नरेंद्र मोदी सरकार ने वर्ष 2015 के बाद से विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ कराने या ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ का समर्थन किया है। उसका यह तर्क है कि इससे सरकारी खजाने को चुनाव खर्च कम करने और तेजी से निर्णय लेने में मदद मिलेगी। विपक्ष, विशेष रूप से कुछ क्षेत्रीय दलों और यहां तक कि कांग्रेस ने भी सरकार के प्रस्ताव का विरोध करते हुए इसे संघीय सिद्धांत के खिलाफ बताया है।
हाल के अध्ययनों और चुनावी आंकड़ों से पता चलता है कि भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेतृत्व वाली सरकार ‘एक राष्ट्र, एक चुनाव’ के सिद्धांत पर जोर क्यों दे रही है। विवेक देवरॉय और किशोर देसाई ने वर्ष 2017 में ‘एक साथ चुनाव’ कराए जाने से जुड़े मुद्दे पर नीति आयोग के एक विमर्श पत्र में सरकारी खजाने की बचत का हवाला देते हुए वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों के साथ-साथ 14 विधानसभा चुनाव कराने का प्रस्ताव दिया गया था। लेकिन इसमें इस आलोचना को भी स्वीकार किया गया कि विधानसभा और लोकसभा चुनाव एक साथ कराने पर मतदान में एकसमान रुझान दिख सकता है।
थिंक टैंक आईडीएफसी इंस्टीट्यूट के 2015 के एक अध्ययन में पाया गया कि वर्ष 1999 से 2014 तक करीब 77 प्रतिशत तक संभावना थी कि जब एक साथ चुनाव हुए तब भारत के मतदाताओं ने राज्य और केंद्र दोनों के चुनाव के लिए एक ही पार्टी को वोट दिया। जब छह महीने बाद चुनाव हुए तब यह आंकड़ा घटकर 61 प्रतिशत रह गया। जब यह चक्र और बाधित हुआ और केवल 48 प्रतिशत निर्वाचन क्षेत्रों में समान पार्टी के उम्मीदवार ही विजेता बने।
संजय कुमार और जगदीप छोकर के विश्लेषण का जिक्र देवरॉय के पत्र में भी किया गया है जिसके अनुसार, वर्ष 1989 के लोकसभा चुनावों से लेकर 2014 तक करीब 31 ऐसे उदाहरण थे जब विधानसभाओं और लोकसभा के चुनाव एक साथ कराये गए थे। करीब 24 चुनावों में प्रमुख राजनीतिक दलों के लिए विधानसभा और लोकसभा चुनावों में लगभग समान अनुपात में वोट डाले गए जबकि केवल सात मामलों में ही मतदाताओं की पसंद अलहदा थी।
देवरॉय और देसाई ने तर्क दिया कि लोकसभा चुनाव कराने के लिए सरकार के खर्च में ‘उल्लेखनीय वृद्धि’ देखी गई है। उन्होंने माना कि ‘एक चुनाव’ के लिए संवैधानिक संशोधनों की आवश्यकता होगी, लेकिन उन्होंने कहा कि लगातार चुनावों ने शासन और विकास से संबंधित कार्यों को बाधित किया है और सरकारों को लोकलुभावन घोषणाओं के लिए मजबूर किया है।
दोनों ने कहा कि वर्ष 2009 के लोकसभा चुनावों के संचालन की लागत लगभग 1,115 करोड़ रुपये थी जिसकी तुलना में वर्ष 2014 में यह लगभग तीन गुना बढ़कर लगभग 3,870 करोड़ रुपये हो गया। इसके अलावा, वर्ष 2015 के बिहार चुनावों की लागत 300 करोड़ रुपये और गुजरात में वर्ष 2017 में चुनाव की लागत 240 करोड़ रुपये थी, जब ये चुनाव और बाकी चुनाव लोकसभा चुनावों के साथ आयोजित कराए जा सकते थे।
इस रिपोर्ट में कहा गया है, ‘स्पष्ट तौर पर बार-बार होने वाले चुनाव इस तरह की लागत को अनुकूल बनाने के मौके खत्म कर देते हैं और हर साल सार्वजनिक पूंजी बड़े पैमाने पर खर्च होती है। इसके विपरीत, इसमें कहा गया है कि चुनाव आयोग का अनुमान है कि अगर एक साथ चुनाव कराए जाते हैं तब करीब 4,500 करोड़ रुपये की लागत का अनुमान है।’
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इस प्रस्ताव को लेकर कांग्रेस और उसके सहयोगी दलों की चिंता की वजह दूसरी है। वर्ष 2018 में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में विधानसभा चुनाव जीते। इसने सत्तासीन पार्टी को जीती गई सीटों की संख्या के लिहाज से मात दी और इसके अलावा कृषि संकट सहित स्थानीय मुद्दों के आधार पर इसने अपनी वोट हिस्सेदारी बढ़ाई। पांच महीने बाद, वर्ष 2019 के लोकसभा चुनावों में भाजपा ने राजस्थान में 59 प्रतिशत वोट हासिल किए, जो उसके विधानसभा प्रदर्शन से लगभग 20 प्रतिशत बेहतर प्रदर्शन था। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के चुनावी नतीजे भी कुछ ऐसे ही रहे।
हालांकि, अक्टूबर तक, जब महाराष्ट्र, झारखंड और हरियाणा में विधानसभा चुनाव हुए तब इसकी स्थिति बदल गई जहां भाजपा ने मई 2019 के लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की थी। उसने झारखंड में अपनी सरकार गंवा दी, जबकि महाराष्ट्र और झारखंड में खंडित जनादेश का सामना करना पड़ा। वर्ष 2020 में भाजपा दिल्ली विधानसभा चुनावों में हार गई, जहां उसने 2019 मई में सभी सात लोकसभा सीटों पर जीत हासिल की थी और इसे बिहार विधानसभा चुनावों में अपने लोकसभा प्रदर्शन को दोहराने के लिए संघर्ष करना पड़ा।