Illustration: Ajay Mohanty
बैंकों के औद्योगिक ऋण (Industrial credit) में वित्त वर्ष 2022-23 (वित्त वर्ष 23) की पहली छमाही में तेजी आई लेकिन फिर घटती चली गई। यह वृद्धि फरवरी में 12 महीने के सबसे निचले स्तर 7 फीसदी पर आ गई। इससे सालाना आधार पर औद्योगिक ऋण वृद्धि में गिरावट आई। यह जानकारी भारतीय रिजर्व बैंक के आंकड़ों से प्राप्त हुई।
अक्टूबर में सालाना आधार पर औद्योगिक ऋण वृद्धि दर दशक के उच्च स्तर 13.6 फीसदी पर पहुंच गई थी। वित्त वर्ष 23 की पहली छमाही में प्राइवेट सेक्टर के पूंजीगत खर्च (private sector capital expenditure) में फिर से बढ़ोतरी की उम्मीद दिखाई दी थी। लेकिन फिर इसमें फिर इतनी गिरावट आई कि यह करीब एक दशक के निचले स्तर पर पहुंच गई।
संपूर्ण गैर खाद्य ऋण (non-food credit) की गिरावट की तुलना में औद्योगिक ऋण में अधिक गिरावट आई थी। यह फरवरी में सालाना आधार पर 15.9 प्रतिशत की दर से दो अंक में बढ़ती रही थी। यह जनवरी की तुलना में कुछ कम थी। जनवरी में सालाना आधार पर 16.7 फीसदी की वृद्धि हुई थी। यह अक्टूबर में दशक के उच्च स्तर 17.1 फीसदी पर पहुंच गई थी।
RBI के आंकड़ों के अनुसार फरवरी के अंत तक कुल औद्योगिक कर्ज बढ़कर 32.9 लाख करोड़ रुपये हो गया था जबकि बीते साल की अवधि में यह राशि 30.8 लाख करोड़ रुपये थी। हालांकि इस अवधि में गैर खाद्य का कुल कर्ज 115.75 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 134.15 लाख करोड़ रुपये हो गया था।
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औद्योगिक कर्ज कम लिए जाने के कारण बैंक के लिए कारोबार का यह क्षेत्र सिमट गया। बैंक कारोबार के लिए अब मुख्य रूप से पर्सनल लोन और गैर बैंकिंग वित्तीय कंपनियों (NBFC) पर निर्भर हो गए हैं। सभी बैंकों ने फरवरी के अंत तक के 12 महीनों में कुल 18.4 लाख करोड़ रुपये के नए ऋण जारी किए थे। इनमें उद्योगों को 11.65 फीसदी 2.14 लाख करोड़ रुपये दिए गए थे। हालांकि खेती को 2.15 लाख करोड़ रुपये के ऋण दिए गए थे। लिहाजा उद्योग को खेती से भी कम लोन जारी किया गया।
औद्योगिक लोन से तुलना करने पर जानकारी मिलती है कि परर्सनल लोन में सर्वाधिक वृद्धि हुई। 12 महीने की अवधि में दिए गए नए कर्ज में पर्सनल लोन की हिस्सेदारी 37 फीसदी थी। इसके बाद सेवा क्षेत्र (सर्विस सेक्टर) की हिस्सेदारी 32.8 फीसदी थी।
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सेवा क्षेत्र में ऋण लेने की अगुआई NBFC ने की थी। इनमें गैर बैंकिंग खुदरा उधारदाता (non-bank retail lenders), आवास ऋण कंपनियां (housing finance companies) और वाहन के लिए धन देने वाली कंपनियां (vehicle financiers) थीं। विशेषज्ञों ने भारत के आर्थिक विकास में उद्योग की घटती हिस्सेदारी के लिए औद्योगिक कर्ज में गिरावट को जिम्मेदार मानते हैं।