अपने वफादार विधायकों के साथ कांग्रेस से भाजपा में आने वाले ज्योतिरादित्य सिंधिया को भाजपा के भीतर भी मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है। वहीं कांग्रेस 2020 के झटके की भरपाई 2023 में करना चाहती है। संदीप कुमार
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) द्वारा नरेंद्र सिंह तोमर को मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के लिए चुनाव प्रबंधन समिति का समन्वयक बनाए जाने को केंद्रीय मंत्री ज्योतिरादित्य सिंधिया के लिए झटके के रूप में देखा जा रहा है जो चुनाव के पहले अपने लिए बड़ी भूमिका तलाश कर रहे थे।
ग्वालियर-चंबल इलाके में भाजपा पहले ही गुटबाजी से जूझ रही है। 2020 के शुरुआती महीनों में सिंधिया और उनके समर्थकों के कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आने के बाद से ही वहां गुटबाजी चरम पर है।
वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक विश्लेषक गिरिजा शंकर कहते हैं, ‘इसमें दो राय नहीं कि चंबल के स्थानीय भाजपा नेताओं को सिंधिया का पार्टी में आना रास नहीं आया है। अगर स्थानीय नेता ही उन्हें स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं तो उन्हें पूरे राज्य की जिम्मेदारी किस आधार पर दी जा सकती है?’
वह कहते हैं, ‘सिंधिया को बड़ी भूमिका देने की मांग उनके समर्थकों ने छेड़ी थी। तथ्य तो यह है कि कांग्रेस छोड़कर भाजपा में आते समय सिंधिया ने जो कुछ मांगा था वह उनको मिल चुका है। उनके समर्थकों को मंत्री बनाया गया, विधानसभा चुनाव में टिकट दिए गए और चुनाव हारने वालों को निगम-बोर्डों में जगह दी गई। आप एक ही चीज के लिए दो बार सौदेबाजी नहीं कर सकते। अब उनकी हैसियत पार्टी के किसी अन्य नेता की तरह ही है। जब पार्टी ने नरोत्तम मिश्रा, कैलाश विजयवर्गीय, फग्गन सिंह कुलस्ते या विरेंद्र कुमार खटीक को मध्य प्रदेश चुनावों में कोई बड़ी भूमिका नहीं दी तो सिंधिया के लिए इसकी उम्मीद करना कुछ ज्यादा ही होगा।’
ग्वालियर-चंबल क्षेत्र के एक भाजपा नेता कहते हैं कि तोमर में जहां सांगठनिक कौशल है जो उन्हें इस भूमिका के लिए फिट बनाता है तो वहीं उन्हें भाजपा के दिग्गजों और सिंधिया समर्थकों के बीच तालमेल का अहम काम भी करना होगा।
एक अन्य राजनीतिक विश्लेषक राकेश दीक्षित कहते हैं, ‘सिंधिया और तोमर के बीच कोई विवाद नहीं होना चाहिए। दोनों ग्वालियर-चंबल इलाके से आते हैं लेकिन तोमर का प्रभाव ग्वालियर के उत्तर में भिंड-मुरैना में अधिक है जबकि सिंधिया का प्रभाव ग्वालियर के दक्षिण में गुना-शिवपुरी जिलों में है। तोमर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भी करीबी माने जाते हैं और मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के साथ भी उनके करीबी रिश्ते हैं। वह अतीत में सफल चुनाव प्रबंधन कर चुके हैं।’
वह कहते हैं, ‘तोमर हों या नहीं लेकिन सिंधिया का प्रभाव कम होना तय है। चूंकि चुनाव प्रक्रिया में उन्हें अहमियत नहीं मिल रही है इसलिए उनके लिए अपने समर्थकों को टिकट दिलवाना भी मुश्किल होगा। हम सभी जानते हैं कि इन बातों का उल्लेख उस सौदेबाजी में नहीं था जो उन्होंने विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़ते और भाजपा में शामिल होते समय रखी थी। इसका अर्थ यह हुआ कि भाजपा नेतृत्व टिकट वितरण अपनी मर्जी से करेगा। सिंधिया अब पार्टी के खिलाफ नहीं जा सकते हैं।’
सिंधिया के करीबी माने जाने वाले एक भाजपा नेता गोपनीयता की शर्त पर कहते हैं, ‘तोमर के अनुभव और चुनावी विशेषज्ञता का कोई जवाब नहीं। सिंधिया भी ताजा घटनाक्रम से खुश ही हैं क्योंकि आखिर मकसद तो चुनाव जीतना ही है। बहरहाल भाजपा में आपके पास बहुत विकल्प नहीं रहते। शीर्ष नेतृत्व जो कह देता है वही करना होता है। अमित शाह हालिया भोपाल यात्रा में कह गए हैं कि हमें किसी भी कीमत पर चुनाव जीतना है। ऐसे में टिकट वितरण में भी जीतने की क्षमता ही देखी जाएगी न कि यह कि आप भाजपा नेता हैं या कांग्रेस से आए हैं।’
ग्वालियर और चंबल के आठ जिलों में 34 विधानसभा सीट हैं। 2018 में कांग्रेस ने इनमें से 26 जीती थीं जबकि भाजपा को सात और एक सीट बसपा को मिली थी। उस समय सिंधिया कांग्रेस में थे।
अब हालात बदल गए हैं। इस क्षेत्र में 20 फीसदी आबादी दलित है और कांग्रेस उसे अपने पाले में करने की कोशिश कर रही है।
कमलनाथ की सरकार गिरने के बाद हुए विधानसभा चुनाव में 28 में से भाजपा को 19 और कांग्रेस को नौ सीटों पर जीत मिली थी। विश्लेषकों का मानना है कि सिंधिया के न होने से कांग्रेस पर टिकट वितरण में भी कोई दबाव नहीं होगा।
प्रियंका गांधी ने अपनी हालिया ग्वालियर यात्रा में पहली बार रानी लक्ष्मीबाई की समाधि के दर्शन किए। इसे इस बात का संकेत माना जा रहा है कि जरूरत पड़ने पर कांग्रेस सिंधिया की गद्दारी को भी चुनावी मुद्दा बनाएगी।