एक समय था, जब मुंबई के लोग सुबह-सुबह खाने-पीने की चिंता किए बगैर दफ्तर और स्कूल के लिए कूच कर देते थे। उन्हें पता था कि दोपहर होते-होते डब्बावाले उनके घर से टिफिन उठाकर दफ्तर पहुंचा देंगे। मांएं भी जानती थीं कि डब्बावाले स्कूल में उनके बच्चों तक टिफिन पहुंचा देंगे। भागते-दौड़ते मुंबई शहर में लोगों को अपनी ही रसोई का जायकेदार और सेहतमंद भोजन इन्हीं डब्बावालों की वजह से मिलता था। मगर करीब 135 साल से यह जिम्मा संभाल रहे डब्बावाले घटते काम और आमदनी से परेशान हैं।
मैनेजमेंट की किताबों और देश-विदेश के शोधों का हिस्सा बन चुके और गिनीज बुक तक में नाम दर्ज करा चुके डब्बावाले आज मुफलिसी की हालत में हैं। 2020 में आई कोरोना महामारी उसकी वजह से लगे लॉकडाउन ने एक तरह से उनकी कमर तोड़ दी। उसके बाद दफ्तरों में कामकाज के बदले माहौल ने उनका धंधा एकदम मंदा कर दिया। कोविड से पहले 5,000 से अधिक डब्बावाले करीब 3 लाख लोगों के टिफिन घर से दफ्तर पहुंचाते थे। मगर इस समय बमुश्किल 2,500 डब्बावाले काम कर रहे हैं।
मुंबई डब्बावाला एसोसिएशन के अध्यक्ष सुभाष तलेकर कहते हैं कि घरों से जाने वाले 50 फीसदी टिफिन स्कूलों में जाते थे। कोविड के बाद स्कूलों ने टिफिन लेना बंद कर दिया है। ज्यादातर स्कूलों में कैंटीन खुल गई हैं या किसी पैंट्रीवाले से टिफिन आने लगा है। स्कूलों में घर के टिफिन बंद होने से कारोबार आधा रह गया।
इसी तरह कोविड के समय ज्यादातर कंपनियों में वर्क फ्रॉम होम का चलन शुरू हो गया, जो कई जगहों पर अब भी चालू है। कई दफ्तर खुलने लगे हैं मगर कर्मचारी हफ्ते में केवल दो दिन आते हैं। इस कारण लोगों की आदतें बदली हैं और घर से टिफिन मंगवाना बहुत कम हो गया है। तलेकर कहते हैं कि इन सभी वजहों से डब्बावालों का कुल कारोबार करीब 60 फीसदी कम हो गया है।
मुंबई के डब्बावाले इतने मशहूर हैं कि 2003 में ब्रिटेन के प्रिंस चार्ल्स और उनके बेचे प्रिंस हैरी ने यहां आकर उनसे मुलाकात की थी। प्रिंस चार्ल्स ने उन्हें अपनी शादी में आने का न्योता भी दिया और 2005 में कैमिला पार्कर के साथ उनकी शादी में मुंबई के दो डब्बावाले लंदन तक गए थे। मगर महामारी की आफत ऐसी थी कि कोई मदद नहीं कर सका। यहां ज्यादातर डब्बावाले पुणे और आसपास के इलाकों से हैं। सारे दफ्तर बंद होने पर जब काम खत्म हो गया और घर चलाना मुश्किल हो गया तो ज्यादातर डब्बावाले अपने गांव लौट गए। उनमें से कई पुणे के एमआईडीसी में मजदूरी और दूसरे धंधे करने लगे। कुछ रिक्शा चलाने लगे और कुछ चौकीदारी करने लगे।
हालांकि अब मुंबई और कारोबारी दुनिया पटरी पर लगभग लौट आई है। डब्बावालों को भी लग रहा है कि उनका काम वापस परवान चढ़ेगा क्योंकि ज्यादा वक्त तक बाहर का खाकर सेहत के सात खिलवाड़ नहीं कर सकते। उन्हें स्कूलों में भी घर का बना खाना वापस शुरू होने की उम्मीद है। लेकिन उन्हें सरकार से भी सहूलियतों की दरकार है।
मुंबई की बढ़ती भीड़ को एक छोर से दूसरे छोर पर पहुंचाने के लिए लोकल ट्रेन काफी नहीं पड़ रही, इसलिए पूरे मुबंई और महानगरीय क्षेत्र में मेट्रो और मोनो रेल का जाल बिछाया जा रहा है। लोकल ट्रेन में लगेज के डिब्बे में डब्बावालों के टिफिन रख जाते हैं। मगर मोनो रेल और मेट्रो ट्रेन में यह व्यवस्था नहीं है। डब्बावाले उनमें भी लगेज का डिब्बा लगवाने की मांग कर रहे हैं।
तलेकर कहते हैं कि जिन दफ्तरों तक लोग मेट्रो और मोनो रेल से जाते हैं, वहां तक डब्बावालों को भी जाने दिया जाए। उनका दावा है कि मुंबई में मेट्रो शुरू होते समय एमएमआरडीए के सामने यह मांग रखी गई थी और उसने डिब्बा मुहैया कराने का भरोसा भी दिलाया था। मगर अभी तक उसका इंतजाम नहीं किया गया है। मकान के लिए भी डब्बावाले इसी तरह मांग कर रहे हैं।
महाराष्ट्र सरकार उनके लिए किफायती घर बनाने का ऐलान कर चुकी है और म्हाडा के जरिये प्रधानमंत्री आवास योजना के अंतर्गत उनके लिए 12,000 मकान बनाने की बात कही गई है। मगर डब्बावाले इससे खुश नहीं हैं क्योंकि ये 25-25 लाख रुपये कीमत वाले ये मकान भिवंडी के आगे बनेंगे, जो मुंबई से 80 किलोमीटर दूर है।
डब्बावालों का कहना है कि 15 से 20 हजार रुपये महीना कमाई में कोई बैंक उन्हें मकान खरीदने के लिए कर्ज नहीं देगा और दे भी दिया तो इतनी दूर से आने-जाने में भारी खर्च करने के बाद वे किस्त कहां से चुकाएंगे। डब्बावालों की मांग है कि मुंबई के गिरणी कामगारों की तरह उन्हें भी 9.5 लाख रुपये में मकान दिए जाने चाहिए।