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4 years of lockdown: कोविड महामारी से जूझने की कहानी, फ्रंट वर्कर की जुबानी

4 years of lockdown: कोविड मरीजों की देखभाल में लगे डॉक्टर, नर्स और एंबुलेंस चालकों ने कहा कि कोविड-19 महामारी में उन्हें कई अनुभव मिले, जिनसे उनके जीवन में बड़े बदलाव आए

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सोहिनी दास   
अंजलि सिंह   
संकेत कौल   
Last Updated- March 22, 2024 | 11:22 PM IST

4 years of lockdown: अप्रैल 2020 में भारत सहित दुनिया के कई देश कोविड-19 महामारी की भीषण चपेट में आ चुके थे। मंजूषा पाटिल (नाम परिवर्तित) कोविड-19 अस्पताल में काम कर पूर्वी मुंबई में अपने घर लौट रही थीं। लगभग 12 घंटे काम करने के बाद बुरी तरह थक चुकी मंजूषा का शरीर आराम मांग रहा था। मंजूषा धीरे-धीरे 26 मंजिला इमारत की सीढ़ियां चढ़ने लगीं। उनका अपार्टमेंट 18वीं मंजिल पर था। उनकी सोसाइटी ने उन्हें लिफ्ट का इस्तेमाल करने से मना कर दिया था। लोगों को डर था कि कोविड अस्पताल में काम करने वालीं मंजूषा कहीं उन्हें संक्रमित न कर दें।

मंजूषा ने एक लंबी सांस छोड़ते हुए कहा, ‘मेरे पड़ोस में रहने वाले कुछ लोग मुझसे सहानुभूति रखते थे। उनका सुझाव था कि अगर मैं इस्तेमाल के बाद लिफ्ट साफ-सुथरी कर दूं तो दूसरों के संक्रमित होने का खतरा काफी कम हो जाएगा। मगर सोसाइटी के ज्यादातर लोगों का यही कहना था कि मुझे लिफ्ट में नहीं जाना चाहिए।’

कोविड के दौरान आवश्यक एवं अनिवार्य सेवाओं में लगे लोगों (फ्रंटलाइन वर्कर) में मंजूषा अकेली नहीं थीं, जिन्हें उपेक्षित एवं अलग-थलग कर दिया गया था। कोविड काल में सक्रिय भूमिका निभाने वाले कई लोगों को तो सोसाइटी के अहाते में भी नहीं घुसने दिया जाता था। कुछ लोग तो अस्तपतालों में ही रहते थे। मरीजों की देखभाल करते इनमें कई लोग संक्रमित हो गए, कई बीमार हो गए और कुछ मौत का शिकार हो गए।

24 मार्च, 2020 को कोविड महामारी फैलने से रोकने के लिए देश में लॉकडाउन लगा दिया गया। लॉकडाउन के ऐलान के करीब चार वर्ष बाद आवश्यक सेवाओं में काम करने वाले कुछ लोगों ने अपने अनुभव साझा बताए। उन्हें लगा कि कोविड के दौरान मिले अनुभवों ने उन्हें और मजबूत बना दिया और उन्हें अपने कार्य एवं पेशे पर गौरव हो रहा था।

मार्च 2020 में भारत में कोविड के मामले 500 से कुछ अधिक हुए थे कि लॉकडाउन लगा दिया गया। मार्च अंत तक संक्रमण के मामले बढ़कर 1,000 से अधिक हो गए। अप्रैल तक मामले 10,000 पार कर गए। कोविड-19 वायरस तेजी से फैल रहा था।

मंजूषा ने कहा, ‘स्वास्थ्यकर्मी होने के नाते हमारी सबसे बड़ी चिंता यह थी कि इस महामारी के बारे में पुख्ता तौर पर कुछ पता नहीं था। एक सप्ताह बाद संक्रमित लोगों की हालत बिगड़ने लगती थी। लोगों में डर बैठ गया था। ऐसे में मेरे साथ उनका व्यवहार रूखा होना स्वाभाविक था। यह बीमारी इतनी खतरनाक थी कि अस्पताल एवं अन्य आवश्यक सेवाओं में काम करने वाले लोग अलग-थलग पड़ गए थे।’

मुंबई के एक बड़े अस्पताल में बतौर मुख्य नर्सिंग अधिकारी काम करने वाली जेसिका डिसूजा ने बिज़नेस स्टैंडर्ड को बताया था,’मई 2020 के बाद कई नर्सें तो अपने छोटे बच्चों से भी नहीं मिल पाते थे।’ डिसूजा ने बताया कि ज्यादातर नर्सिंग स्टाफ मुंबई से बाहर के थे। उन्होंने कहा, ‘इनमें कुछ लोगों ने अपने परिवारों को समझा दिया था कि उन्हें अस्पतालों में मरीजों के इलाज के लिए लंबे समय तक रहना पड़ता है।’

नई दिल्ली के जीवन ज्योति अस्पताल में काम करने वाली नर्स शैलजा टी उन दिनों को याद करती हैं जब उन्हें अपने सात साल के बेटे से दूर रहना पड़ा।
स्वास्थ्यकर्मियों ने कहा कि भीषण चुनौतियों के बाद भी उन्होंने अपने काम से मुंह नहीं चुराया। अस्पतालों में दूसरे विभागों के कर्मचारियों ने भी कोविड-19 के मरीजों की देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी।

बड़े कॉर्पोरेट अस्पतालों में प्रत्येक नर्स वेंटिलेटर पर पड़े एक या दो मरीजों की देखभाल कर रही थी। सामान्य वार्ड में उन्हें छह मरीजों तक की देखभाल करनी पड़ती थी। कोविड महामारी के दौरान मरीजों की देखभाल करने वाले स्वास्थ्यकर्मियों की कमी भी एक बड़ी समस्या थी।

जून 2020 तक स्वास्थ्य सेवाओं के सामने एक दूसरी परेशानी खड़ी हो गई। परेशानी यह थी कि अस्तपतालों में मरीजों के लिए बिस्तरों की संख्या तो बढ़ाई जा सकती थी मगर स्वास्थ्यकर्मियों की कमी की चुनौती से निपटना मुश्किल हो रहा था।

दिल्ली में मझोले आकार के एक अस्पताल के संचालक ने कहा, ‘80,000 बिस्तरों के लिए लगभग 6,000 नर्सों की जरूरत होती है। यह अनुमान इस बात पर आधारित था कि एक नर्स एक सामान्य वार्ड में 15 सामान्य मरीजों को देखभाल कर सकती है। तीन पालियों के बाद नर्सों को आराम की जरूरत होती है।’

कोविड के मरीजों से अस्पताल भरने लगे थे इसलिए पूरे देश में अस्थायी कोविड देखभाल केंद्र बनने लगे। जुलाई 2020 में मुंबई के मुलुंड में ऐसा ही एक केंद्र तैयार हुआ था। इस केंद्र में 1,650 बिस्तरों की व्यवस्था थी और रोजाना 150-200 मरीजों का इलाज वहां हो रहा था। नवंबर 2020 में यह केंद्र बंद कर दिया गया। ऐसे केंद्रों में काम करना मुश्किल था क्योंकि ये दवा एवं बुनियादी आपूर्ति के लिए बाहरी स्रोतों पर निर्भर थे।

कोविड संक्रमित मरीजों की देखभाल करने में स्वास्थ्यकर्मियों को अपने परिवार से दूर रहना पड़ता था और अस्पतालों में सामान्य से अधिक समय तक रुकना पड़ता था। दिनभर पीपीई किट पहन कर काम करना और भी चुनौतीपूर्ण था। डिसूजा ने कहा, ‘आईसीयू में पीपीई पहन कर काम करना मुश्किल हो रहा था। दिन-रात दस्ताने पहनने से कई लोगों को एलर्जी भी हो गई। खाने में सहज भोजन और पेय पदार्थों की व्यवस्था कोविड-19 वार्ड से लगे कमरों में की गई थी। इनमें नर्सिंग स्टाफ आराम करते थे।

कोविड-19 रोकने के लिए लगे लॉकडाउन से आवश्यक सेवाओं से जुड़े लोगों के मानसिक स्वास्थ्य पर भी असर हो रहा था। मुंबई के पीडी हिंदुजा हॉस्पिटल ऐंड मेडिकल रिसर्च सेंटर में फेफड़ा रोग एवं महामारी विशेषज्ञ लैंसेलॉट पिंटो कोविड महामारी के कुछ दिल को दहला देने वाले क्षणों को याद करते हैं।

पिंटो ने कहा, ‘हमारे अस्पताल में पति-पत्नी भर्ती हुए थे। वे दोनों अलग-अलग मंजिलों पर थे। इलाज के दौरान पति की मौत हो गई मगर उनके परिवार ने हमें यह बात उनकी पत्नी को बताने से मना कर दिया था। वह रोज अपने पति का हाल-चाल पूछती थी, जिसका जवाब हमारे पास नहीं होता था।’

एक दूसरे डॉक्टर ने कहा कि उनकी बेटी को अब भी यह शिकायत है कि जब वह कोविड संक्रमित थी तो वह उसके पास नहीं थे। गुरुग्राम में आर्टेमिस हॉस्पिटल में इंटर्नल मेडिसिन कंसल्टेंट सीमा धीर ने कहा, ‘कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर में मेरी बेटी संक्रमित हो गई थी। पड़ोसियों की रोक-टोक और मुझे मेरे काम से फुर्सत नहीं मिलने के कारण मैं छुट्टी नहीं ले पाई। मेरे विभाग ने मुझे कोविड-19 मरीजों को वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से सलाह देने की जिम्मेदारी सौंप दी थी। मुझे लगने लगा कि अब इससे ज्यादा शायद और काम करने की स्थिति में न रह जाऊं।’

जीत एवं जुझारूपन

आवश्यक सेवाओं से जुड़े लोगों के लिए कोविड महामारी अभूतपूर्व चुनौती साबित हुई। मगर बिज़नेस स्टैंडर्ड ने अनिवार्य सेवाओं से जुड़े जिन लोगों से बात की उनमें सभी ने कहा कि कोविड संकट ने इस बात का अहसास करा दिया कि लोगों को उनसे कितनी उम्मीदें रहती हैं और उन पर कितनी अधिक जिम्मेदारी है।

पिंटो ने कहा कि जिन मरीजों का इलाज उन्होंने कोविड-19 के दौरान नहीं किया वे भी हमारे प्रयासों की सराहना करते हैं। ऐसे क्षण हमारे लिए सबसे अधिक खुशनुमा रहे।

जोधपुर के मथानिया में एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में एंबुलेंस चालक मूलचंद उन दिनों को याद करते हैं जब वह मरीजों को अस्पताल लाते थे। मूलचंद ने कहा कि वह ऐसा समय था जब मरीजों को उनके घरवाले भी छूने से हिचकिचाते थे।

First Published : March 22, 2024 | 11:22 PM IST