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अमेरिका द्वारा 1 अगस्त से भारत से आने वाले सामान पर 25 फीसदी टैरिफ लगाने के फैसले को अस्थायी और दबाव बनाने वाला कदम माना जाना चाहिए। यह बात शिकागो बूथ स्कूल ऑफ बिज़नेस में वित्त प्रोफेसर और भारतीय रिज़र्व बैंक (RBI) के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन ने श्रेय नंदी को दिए एक वीडियो इंटरव्यू में कही।
राजन ने कहा कि अमेरिका चाहता है कि भारत उसकी शर्तें मान ले, इसलिए यह पेनल्टी जैसे टैरिफ लगाए गए हैं। उन्होंने सुझाव दिया कि भारत को कारों पर लगने वाले टैरिफ को काफी हद तक कम करना चाहिए। लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि वैश्विक समझौतों पर फैसला लेते समय छोटे डेयरी और कृषि उत्पादकों के हितों का ध्यान रखना जरूरी है।
उन्होंने यह भी जोड़ा कि भारत में निवेश को आकर्षित करने के लिए सरकार को “नियमों की अनिश्चितता” और “टैक्स से जुड़ी दिक्कतों” जैसी समस्याओं को दूर करना होगा। यही कारण है कि कई विदेशी निवेशक भारत में आने से झिझकते हैं।
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आइए, जानते हैं रघुराम राजन ने इंटरव्यू में क्या कहा-
अमेरिका के साथ ट्रेड डील और टैरिफ बढ़ोतरी का असर ग्लोबल ट्रेड और अमेरिकी इकॉनमी पर किस तरह पड़ सकता है?
अमेरिका के साथ ट्रेड डील और टैरिफ बढ़ोतरी का असर अब पूरी दुनिया पर दिखने लगा है। इससे ग्लोबल ट्रेड में रुकावट आ रही है।
राजन ने कहा कि हर देश अमेरिका से अपने लिए अलग-अलग पैकेज तय करने की कोशिश कर रहा है। समस्या यह है कि एक ही प्रोडक्ट के लिए कुछ देशों पर ज्यादा टैरिफ लग रहा है और कुछ पर कम। ऐसे में सप्लाई चेन उन देशों की तरफ शिफ्ट हो रही है जहां टैरिफ कम है, भले ही वहां प्रोडक्शन उतना एफिशिएंट न हो।
उदाहरण के लिए, चीन पर अमेरिका ने भारी टैरिफ लगाया है। इसलिए चीन कोशिश करेगा कि सामान मेक्सिको भेजकर वहां से अमेरिका भेजा जाए ताकि टैरिफ से बचा जा सके। इसे रोकने के लिए अमेरिका को ज्यादा जांच करनी पड़ेगी।
अमेरिकी उपभोक्ताओं (consumers) के लिए मुश्किल यह है कि अब उन्हें कई प्रोडक्ट्स महंगे मिलेंगे। अमेरिकी राष्ट्रपति कहते हैं कि टैरिफ का बोझ विदेशी कंपनियों पर पड़ेगा, लेकिन हकीकत यह है कि इसका असर प्रोड्यूसर, इंपोर्टर और कंज्यूमर—तीनों पर पड़ता है। किस पर कितना असर होगा, यह इस पर निर्भर करेगा कि उस इंडस्ट्री में कॉम्पिटिशन कितना है।
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फिलहाल अमेरिका में कुछ चीजों के दाम बढ़ने लगे हैं। दाम बढ़ने का मतलब है कि कंज्यूमर्स का बजट घटेगा और उनकी खरीदारी भी कम होगी। इससे अमेरिकी डिमांड घटेगी और कंपनियां लोगों को नौकरी से निकाल सकती हैं।
हालांकि यह शुरुआत है और असर धीरे-धीरे साफ दिखेगा। ज्यादातर इकोनॉमिस्ट्स मानते हैं कि समय के साथ इसका पूरा असर नजर आएगा।
एक तरफ अमेरिकी स्टॉक मार्केट अब तक के सबसे ऊंचे स्तर पर है, जिससे सेंटीमेंट बेहतर है। लेकिन यह बढ़ती कीमतों और घटती मांग की भरपाई पूरी तरह नहीं कर सकता। यही वजह है कि असर थोड़ा देर से नजर आ रहा है। broadly देखा जाए तो साल के दूसरे हिस्से में अमेरिका की ग्रोथ धीमी हो सकती है और प्राइस बढ़ सकते हैं, जिससे फेडरल रिजर्व (Fed) के लिए ब्याज दरें घटाना मुश्किल होगा।
क्या भारत इस व्यापारिक अवरोध से निपटने के लिए सही दिशा में आगे बढ़ रहा है?
भारत और अमेरिका के बीच चल रही टैरिफ (शुल्क) वार्ताओं से अभी सिर्फ़ एक व्यापक इरादा ही सामने आया है। यानी, भारत को किस तरह के टैरिफ ढांचे का सामना करना होगा। लेकिन असली तस्वीर उन बारीकियों में छिपी है, जिन पर बातचीत बाकी है। मसलन, दवाओं के मामले में अमेरिका ने अलग से जांच शुरू कर रखी है, ऐसे में इस सेक्टर के लिए क्या नियम बनेंगे? इसी तरह, विदेशी निवेश (FDI) और गैर-शुल्कीय बाधाओं पर भारत किस तरह के समझौते करता है, यह भी अहम होगा।
भारत के लिए यह स्थिति फ़ायदेमंद हो सकती है अगर—
भारत इस वार्ता को “हार-हार” की बजाय “दोनों के लिए फ़ायदेमंद” बना सकता है।
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साथ ही, भारत को यह भी सोचना होगा कि अमेरिका से उसे किन मोर्चों पर रियायतें चाहिए। जैसे—
भारत इस पैकेज डील में सिर्फ टैरिफ ही नहीं बल्कि नई और अभिनव मांगें भी रख सकता है। यही रणनीति उसे लंबे समय में जीत दिला सकती है।
भारत को किन सेक्टर्स में टैरिफ घटाने चाहिए और क्या कार सेक्टर इसमें सबसे अहम है?
अमेरिकी प्रशासन का ध्यान फिलहाल कार सेक्टर पर ज्यादा है। कारों को हर देश अपनी शान मानता है और चाहता है कि उसका यह उद्योग मजबूत हो। ऐसे में भारत के लिए कारों पर लगने वाले टैक्स (टैरिफ) घटाना एक बेहतर कदम हो सकता है। अगर भारत कारों पर टैरिफ कम कर दे और अपने उद्योग को ज्यादा प्रतिस्पर्धा का सामना करने दे, तो यह सेक्टर और बेहतर हो सकता है।
अमेरिका के 1 अगस्त से लागू होने वाले 25% टैरिफ का भारत पर क्या असर पड़ेगा?
अमेरिका की ओर से 1 अगस्त से 25% रेसिप्रोकल टैरिफ (reciprocal tariff) लगाने की समयसीमा करीब आ गई है। अगर इस बीच कोई अंतरिम समझौता नहीं होता, तो भारत से अमेरिका जाने वाले सामान पर यह भारी शुल्क लग जाएगा। इसका असर भारत पर साफ तौर पर दिखेगा।
असल में इसे एक तरह का अस्थायी दंडात्मक टैरिफ माना जा सकता है, जिसका मकसद भारत पर दबाव डालकर अमेरिका की शर्तें मनवाना है। हैरानी की बात यह है कि भारत और अमेरिका के बीच अच्छे रिश्ते माने जाते हैं, लेकिन इस कदम से साफ है कि अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में सब कुछ “लेन-देन” पर ही टिका होता है।
जहां तक असर की बात है, तो पहले से भेजे जा चुके माल पर शायद छूट मिल सकती है क्योंकि उस पर अचानक शुल्क लगाना काफी अव्यवस्था पैदा कर देगा। दूसरी ओर, भारतीय निर्यातक पहले ही समयसीमा से पहले ज्यादा से ज्यादा माल भेजने की कोशिश कर रहे हैं, क्योंकि आगे टैरिफ बढ़ना ही है, घटने की संभावना नहीं है। अमेरिकी खरीदार भी पहले से काफी स्टॉक जमा कर चुके हैं। ऐसे में आने वाले दिनों में निर्यातक या तो माल रोककर गोदामों में रखेंगे या फिर अमेरिका में बॉन्डेड वेयरहाउस का इस्तेमाल करेंगे और स्थिति साफ होने का इंतजार करेंगे।
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असल मुश्किल यह है कि अब अमेरिका का टैरिफ 3% से बढ़कर 15-20% की रेंज में पहुंच रहा है। यह झटका न सिर्फ भारत बल्कि अमेरिका की कंपनियों और उपभोक्ताओं को भी लगेगा। हालांकि, अल्पावधि में भारतीय निर्यातक खुद को एडजस्ट कर लेंगे और पहले से इसकी तैयारी भी कर चुके हैं। बड़ा सवाल यह है कि आने वाले एक-दो महीने में बातचीत के बाद यह मामला आखिर किस स्तर पर स्थिर होता है।
भारत किसी भी ट्रेड डील से अधिकतम फायदा कैसे उठा सकता है?
राजन ने कहा कि भारत को अपने इंफ्रास्ट्रक्चर को और बेहतर बनाने और बिजनेस करने में आने वाली अड़चनों को दूर करने पर लगातार काम करना चाहिए। अगर भारत यह भरोसा दिला सके कि विदेशी निवेशकों (FDI) और भारतीय निवेशकों के साथ समान व्यवहार होगा, तो यह बड़ा आकर्षण बन सकता है। कुछ दक्षिण भारतीय राज्यों ने पहले ही इस दिशा में सक्रिय पहल की है और काफी निवेश खींचा है। चाहे निवेश मैन्युफैक्चरिंग में आए या सर्विसेज में, यह भारत के लिए फायदेमंद है।
आज जब दुनिया भर की कंपनियां अपने सप्लाई चेन को नए सिरे से देख रही हैं, भारत के लिए यह मौका है कि वह स्पष्ट संदेश दे कि हम निवेश के लिए खुले हैं। शुरुआत में निवेशक केवल अमेरिकी बाजार को ध्यान में रखकर आएं, लेकिन धीरे-धीरे वे भारत से ग्लोबल बाजार के लिए भी उत्पादन कर सकते हैं।
इस समय भारतीय उद्योग को और आक्रामक व साहसी बनना होगा, और राज्यों को भी निजी क्षेत्र के साथ मिलकर निवेश आकर्षित करने की कोशिश करनी चाहिए।
हालांकि, कुछ क्षेत्रों में भारत को सतर्क रहना होगा।
ऐसे में भारत को यह देखना होगा कि ट्रेड डील्स छोटे उत्पादकों पर दबाव न डालें। इसके बजाय, एग्री-प्रोसेसिंग और वैल्यू-एडेड सेक्टर्स में विदेशी निवेश को प्रोत्साहन देकर, अमेरिका जैसे देशों के साथ विन-विन मॉडल बनाया जा सकता है।
नेट एफडीआई (FDI) में गिरावट आई है और इसी दौरान डिसइन्वेस्टमेंट तथा रिपैट्रिएशन में बढ़ोतरी देखी गई है। आप इस रुझान को कैसे देखते हैं और इसके पीछे मुख्य वजह क्या हो सकती है?
पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन का मानना है कि भारत में लंबे समय तक यह कहा जाता रहा कि निवेश के रास्ते में सबसे बड़ी अड़चन लॉजिस्टिक्स और इंफ्रास्ट्रक्चर की कमी है। लेकिन पिछले कुछ सालों में इन दोनों क्षेत्रों में काफी सुधार हुआ है। इसके बावजूद विदेशी निवेश उम्मीद के मुताबिक नहीं बढ़ रहा है। ऐसे में अब यह सोचना होगा कि आखिर समस्या कहां है।
राजन के अनुसार अब ध्यान सॉफ्ट इंफ्रास्ट्रक्चर पर भी देना होगा। यानी निवेशकों को भरोसेमंद बिज़नेस माहौल और टैक्स से जुड़ी निश्चितता चाहिए। पुराने टैक्स दावों ने घरेलू और विदेशी निवेशकों में असुरक्षा की भावना पैदा की है। कई बार टैक्स अधिकारी बड़े-बड़े दावे कर देते हैं और मामला सालों तक अदालतों में फंसा रहता है। कोई भी अधिकारी यह जिम्मेदारी लेना नहीं चाहता कि किसी गलत दावे को खत्म कर दे और बाद में उस पर भ्रष्टाचार का आरोप लग जाए। नतीजतन, मामूली या गैरज़रूरी दावे भी लंबे समय तक कोर्ट में चलते रहते हैं।
राजन का कहना है कि सरकार को इस पर कदम उठाने की ज़रूरत है। न सिर्फ टैक्स मामलों में, बल्कि नियामकीय (regulatory) स्तर पर भी। अक्सर घरेलू उत्पादकों के दबाव में ऐसे नियम लाए जाते हैं, जिनसे विदेशी निवेश को नुकसान होता है। इस तरह की अनिश्चितता को कम करना ज़रूरी है।
उन्होंने यह भी कहा कि हमें अपने लोगों की स्किलिंग पर जोर देना होगा ताकि निवेशकों को बेहतर प्रशिक्षित कर्मचारी मिल सकें। साथ ही, निवेश को बढ़ावा देने के लिए राज्यों के स्तर पर भी पहल होनी चाहिए। जैसे तमिलनाडु में Guidance नाम की एजेंसी विदेशी निवेशकों की मदद करती है, उनकी दिक्कतें सुलझाती है और निवेश का माहौल आसान बनाती है।
राजन का मानना है कि अगर हम ऐसा माहौल विदेशी ही नहीं, बल्कि घरेलू निवेशकों के लिए भी बनाएंगे, तो इसका फायदा देश को मिलेगा। सरकार को इसे एक अवसर के रूप में देखना चाहिए और ऐसे कदम उठाने चाहिए जिससे FDI (Foreign Direct Investment) लगातार बढ़े। यही हमारी सफलता का असली पैमाना होगा।
क्या चीन पर लगी निवेश संबंधी पाबंदियों में ढील देने से भारत में FDI बढ़ सकता है?
राजन का मानना है कि चीनी निवेश पर लगी पाबंदियों में ढील देने से भारत में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) को बढ़ावा मिल सकता है। हालांकि, उन्होंने साफ कहा कि यह मुद्दा काफी जटिल है क्योंकि भारत और चीन के बीच कई बार सीमा विवाद हो चुके हैं। इसलिए निवेश को लेकर कदम सोच-समझकर उठाने होंगे।
राजन के अनुसार, यदि किसी सेक्टर में चीन पर अत्यधिक निर्भरता नहीं हो और उत्पादन भारत के भीतर हो, तो यह भारत के लिए ज्यादा फायदेमंद रहेगा। उन्होंने कहा कि बैटरी और इलेक्ट्रिक व्हीकल्स (EVs) जैसे क्षेत्रों में चीन काफी आगे है और भारत को इन क्षेत्रों से सीखने की जरूरत है। अगर चीनी एफडीआई को संतुलित और निगरानी में रखा जाए तो यह भारतीय उद्योग और क्षमताओं को मजबूत कर सकता है।
राजन ने सुझाव दिया कि भारत को चीन के साथ जॉइंट वेंचर (संयुक्त उद्यम) की संभावनाएं भी तलाशनी चाहिए। इससे चीन को भारतीय बाजार का फायदा मिलेगा और भारतीय कंपनियां भी उनसे तकनीक और अनुभव सीख सकेंगी। हालांकि, उन्होंने जोर दिया कि ये जॉइंट वेंचर वास्तविक होने चाहिए, केवल नाम के लिए नहीं।
उन्होंने कहा कि दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हमारे पड़ोस में है और अगर हम उससे पूरी तरह दूरी बना लेते हैं तो यह भी नुकसानदायक हो सकता है। हमें पूरी तरह अविश्वास और पूरी तरह विश्वास—इन दोनों के बीच का रास्ता चुनना होगा। राजन के अनुसार, यह “संतुलन” प्रयोगों के जरिए खोजा जा सकता है।
आप लंबे समय से प्रोडक्शन लिंक्ड इंसेंटिव (PLI) स्कीम के आलोचक रहे हैं। सरकार का कहना है कि इस स्कीम से निवेश आया है, लेकिन इसके लागू करने में कई चुनौतियाँ रही हैं। क्या आपको लगता है कि इसमें किसी तरह के बदलाव या सुधार की ज़रूरत है?
राजन ने कहा कि सरकार की योजनाओं और उनसे जुड़ी संख्याओं को लेकर अक्सर पारदर्शिता नहीं दिखाई देती। उनके अनुसार, असली समस्या यह है कि हमें ठीक-ठीक पता ही नहीं होता कि योजनाओं की शुरुआत किस आधार से हुई, उसमें वास्तविक अतिरिक्तता कितनी है और उस पर खर्च कितना हुआ। सरकार समय-समय पर आंकड़े तो जारी करती है, लेकिन यह समझना मुश्किल हो जाता है कि उनका वास्तविक मतलब क्या है।
राजन का मानना है कि बड़ी सरकारी योजनाओं के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष मूल्यांकन प्रक्रिया होनी चाहिए। इससे पता चल सके कि योजना ने शुरुआत में जो वादे किए थे, वह पूरे हुए या नहीं और देश को वास्तविक लाभ क्या मिला। उन्होंने कहा कि अभी तक कोई भी “क्लीन स्टडी” यानी स्वतंत्र शैक्षणिक संस्थान द्वारा तैयार की गई स्पष्ट रिपोर्ट उपलब्ध नहीं है।
उन्होंने उदाहरण देते हुए कहा कि मोबाइल फोन सेक्टर में बड़े निवेश आ रहे हैं, खासकर Apple से। लेकिन सवाल यह है कि यह निवेश Production Linked Incentive (PLI) स्कीम की वजह से है या फिर “चाइना प्लस वन” रणनीति का असर है। राजन ने कहा, “Apple भारत में उत्पादन कर रहा है, लेकिन यह ज्यादातर असेंबली तक सीमित है। भविष्य में इसमें सुधार की कोशिशें हो रही हैं, लेकिन क्या इसके लिए सब्सिडी जरूरी है? शायद Apple वैसे भी भारत आता क्योंकि यहां बड़ा बाजार है और उसे चीन से बाहर विकल्प चाहिए।”
राजन ने यह भी कहा कि कोई भी कंपनी सब्सिडी लेने से इंकार नहीं करेगी, लेकिन असली सवाल यह है कि क्या यह वही परिणाम दे रही है जिसकी हमें उम्मीद है। लंबे समय तक सिर्फ सब्सिडी पर निर्भर रहकर उत्पादन नहीं बढ़ाया जा सकता। उन्होंने जोर देकर कहा कि भारत को ऐसी नीतियों की ज़रूरत है जो उद्योगों को आत्मनिर्भर और टिकाऊ बना सकें।
एक बड़ी आईटी कंपनी ने 12,000 कर्मचारियों की छंटनी का ऐलान किया है। आपने पहले कहा था कि भारत को हाई-वैल्यू मैन्युफैक्चरिंग पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए। ऐसे में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के दौर में भारत के लिए आगे का रास्ता क्या होना चाहिए और नौकरियों का भविष्य कैसा होगा?
आईटी सेक्टर से जुड़ी एक बड़ी कंपनी ने हाल ही में 12,000 कर्मचारियों की छंटनी की घोषणा की है। ऐसे समय में सवाल यह उठता है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के दौर में भारत का रास्ता क्या होना चाहिए और नौकरियों का भविष्य किस दिशा में जाएगा। पूर्व आरबीआई गवर्नर रघुराम राजन का मानना है कि भारत को बहु-आयामी रणनीति अपनानी होगी।
रजन का कहना है कि सबसे पहले हमें उच्च स्तर पर अपने लोगों की स्किल बढ़ानी होगी। प्रोग्रामिंग का निचला हिस्सा अब AI से आसानी से हो रहा है, लेकिन असली चुनौती और अवसर उन लोगों के लिए है जो रचनात्मक तरीके से AI का इस्तेमाल कर सकें। यानी अलग-अलग हिस्सों को जोड़कर एक नया समाधान तैयार करना। इसके लिए ज्यादा कौशल और रचनात्मकता चाहिए, जिससे इंसान AI का विकल्प नहीं बल्कि उसका बेहतर उपयोगकर्ता बने।
उन्होंने कहा कि कंसल्टिंग, अकाउंटिंग जैसी सेवाओं में भी AI तेजी से आ रहा है। इसलिए जरूरी है कि हम हमेशा आगे रहें और इन क्षेत्रों में भी अपनी स्किल और रचनात्मकता बढ़ाएं। हालांकि, ये सेक्टर इतने बड़े पैमाने पर नौकरियां नहीं देंगे जितनी भारत को जरूरत है।
रजन के मुताबिक, हमें ऐसे कामों पर भी ध्यान देना होगा जिन्हें AI आसानी से रिप्लेस नहीं कर पाएगा। जैसे—प्लंबिंग, बढ़ईगिरी, राजमिस्त्री और कंस्ट्रक्शन का काम। भारत में शहरीकरण तेजी से बढ़ रहा है और इससे इन क्षेत्रों में लाखों नौकरियां पैदा होंगी।
इसके अलावा, पर्यटन एक ऐसा क्षेत्र है जो बेहद जॉब-इंटेंसिव है। अगर हम पर्यटन ढांचे को बेहतर बनाएं, छोटे शहरों में अच्छे होटल, एयरपोर्ट और आकर्षक रेलवे स्टेशन बनाएं, तो अधिक विदेशी पर्यटक भारत आएंगे और रोजगार के बड़े अवसर बनेंगे।
रजन ने यह भी कहा कि मैन्युफैक्चरिंग और कृषि उद्योग में भी बड़ी संख्या में नौकरियां पैदा की जा सकती हैं। भारत का घरेलू बाजार इतना बड़ा है कि हमें हर सेक्टर में एक्सपोर्ट पर ही निर्भर रहने की जरूरत नहीं है।
उनके अनुसार, भारत में इस समय एक “जॉब डेफिसिट” यानी नौकरियों की भारी कमी है। इसलिए देश को एक साथ कई मोर्चों पर काम करना होगा—चाहे वह उच्च कौशल वाले काम हों या मध्यम और कम कौशल वाले। तभी हम आने वाले समय में रोजगार सृजन की चुनौती का सामना कर पाएंगे।
भारत और ब्रिटेन के बीच हुए नए व्यापार समझौते के बाद टैरिफ घटाकर 3 फीसदी किया जा रहा है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या रघुराम राजन की राय के मुताबिक भारत को टैरिफ में कमी सभी देशों के लिए लागू करनी चाहिए?
भारत और ब्रिटेन ने हाल ही में एक व्यापार समझौते पर हस्ताक्षर किए हैं। इस डील के लागू होने के बाद भारत का औसत टैरिफ घटकर 3 फीसदी रह जाएगा। इस पर पूर्व RBI गवर्नर रघुराम राजन ने कहा कि टैरिफ में कमी को केवल कुछ देशों तक सीमित नहीं रखना चाहिए, बल्कि इसे व्यापक रूप से लागू करना जरूरी है।
राजन ने कहा कि भारत ने 1990 के दशक के आखिर और 2000 के शुरुआती वर्षों में अर्थव्यवस्था को खोलकर बड़ी प्रगति की थी। उस समय अलग-अलग सरकारों के दौर में भारतीय उद्योगों को अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ा, लेकिन उन्हें यह आत्मविश्वास भी मिला कि वे वैश्विक स्तर पर मुकाबला कर सकते हैं।
उन्होंने कहा कि पिछले कुछ वर्षों में टैरिफ बढ़ाने का रुझान देखा गया है, लेकिन असली दिशा टैरिफ कम करने की होनी चाहिए ताकि भारतीय उद्योग वैश्विक सप्लाई चेन में बड़ी हिस्सेदारी ले सकें। हालांकि, मौजूदा माहौल 2000 के दशक जैसा आसान नहीं है क्योंकि कई देशों में संरक्षणवाद बढ़ा है।
राजन का मानना है कि अगर भारत ज्यादा से ज्यादा सप्लाई चेन का हिस्सा बनता है और विदेशी कंपनियों को भरोसा दिलाता है कि उन्हें भारत के तेजी से बढ़ते बाजार तक पहुंच मिलेगी, तो यह भारत के लिए बड़ा फायदेमंद कदम होगा।
उन्होंने यह भी कहा कि टैरिफ में कमी सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं होनी चाहिए। भारत को यह अवसर सभी देशों को देना चाहिए ताकि वह किसी एक देश पर निर्भर न रहे। उन्होंने जोर दिया कि विविधता किसी भी देश की ताकत होती है और मौजूदा दौर में जब राष्ट्रवाद हर जगह उभर रहा है, ऐसे में अलग-अलग देशों के साथ संबंध बनाना भारत के लिए और भी जरूरी हो जाता है।
अर्थव्यवस्था की स्थिति पर आपका क्या नजरिया है? नीति-निर्माताओं का कहना है कि निजी कंपनियां पर्याप्त निवेश नहीं कर रही हैं। इसके पीछे क्या कारण हो सकते हैं और इस पर क्या किया जा सकता है?
राजन ने एक बार फिर भारत में निजी निवेश (Private Investment) न बढ़ने की समस्या पर चिंता जताई है। उन्होंने कहा कि यह कोई नई पहेली नहीं है। 2014-15 में जब वे आरबीआई में थे, तब भी यही सवाल था कि निजी निवेश क्यों नहीं बढ़ रहा। अब 10 साल बाद भी स्थिति लगभग वैसी ही है।
राजन का कहना है कि एक तर्क यह है कि निजी कंपनियां अब पहले की तुलना में ज्यादा कुशल हो गई हैं और कम पूंजी में भी ज्यादा काम कर लेती हैं। लेकिन 6 फीसदी की दर से अर्थव्यवस्था बढ़ने के लिए निवेश में इजाफा जरूरी है। असली कारण यह हो सकता है कि कंपनियां भरोसा नहीं कर पा रही हैं। वे भी विदेशी निवेशकों की तरह नीतियों में अचानक बदलाव या टैरिफ स्ट्रक्चर (Tariff Structure) को लेकर असमंजस में हैं।
उन्होंने कहा कि सरकार की ओर से बुनियादी ढांचे पर खर्च बढ़ने के बावजूद उद्योगों का निवेश उम्मीद के मुताबिक नहीं बढ़ा। हर बार कंपनियां वादा करती हैं कि अगली तिमाही या अगले साल निवेश बढ़ेगा, लेकिन आंकड़े कुछ और ही कहानी बताते हैं।
राजन ने सुझाव दिया कि अनिश्चितता कम करने के लिए सरकार को न केवल टैरिफ स्ट्रक्चर बल्कि नीतिगत ढांचे को लेकर भी भरोसा कायम करना होगा। साथ ही, उद्योग जगत को निवेश के लिए प्रेरित करना होगा। हालांकि उन्होंने साफ कहा कि इस समस्या का कोई आसान हल नहीं है।
राजन के अनुसार, सरकार को लगातार Ease of Doing Business पर ध्यान देना चाहिए, नियम-कायदों को सरल बनाना चाहिए और छोटे व मझोले उद्योगों (SMEs) को बढ़ावा देना चाहिए। यही कदम भविष्य में निवेश को बढ़ाने में सहायक हो सकते हैं।
कृषि क्षेत्र में नॉन-परफॉर्मिंग एसेट्स (NPA) बढ़ रहे हैं। क्या आपको लगता है कि कृषि ऋणों में बढ़ते NPA एक ‘टिक-टिक करता टाइम बम’ साबित हो सकते हैं?
रघुराम राजन ने कृषि क्षेत्र में बढ़ रहे NPA (Non-Performing Assets) को लेकर चिंता जताई है। उनका कहना है कि जब भी बैंकों और एनबीएफसी (NBFCs) का NPA स्तर कम होता है, तो उनकी जोखिम उठाने की क्षमता बढ़ जाती है। ऐसे में वे नए क्षेत्रों में ज्यादा कर्ज देने लगते हैं और कई बार पुरानी गलतियां दोहराने के साथ नई गलतियां भी कर बैठते हैं।
राजन के अनुसार, यही उधार देने का इतिहास रहा है—कभी इंफ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट्स को लेकर बुरे कर्ज बनते हैं, फिर बैंकों को वहां से पीछे हटना पड़ता है और NPA घट जाते हैं। लेकिन इसके बाद रिटेल लोन में तेजी से कर्ज दिया जाने लगता है और वहां भी समस्याएं सामने आ जाती हैं।
उन्होंने कहा कि कृषि ही नहीं, बल्कि अन्य सेक्टर्स में भी कुछ बैंकों और NBFCs में NPA बढ़ने के संकेत दिख रहे हैं। ऐसे में सतर्कता कम करने का जोखिम हम नहीं उठा सकते। राजन ने जोर दिया कि लोन की क्वालिटी और रिस्क मैनेजमेंट पर लगातार नजर रखना जरूरी है।
साथ ही उन्होंने चेतावनी दी कि बिना स्थिति को पूरी तरह समझे किसी भी तरह की सख्त कार्रवाई करने से विकास दर प्रभावित हो सकती है, क्योंकि क्रेडिट ग्रोथ का अहम हिस्सा है। उन्होंने भरोसा जताया कि रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (RBI) इस मुद्दे को बारीकी से देख रहा है।
अमेरिका ने हाल ही में क्रिप्टोकरेंसी से जुड़ा कानून पारित किया है। इसके विपरीत, भारत ने अब तक क्रिप्टो पर अपना रुख स्पष्ट नहीं किया है। ऐसे में पूर्व आरबीआई गवर्नर के तौर पर आपका क्रिप्टो पर क्या रुख है?
पूर्व आरबीआई गवर्नर ने क्रिप्टोकरेंसी पर अपनी राय रखते हुए कहा कि इसका समाज के लिए वास्तविक उपयोग अभी स्पष्ट नहीं है।
उन्होंने कहा कि कुछ देशों में, जहां स्थानीय मुद्रा पर भरोसा नहीं किया जाता, वहां लोग क्रिप्टो या स्टेबलकॉइन का इस्तेमाल करने लगते हैं। लेकिन भारत के मामले में यह स्थिति नहीं है क्योंकि रुपया भरोसेमंद मुद्रा है। महंगाई को नियंत्रण में रखने से इसकी स्वीकार्यता घरेलू और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बढ़ी है।
राजन ने चेतावनी दी कि भारत में क्रिप्टो का सबसे बड़ा खतरा इसे निवेश साधन मानकर सट्टेबाजी करना है। अक्सर युवा सीमित साधनों के बावजूद इसमें पैसा लगाते हैं, कई बार कर्ज लेकर भी निवेश करते हैं। यह स्थिति चिंता पैदा करती है।
राजन ने कहा, “सावधानी बरतना गलत नहीं है। लेकिन साथ ही यह भी सच है कि इस क्षेत्र में कुछ नई तकनीकें आ रही हैं, जो लेनदेन को और बेहतर बना सकती हैं। अमेरिका ने स्टेबलकॉइन बिल पारित किया है। इस पर बहस हो सकती है कि यह कितना उपयुक्त है, लेकिन इससे क्रिप्टो आधारित लेनदेन की संभावना बढ़ती है।”
उनके मुताबिक, क्रिप्टो को केवल सट्टा साधन के रूप में देखने के बजाय स्टेबलकॉइन को पेमेंट के तौर पर इस्तेमाल करना फायदेमंद हो सकता है। राजन ने कहा कि भारत को इस तकनीक के साथ कदम मिलाकर चलना चाहिए और दुनिया भर में चल रही सेंट्रल बैंक डिजिटल करेंसी (CBDC) की कोशिशों का हिस्सा बनना चाहिए।
राजन ने सुझाव दिया कि भारत को न तो क्रिप्टो पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाना चाहिए और न ही इसे पूरी तरह स्वीकार करना चाहिए। इसके बजाय तकनीकी प्रगति को ध्यान में रखते हुए संतुलित रुख अपनाना चाहिए। उन्होंने कहा कि कई भारतीय कंपनियां इस क्षेत्र के लिए आधारभूत ढांचा तैयार करने में लगी हैं, जिसे प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
क्या सरकार को क्रिप्टोकरेंसी पर अपना रुख साफ करना चाहिए?
भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर रघुराम राजन का मानना है कि सरकार को क्रिप्टोकरेंसी पर अपना रुख साफ करना चाहिए। उन्होंने कहा कि इस समय अस्पष्टता बनी हुई है, लेकिन इसका भी एक महत्व होता है। राजन के अनुसार बिना किसी नियम और नियंत्रण के लोगों को क्रिप्टो में निवेश करने की खुली छूट देना खतरनाक हो सकता है, जैसा कि अतीत में डेरिवेटिव मार्केट में देखने को मिला था।
रघुराम राजन ने कहा कि बेहतर होगा कि सरकार इस क्षेत्र को समझे, जहां ज़्यादा फायदे की संभावना है वहां नियम बनाए और धीरे-धीरे खुलापन दे। उन्होंने चेतावनी दी कि पूरी तरह ‘लेसे-फेयर’ (पूरी आज़ादी) का रवैया नुकसानदेह हो सकता है।
उन्होंने कहा कि इस पर चर्चा जरूरी है और अलग-अलग पक्षों को साथ लेकर समझ बनानी होगी, क्योंकि क्रिप्टोकरेंसी रातों-रात गायब नहीं होने वाली। यह अंत में नुकसान भी पहुंचा सकती है और हो सकता है कि इससे ऐसी नई तकनीकें भी सामने आएं जिनकी ओर वित्तीय क्षेत्र बढ़े।
राजन ने कहा, “जैसा कि अमेरिका में बड़े बैंक भी डिजिटल एसेट क्षेत्र में उतरने पर विचार कर रहे हैं, वैसे ही हम हमेशा सिर छिपाकर नहीं बैठ सकते। हमें एक संतुलित और बारीकी से तैयार किया गया रुख अपनाना होगा। थोड़ा जोखिम लेना पड़ेगा, लेकिन बहुत ज़्यादा नहीं।”