प्रतिभूतिकरण आधुनिक वित्तीय व्यवस्था का एक मूल्यवान तत्त्व है। भारतीय परिस्थितियों में और खासतौर पर मौजूदा भारतीय हालात में यह उपयोगी है। वर्ष 2008 के संकट के पहले अमेरिका में प्रतिभूतिकरण में कुछ गलतियां हुई थीं। इसके उपायों के बारे में भी जानकारी उपलब्ध है। भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) उपयोगी चरणबद्ध प्रक्रिया में है जहां वह नियामकीय कठिनाइयों को हल कर रहा है। इस दिशा में और काम करने की आवश्यकता है। खासतौर पर कराधान के क्षेत्र में। ऐसा करके ही उन गतिरोधों को समाप्त किया जा सकता है जो निजी व्यक्तियों को रोके हुए हैं। केंद्रीय नियोजन और बाजार की विफलता को हल करने के बीच एक अहम रेखा है।
एक ऐसी फर्म पर विचार कीजिए जिसने 10 लाख रुपये मूल्य के 1,000 आवास ऋण दिए हों। इसके प्रतिभूतिकरण के लिए इसे एक अरब रुपये के परिसंपत्ति पूल में तब्दील करना होगा। इसे प्रतिभूतियों के रूप में एक अरब हिस्सों में बांटें और एक अस्पष्ट अनकदीकृत परिसंपत्ति में बदलें जो प्रतिभूति बाजार में नकदीकरण और पारदर्शिता के साथ कारोबार करती हो।
कुल 1,000 आवास ऋण से आने वाली नकदी को दो तरह की प्रतिभूतियों में निर्देशित किया जा सकता है: पहली वरिष्ठ यानी जिन्हें पहले नकदी मिले और दूसरी अधीनस्थ जिन्हें वरिष्ठ प्रतिभूतियों के बाद बची हुई नकदी मिलती। उसके पश्चात अधीनस्थ प्रतिभूति ही तमाम ऋण जोखिम वहन करती है जबकि वरिष्ठ प्रतिभूति पूरी तरह सुरक्षित रहती हैं। ऐसा करके हम 1,000 आवास ऋण के समूह को एक उच्च जोखिम और कम जोखिम वाली प्रतिभूति में बदल देते हैं। यह उदाहरण आवास ऋण के संदर्भ में दिया गया है लेकिन प्रतिभूतिकरण कई प्रकार की परिसंपत्तियों में किया जा सकता है। सबसे अहम है वह सीमा हासिल करना जिस पर विभिन्न परिसंपत्तियों की पूलिंग करके प्रतिभूति बाजार में नकदीकरण किया जा सके।
प्रतिभूतिकरण के बारे में बुनियादी रूप से प्रेरणा इस विचार से मिली कि बैंक उच्च नकदीकरण वाली फर्म होते हैं। जैसा कि नोबेल पुरस्कार विजेता मर्टन मिलर कहते भी हैं, बैंक 19वीं सदी के वे उद्याोग हैं जो काफी अधिक जोखिम की आशंका वाले होते हैं। प्रतिभूतिकरण वह तरीका है जिसके माध्यम से बैंक अपनी शाखाओं का इस्तेमाल करते हैं, ऋण वितरित करते हैं और उसके बाद प्रतिभूतियों को संस्थागत निवेशकों को बेच दिया जाता है। संस्थागत निवेशकों को उच्च जोखिम और कम जोखिम वाली बॉन्ड जैसी परिसंपत्तियों में चयन करना होता है।
बैंकों को लाभ होता है क्योंकि उन्हें आवास ऋण देने के कारण सेवा शुल्क मिलता है। परंतु वे भी परिसंपत्ति को लंबे समय तक रखकर बैलेंस शीट का आकार बढ़ाने से बचते हैं। भारतीय संदर्भ में बात करें तो कुछ महत्त्वपूर्ण पहलू ऐसे भी हैं जहां प्रतिभूतिकरण उपयोगी उपाय साबित हो सकता है। सॉवरिन गारंटी के कारण सरकारी बैंकों को भारी जमा मिलता है, वे आसानी से ऋण भी नहीं देते। यदि वे प्रतिभूतिकृत परिसंपत्ति खरीदेंगे तो इससे उनकी परिसंपत्तियों का सही इस्तेमाल होगा।
देश का बड़ा हिस्सा औपचारिक वित्तीय तंत्र से बाहर है। कई नवाचारी कारोबारी मॉडल जिसमें वित्तीय तकनीक के नवाचार शामिल हैं, निजी फर्म बना सकती हैं। उन्हें ओरिजनेटर कहा जाता है जिसका अर्थ कोई चीज तैयार करने वाले। वे पूरे भारत में घरों और छोटी कंपनियों को ऋण दे सकती हैं। प्रतिभूतिकरण एक अहम तकनीक है जिसकी सहायता से इन परिसंपत्तियों की फंडिंग मुंबई के थोक ऋण बाजार से की जा सकती है। ऐसी स्थिति में इन नवाचारियों को व्यापक बैलेंस शीट बनाने की आवश्यकता नहीं होगी। जब कोई विदेशी निवेशक भारतीय प्रतिभूतिकरण पत्र खरीदता है तो यह एक तरीका है जिसके माध्यम से वह उन कठिनाइयों से बचता है जो देश के वित्तीय तंत्र के अहम हिस्से को प्रभावित कर सकती हैं। आज के भारत में आम परिवारों और छोटी कंपनियों की बैलेंस शीट दबाव में है और ये गतिवधियां अहम हो सकती हैं।
सन 2008 के संकट में अमेरिका में प्रतिभूतिकरण में कुछ गड़बडिय़ां हुईं। प्रतिभूतिकरण प्रपत्र के निवेशकों ने क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों की मदद से उनका विश्लेषण किया और रेटिंग पर आंख मूंदकर भरोसा किया। परंतु पता चला कि क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने वह काम नहीं किया जिसकी उनसे अपेक्षा थी। जब क्रेडिट रेटिंग एजेंसियों ने ओरिजनेटर के व्यवहार की जांच नहीं की तो खराब ऋण देकर उन ओरिजनेटर ने काफी लाभ कमाया। इन दिक्कतों को दो तरह से हल किया जा सकता है। पहला, पहले नुकसान का थोड़ा सा हिस्सा ओरिजनेटर को वहन करना चाहिए। उदाहरण के लिए अगर उसे पूल के पहले 5 फीसदी के लिए संपूर्ण डिफॉल्ट का सामना करना पड़ता है तो इससे यह तय होता है कि ओरिजनेटर आगे आसानी से ऋण नहीं देगा। दूसरी राह यह है कि अंतिम निवेशक के लिए सूचना तक पहुंच बेहतर की जाए। कंप्यूटर युग में यह संभव है कि ओरिजनेटर और निवेशक सूचना का दैनिक प्रसार सुनिश्चित करें। उसके माध्यम से निवेशक नियमित रूप से पूल के प्रदर्शन के बारे में जानकारी हासिल कर सकता है।
ऋण को संगठित बनाने के इन तमाम लाभों के बावजूद ओरिजनेटर और संस्थागत विदेशी निवेशकों समेत तमाम निवेशकों का देश में उद्भव अब तक उल्लेखनीय नहीं रहा है। हाल के महीनों में आरबीआई ने विशेषज्ञ समिति की दो रिपोर्ट के माध्यम से अच्छी प्रगति की है। उसने प्रतिभूतिकरण के नियमन का मसौदा भी तैयार किया है जो कई तरह के चरणबद्ध सुधार को अंजाम देता है। अर्थव्यवस्था में व्याप्त कठिनाइयों को देखें तो यह काम काफी अहम है। बैंकों या एनबीएफसी पर आरबीआई का नियमन जहां प्रतिभूतिकरण को आकार देता है वहीं कई अन्य बाधाएं हैं जो कर, पूंजी नियंत्रण, नियमन और कानून के कारण सामने आती हैं। देश के वित्तीय सफर में नीतिगत परिदृश्य बाधाओं से भरा रहा है। नीतिगत काम के कई हिस्से ऐसे हैं जिन्हें बाजार गतिविधियों के अहम उभार के पहले अंजाम देना होता है। वित्त मंत्रालय को इस पहेली के तमाम टुकड़ों को सुसंगत तरीके से बिठाते हुए हल करना होगा। खासतौर पर कर नीति को लेकर। उसे इन सबके साथ समन्वित प्रगति करनी होगी।
नियम निर्माण, कारोबारी मॉडल तय करने आदि को लेकर एक किस्म का आकर्षण है जिसका प्रतिरोध किया जाना चाहिए। प्रतिभूतिकरण के साथ नीति को लेकर केवल दो बड़े विचार हैं। पहला ओरिजनेटर मजबूत हों और निवेशकों के पास जानकारी हो। इसके अलावा निजी फर्मों को बेहतर पता है कि कारोबार को कैसे संगठित करना है।
(लेखक नैशनल इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक फाइनैंस ऐंड पॉलिसी, नई दिल्ली में प्रोफेसर हैं।)
