अमेरिका में आए ताजा आर्थिक संकट के आंकड़ों पर निगाह डालें, तो वे काफी भारी भरकम दिखते हैं। फेनी मे और फ्रेडी मैक का बाजार में निवेश जहां खरबों रुपये में है, वहीं लीमन ब्रदर्स की परिसंपत्ति 600 अरब डॉलर है जबकि मॉर्गन स्टेनली के मामले में आंकड़े इससे कई सौ अरब ज्यादा हैं और एआईजी के कुछ कम।
अभी यह कहना मुश्किल है कि इसमें और कितना इजाफा होगा और कुल आंकड़ा कितना होगा।इस ताजा आर्थिक संकट का असर भारत पर कितना पड़ेगा यह गुणवत्ता के आधार पर कहना मुश्किल हैं लेकिन यह स्पष्ट है कि यह असर नकारात्मक होगा। संकट कीप्रतिक्रिया केरूप में दलाल स्ट्रीट में विदेशी संस्थागत निवेशकों द्वारा बिकवाली किया जाना और 2 से 3 हजार नौकरियों में कटौती होना कोई बहुत बडी बात नहीं है।
दरअसल अर्थ-वित्त जगत की प्रकृ ति चक्रीय होती है जिसमें कि नौकरियों में कटौती प्राय: होती रहती है। पिछले नौ महीनों में बाजार को विदेशी संस्थागत निवेशकों की ओर से होने वाली बिकवाली की आदत पड़ चुकी है।? बाजार में कारोबार का कमजोर होना अपने आप में कोई बड़ा हादसा नहीं है।
हालांकि कुछ ऐसे उद्योग हैं जिन पर इस आर्थिक संकट का गहरा असर पड़ सकता है। भारतीय बैंकों का विदेशों में कारोबार है और इसको लेकर बैंक अब होशियारी दिखाने लगे हैं। रियल एस्टेट की निर्भरता प्रत्यक्ष विदेशी निवेश पर रही है और यह निर्भरता अपेक्षित समय-सीमा में कम होने के आसार तो नहीं हैं।
जिन क्षेत्रों में प्राइवेट इक्विटी का प्रवाह होता है वहां पर इसमें कमी आई है। ऐसी सभी कंपनियां जिनमें विदेशी संस्थागत निवेशकों की भागीदारी होती है उनकेशेयरों में जबरदस्त पुनर्मूल्यांकन हुआ है।
यह तो संकट की शुरुआत भर है। असली घाटा तो उन सौदों में होगा, जो अगले दो साल में पूरे नहीं हो सकेंगे। ग्यारहवीं पंच वर्षीय योजना में भारत का विकास विदेशी निवेश पर निर्भर करता है।
विनिर्माण क्षेत्र में ही 600,000 करोड रुपये केनिवेश की आवश्यकता होगी जिसमें से तीन-चौथाई हिस्सा प्राइवेट फंडिंग के जरिए आएगा। अगर आवश्यक निवेश नहीं मिल पाता है, तो सकल घरेलू उत्पाद जबरदस्त ढंग से नीचे आ सकता है।
वर्ष 2002-03 में जब पिछली वास्तविक मंदी का दौर खत्म हुआ था, तब सकल घरेलू उत्पाद में 5 प्रतिशत तक की कमी आई थी। उस समय भारत में निवेश और उपभोग का अनुपात 40:60 था और इसमें 60 फीसद हिस्सेदारी उपभोग की थी।
वर्ष 2008-09 में यह अनुपात 50:50 का है, इसलिए निवेश के स्रोत मिलना मुश्किल है और हालात पहले से भी ज्यादा खराब हो सकते हैं।
दूसरी बात यह है कि भारतीय अर्थव्यवस्था मजबूती से वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड चुकी है और इस लिहाज से विश्व में हुई किसी भी आर्थक हलचल से अछूता रहना इसके लिए संभव नहीं रह गया है।
इस बात को आसानी से प्रमाणित किया जा सकता है। पिछले एक पखवाड़े में लगभग हरेक क्षेत्र को घाटे का सामना करना पडा है। बेहद मजबूत क्षेत्र और ऐसे क्षेत्र, जो विदेशी फंडिंग पर ज्यादा निर्भर रहे हैं, उन पर सबसे ज्यादा मार पड़ी है। किसी भी क्षेत्र का प्रदर्शन बेहतर नहीं रहा है।
ऐसे उद्योग जिनका कारोबार विदेशों में नहीं होता है, उनके कारोबार में भी अच्छा खासा घाटा हुआ है।
विकास की अनिश्चितता को देखते हुए यह निष्कर्ष निकलता है कि यह विकास के बजाय वैल्यू इन्वेस्टमेंट का परिदृश्य है।
वैल्युएशन इस बात का संकेत देगा कि करेक्शन होने केबावजूद शेयरों की कीमतों में उस स्तर तक कमी नहीं आई हैं जहां पर यह आकर्षक लगता है।
वास्तव में इस बात को ध्यान में रखते हुए कि विकास के लक्ष्य को कम किया जा रहा है, वैल्युएशन आकर्षक होने से पहले ही कीमतों में जबरदस्त गिरावट आ सकती है।
बेंजामिन ग्राहम ने मंदी के समय केजो सिध्दांत प्रतिपादित किए हैं, उनमें विकास के कम और अनिश्चित अनुमानों को बेहद सामान्य तौर पर बुनियाद बनाया गया है।
ग्राहम ने यह कल्पना की कि विकास शून्य होगा और जिस भी कारोबार में उन्होंने निवेश किया है, वह दिवालिया हो जाएगा। उन्होंने केवल ऐसी कंपनियों में दिलचस्पी दिखाई, जिन्हें उनके शेयरों की कीमत के मुकाबले बहुत ज्यादा दाम पर बेचा गया। आसान शब्दों में कहें, तो ग्राहम ने उन्हीं कंपनियों पर ध्यान दिया, जिनका प्राइस टु बुक वैल्यू 1 या कम था।
अमेरिकी महामंदी में ऐसा ही था, लेकिन बदकिस्मती से भारत के साथ ऐसा नहीं है, जो सेवा क्षेत्र पर आधारित अर्थव्यवस्था है। भारत में बाजार की खस्ता हालत केसमय भी प्राइस-बुक वैल्यू अनुपात यह 1.7 से 2 प्रतिशत के बीच रहा है।
वैश्विक उथल-पुथल से बचने का दूसरा तरीका कैश-फ्लो माध्यम है। कोई भी कंपनी सकारात्क कैश-फ्लो के जरिए खुद को स्थिरता प्रदान कर सकती है। यदि कैश फ्लो नकारात्मक होता है, तब भी कंपनी का कारोबार बेहतर हो सकता है।
लेकिन यदि हालात ऐसे बनें कि निवेश की कमी हो जाए, तो इन कंपनियों के पिटने की संभावनाएं ही ज्यादा होती हैं। दुर्भाग्य से ऐसी कंपनियों की तादाद अंगुली पर गिनने लायक है, जिनका कि कैश-फ्लो सकारात्मक है।
हालांकि कुछ मामलों जैसे टेलीकॉम क्षेत्र की कंपनियां हैं जिन्होंने अपने मुनाफे को दूसरी नई योजनाओं में भविष्य में होनेवाले मुनाफे की चाह में झोंक दिया है। इनसे हटकर बात करें, तो सार्वजनिक क्षेत्र की तेल शोधक कंपनियां के पास नकारात्मक कैश-फ्लो है क्योंकि ये कंपनियां मूल रूप से दिवालिया हो चुकी है।
कुछ कंपनियां जिनका कैश-फ्लो सकारात्मक है, वे मंदी से बेहतर तरीके केसाथ उबर सकती है। आपको शेयरों को एक के बाद एक परखना होगा, लेकिन यह महज एक मापदंड है, जिससे आप बाजार का फायदा उठा सकते हैं।
