कर रह जाता।’
दिल्ली, मुंबई और बेंगलूरु जैसे शहर भी बुनियादी ढांचे की समस्याओं से जूझ रहे हैं। सिंह कहते हैं कि इन शहरों की जो दुर्दशा है, वह अदूरदर्शी और अल्पकालिक योजनाओं का परिणाम है। वह ऐसी शहरी योजना की वकालत करते हैं, जिसमें अगले 100 वर्षों को ध्यान में रखकर सुविधाएं विकसित की जाएं।
वह चाहते हैं कि प्रधानमंत्री किसी शहर का खाका खींचने के लिए एक कैबिनेट मंत्री स्तरीय समिति का गठन करें, जिसमें न केवल दूरदर्शिता वाले योजनाकार, बल्कि पर्यावरणविद और निजी क्षेत्र के विशेषज्ञ भी शामिल हों।
इस बीच, सिंह जो कहते हैं कि सेना और अश्व प्रजनन के दिनों के बाद अपने ससुर के रियल एस्टेट कारोबार में वह परिस्थितिवश आ गए, इस बात का भी खुलकर जिक्र करते हैं कि किस प्रकार खुशी-खुशी अपनी जमीनें देने के लिए उन्होंने लोगों का दिल जीता। वह इसे कॉफी डिप्लोमेसी का नाम देते हैं।
इस पुस्तक का कवर लेखक की तस्वीर के साथ चित्रकार परेश मैती ने तैयार किया है। इसमें 20 पृष्ठों का एक पत्र भी है, जो सिंह ने अपनी पत्नी इंदिरा की मौत के बाद अपने परिवार को लिखा था, जिसे उन्होंने ‘मेरे जीवन का प्यार’ कहकर संबोधित किया था। वह कहते हैं, ‘मेरा मानना है कि कोई भी मेरे जीवन में उनके योगदान को नहीं समझ सकता, मेरे बच्चे और उनके बच्चे भी नहीं।’ कहते हैं, ‘इसीलिए मैं इंदिरा की मौत के बाद रात में 9 बजे पत्र लिखने बैठा था और भोर में 4 बजे इसे पूरा कर पाया।’
कई मायनों में यह उस पत्र से संबंधित है, जिसने मेरे जीवन को कुछ दिशा दी और उन्हें कुछ सबक भी दिए, जिनसे वह सबसे अधिक प्रेम करते थे। उसी वजह से यह पुस्तक भी वजूद में आई।