सर्वोच्च न्यायालय ने शुक्रवार को कहा कि जांच एजेंसियां अपने मुवक्किल को कानूनी सलाह देने के लिए किसी भी वकील को मनमाने ढंग से तलब नहीं कर सकती हैं। मुख्य न्यायाधीश बी.आर.गवई, न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन और एन वी अंजारिया के पीठ ने एक मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए यह निर्णय सुनाया। यह तब किया गया जब कई वकीलों को जांच एजेंसियों की ओर से इस तरह समन दिए जाने के मामले सामने आए।
हालांकि न्यायालय ने समन जारी करने के लिए व्यापक दिशा निर्देश जारी करने या मजिस्ट्रेट की मंजूरी को अनिवार्य बनाने से इनकार कर दिया, लेकिन उसने वैध जांच की अनुमति देते हुए मुवक्किल की गोपनीयता बनाए रखने के उद्देश्य से कुछ विशेष निर्देश जारी किए।
फैसला लिखने वाले न्यायमूर्ति के विनोद चंद्रन ने कहा कि पीठ का उद्देश्य ‘प्रामाणिक नियमों और प्रक्रियागत सुरक्षा उपायों के बीच सामंजस्य बनाना’ है। न्यायालय ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 132 के तहत प्राप्त मुवक्किल को गोपनीयता का अधिकार है और यह वकीलको गोपनीय संवादों को उजागर करने से रोकता है। धारा 132 यह अनिवार्य करती है कि किसी वकील को मुवक्किल के साथ साझा की गई गोपनीय और पेशेवर बातचीत, सलाह या दस्तावेजों को बिना मुवक्किल की स्पष्ट सहमति के उजागर करने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।
न्यायालय ने कहा कि जांच अधिकारी या पुलिस अधिकारी किसी आरोपित के वकील को तब तक तलब नहीं कर सकते जब तक हालात धारा 132 के तहत सीमित अपवाद के दायरे में नहीं आते हों।
यदि ऐसा कोई अपवाद लागू होता है, तो समन में उस अपवाद को लागू करने का तथ्यात्मक आधार स्पष्ट रूप से दर्ज होना चाहिए और उसमें पुलिस अधीक्षक या उससे उच्च पदाधिकारी की लिखित स्वीकृति भी संलग्न होनी चाहिए, जो यह संतुष्टि भी लिखित रूप में दर्ज करे कि समन जारी करना उचित है। इस प्रकार जारी किए गए किसी भी समन की भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 528 के तहत न्यायिक समीक्षा की जा सकेगी।
पीठ ने कहा कि वकील और मुवक्किल के बीच विशेषाधिकार प्राप्त संवादों की रक्षा करने वाला कानून इसलिए है ताकि न्याय के प्रशासन के कार्य में प्रतिदिन लगे अधिकांश वकीलों को केवल इस कारण से प्रताड़ित या डराया न जाए कि उन्होंने किसी संदिग्ध आचरण वाले या बदनाम मुवक्किल का प्रतिनिधित्व किया है।
न्यायालय ने यह स्पष्ट किया कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 132 दस्तावेजों या भौतिक साक्ष्यों की प्रस्तुति को संरक्षण नहीं देती। आपराधिक मामलों में ऐसे साक्ष्य धारा 94 के तहत न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किए जाने चाहिए और धारा 165 के तहत उनकी जांच की जानी चाहिए।
न्यायालय ने कहा कि दीवानी मामलों में यह भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 165 और सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 16 नियम 7 द्वारा शासित होगा। न्यायालय ने यह भी कहा कि अगर कोई डिजिटल उपकरण मांगा जाता है तो इसे पहले सक्षम अदालत के समक्ष पेश करना होगा जो वकीलों और मुवक्किलों को सुनेगी। कोई भी खोजबीन उनकी मौजूदगी में होगी और अन्य मुवक्किलों की गोपनीयता को संरक्षण प्रदान किया जाना चाहिए।
अदालत ने स्पष्ट किया कि कंपनियों के आंतरिक कानूनी सलाहकारों को धारा 132 के तहत विशेषाधिकार प्राप्त नहीं हैं, हालांकि धारा 134 के तहत सलाहकार भूमिका में की गई बातचीत पर सीमित सुरक्षा लागू होती है। यह कार्यवाही प्रवर्तन निदेशालय द्वारा वरिष्ठ वकीलों अरविंद दातार और प्रताप वेंगुपल को जारी किए गए समन को लेकर हुए विवाद के बाद हुई, जिन्हें बार एसोसिएशनों के विरोध के बाद वापस ले लिया गया था।