भारत

जलवायु परिवर्तन का मानव शरीर के साथ-साथ खाने की थाली पर सीधा असर

अधिकतम और न्यूनतम तापमान दोनों ही नए स्तर को छूएंगे। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मानव के अस्तित्व के लिए अनुकूल सीमा को भी पार कर जाएगा।

Published by
संजीब मुखर्जी   
श्रेया जय   
Last Updated- April 21, 2024 | 10:40 PM IST

इस साल मॉनसून के सामान्य रहने की खुशखबरी मिलने के बावजूद, सभी पूर्वानुमानों में एक समान तरह की चेतावनी दी गई है कि इस साल काफी गर्मी पड़ने वाली है। भारतीय मौसम विभाग (आईएमडी) का कहना है कि अप्रैल और जून के बीच पिछले साल के मुकाबले दोगुने से अधिक 10-20 सबसे ज्यादा गर्मी वाले दिन होंगे। अधिकतम और न्यूनतम तापमान दोनों ही नए स्तर को छूएंगे। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मानव के अस्तित्व के लिए अनुकूल सीमा को भी पार कर जाएगा।

इसका लोगों के शरीर के साथ-साथ खाने की थाली पर भी सीधा असर पड़ेगा। अधिक गर्मी के कारण गेहूं जैसे अनाज से लेकर कॉफी, डेरी और यहां तक कि हिलसा मछली तक की आपूर्ति घटने का खतरा मंडरा रहा है।

हालांकि, इस साल रबी मौसम के दौरान उगाए जाने वाले मुख्य अनाजों में से एक गेहूं इस बार तेज गर्मी के प्रकोप से बच गया है क्योंकि इसकी अधिकांश फसल पहले ही कट चुकी थी या ऐसी अवस्था में थी जब गर्मी से पैदावार ज्यादा प्रभावित नहीं हो सकता था। लेकिन आशंका बनी हुई है।

लू चलने के कारण, न केवल आपकी शाकाहारी और मांसाहारी थाली की कीमत अधिक होगी बल्कि इसका स्वाद भी अलग हो सकता है। इसके अलावा, बाजारों की कीमतों में उछाल और मौजूदा आपूर्ति श्रृंखला में बदलाव की उम्मीद है।

चिलचिलाती गर्मी

भारत के कुछ हिस्से में मार्च से अत्यधिक गर्मी पड़नी शुरू हो जाती है जिसके चलते गेहूं सबसे ज्यादा असुरक्षित हो जाता है। इसके बाद सब्जियों का भी कुछ ऐसा ही हाल होता है। भारत दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा गेहूं उत्पादक और उपभोक्ता देश है।

एक गैर सरकारी संगठन अनचार्टर्ड वाटर्स के ताजा शोध में 30 वर्षों के डेटा का संकलन है और इसमें कहा गया है, ‘सर्दियों के बाद तेज गर्मी कई गेहूं उत्पादक महत्त्वपूर्ण राज्यों में इसकी पैदावार में लगभग 20 प्रतिशत की कमी ला सकती है। यह लगातार गर्म या ठंडे वर्षों की तुलना में पैदावर में अधिक कमी है।’

इस शोध में भी कुल गेहूं उत्पादन में 5-10 फीसदी कमी के संकेत दिए गए हैं। सर्दी के मौसम में उगाए जाने वाले गेहूं की कटाई बसंत के आखिर में होती है जब गर्मी के उच्च तापमान का खतरा नहीं रहता क्योंकि इससे गेहूं कि बालियां प्रभावित हो सकती हैं और इससे पैदावार पर भी असर पड़ सकता है। अगर इसकी बोआई देर से हो, यह औसत से कम तापमान के कारण धीमी रफ्तार से बढ़े और गर्मी की शुरुआत जल्द हो जाए तब फसलों को काफी नुकसान हो सकता है।

यही सब चीजें भारत में भी हो रही हैं। क्लाइमेट ट्रेंड्स के एक नए अध्ययन में पाया गया है कि 1970 के दशक की तुलना में मार्च के अंत और अप्रैल की शुरुआत में बेहद गर्म मौसम में उल्लेखनीय वृद्धि हुई और आगे भी ऐसे ही हालात बने रहने के संकेत मिलने लगे। यह मोटे तौर पर वसंत ऋतु की अवधि कम होने, गर्मी के मौसम के जल्दी आने और लंबे समय तक रहने का संकेत देता है।

अच्छी बात यह है कि इस साल ज्यादातर जगहों पर गेहूं की बालियों के दाने भरने और पकने की अवस्था में थे तब तापमान बढ़ना शुरू हुआ था और कुछ जगहों पर दिन का तापमान 37 डिग्री सेल्सियस पार कर गया, लेकिन इससे पैदावार प्रभावित नहीं हुई।

लेकिन मुद्दा सिर्फ गर्मी नहीं है बल्कि बारिश और ओलावृष्टि भी वैश्विक तापमान में वृद्धि का सीधा परिणाम हैं और इससे खतरा पैदा होता है। खेतों में बारिश, बादल गरजने और ओलावृष्टि से खेतों में पानी भर जाने की खबरें पहले ही आ चुकी हैं।

आपूर्ति श्रृंखला की दिक्कतें

पारा जितना चढ़ता है, खराबी की संभावना उतनी ही बढ़ती जाती है। उचित कोल्ड स्टोरेज सुविधाओं के निम्न स्तर के चलते फलों और सब्जियों के गर्मी से होने वाले नुकसान की संभावना अधिक बढ़ जाती है। गर्म मौसम के कारण दूध की आपूर्ति अपेक्षाकृत तरीके से अधिक तेजी से कम हो जाती है। चूंकि ताजा तरल दूध की आपूर्ति असामान्य रूप से कम हो जाती है, ऐसे में संग्रहित स्किम्ड मिल्क पाउडर (एसएमपी) पर निर्भरता बढ़ जाती है।

मार्च के बाद से ही दूध की आपूर्ति कम हो जाती है क्योंकि मवेशियों के लिए कम पानी उपलब्ध होता है और डेयरी उद्योग नियमित मांग को पूरा करने के लिए एसएमपी के भंडार पर निर्भर करता है। गर्मी के आंच से मछली भी नहीं बच पाती है।
यूनाइटेड नेशंस के इंटरगर्वनमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेंट चेंज (आईपीसीसी) ने अपने एक आकलन रिपोर्ट में कहा है कि जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों से हिलसा और बॉम्बे डक जैसी व्यावसायिक मछली की प्रजातियों का उत्पादन कम हो जाएगा और कृषि में श्रम क्षमता भी घट जाएगी।

कृषि की पुनर्कल्पना

विशेषज्ञों का कहना है कि जलवायु परिवर्तन भारत में खाद्य फसलों की कीमतों में तेजी को बढ़ा देगा, जिससे आर्थिक और सामाजिक असुरक्षा की स्थिति पैदा होगी। क्लाइमेट ट्रेंड्स के एक विश्लेषण के मुताबिक पिछले साल मई और जून के बीच सामान्य खाद्य वस्तुओं की लागत तिगुनी हो गई थी।

आईपीसीसी के विश्लेषण में कहा गया है कि गेहूं, चावल, दालें, मोटे अनाज और अनाज की पैदावार 2050 तक लगभग 9 प्रतिशत कम हो सकती है। देश के दक्षिणी भागों में, मक्के का उत्पादन लगभग 17 प्रतिशत तक घट सकता है।

First Published : April 21, 2024 | 10:40 PM IST