डॉलर के मुकाबले रुपये की मजबूती के कारण बहुत से बैंकों ने निर्यातकों से आग्रह किया है कि वे दिसंबर 2007 के अंत में किए गए डॉलर-रुपये विकल्प को इस वित्तीय वर्ष के खत्म होने से पहले निपटा लें।
डीलरों के मुताबिक डॉलर की तुलना में रुपये की मजबूती को देखते हुए बहुत सारे निर्यातकों ने डॉलर-रुपये विकल्प का सहारा लिया था ताकि उसकी जमा पूंजी में ज्यादा अंतर न हो।इस तरह के अनुबंध तब किए गए थे जब एक डॉलर की कीमत 39.50 रुपये थी, जबकि जनवरी-फरवरी 2008 में रुपया मजबूत होकर 40.70 रुपये पहुंच गया था।
एक डीलर के मुताबिक उस समय निर्यातकों को यह एहसास नही था कि रुपये में इतनी मजबूती आ जाएगी। रुपया-डॉलर विकल्प एक प्रकार का ऐसा डेरिवेटिव उत्पाद है। बहुत सारी कंपनियों ने इस तरह के विकल्प का इस्तेमाल किया था, जिससे उन्हें डॉलर की अधिकतम कीमत मिली थी अर्थात् जब डॉलर की कीमत 39.50 रुपये थी तब यह उन कंपनियों को 39.70 रुपये के हिसाब से मिला था।
जबकि मुद्राओं की गंगा उल्टी बहनी शुरू हो गई थी और रुपये का गिरना आरंभ हो गया था और यह विकल्प घाटे में जाने लगा था। जनवरी 2008 के बाद जब विदेशी संस्थागत निवेशकों ने अपने लगाए गए पैसों को भारतीय इक्विटी से निकालना शुरू किया तो रुपये में एकाएक तेजी आ गई थी। इस डॉलर विकल्प के अलावा एक संरचना ने कंपनियों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था।
यह संरचना लिबोर-संबद्ध (लंदन इंटर बैंक ऑफर्ड रेट) है, जिसमें ब्याज की तरलता में डॉलर को बतौर ऋण देने के बाद बढ़ जाती है। डीलरों के मुताबिक कंपनियों ने ब्याज दरों के साथ मुद्राओं से जुड़े जोखिमों से बचने के लिए इस तरह के विकल्पों का सहारा लेना शुरू किया । कंपनियों ने इस तरह की विकल्पों के जरिये मुद्रा की तरलता के बजाय उसकी स्थिरता पर ज्यादा ध्यान देना शुरू किया।
अगर डॉलर लिबोर के बदले स्टर्लिंग लिबोर में परिवर्तन किया जाए तो ब्याज दरों में होने वाले जोखिमों से इन विकल्पों के जरिये बचा जा सकता है। डॉलर लिबोर 2007 में 5.07 प्रतिशत पर पहुंच गया जबकि 2005 में यह 3.13 प्रतिशत था। इसी अवधि में स्टर्लिंग लिबोर जो 5.07 प्रतिशत था और इस अवधि में घटकर 4 से 4.66 प्रतिशत हो गया है। जबकि दरों में स्थिरता के कयास के विपरीत स्टर्लिंग लिबोर 6 प्रतिशत तक पहुंच गया ।
लिबोर एक अंतरराष्ट्रीय ब्याज दरों के निर्धारण का एक मानक है। कंपनियां अब इन संरचनाओं के कारण डॉलर जैसी मुद्राओं के अब फ्रैंक या पाउंड को इस तरह की ब्याज दरों में तरजीह देने का मन बना रही है। कोई भी बैंक अब इस तरह के घाटे को सहन कर पाने की स्थिति में नहीं है।