दूरसंचार क्षेत्र के 25 सालों के सफर में इस क्षेत्र में कदम रखने वाले बड़े उद्योगपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए सबसे अच्छा वक्त भी आया और इस क्षेत्र में दांव लगाने वालों को सबसे खराब दौर का सामना भी करना पड़ा। एक तरफ एस्सार के रुइया बंधु, अजय पीरामल, मैक्स इंडिया के प्रवर्तक अनलजित सिंह, ब्रिटेन में मौजूद हिंदुजा बंधु और स्पाइस ग्रुप के प्रवर्तक बी के मोदी जैसे चतुर कारोबारी निवेशक भी थे जिन्होंने पहली बार निवेश कर सही समय पर दांव लगाया और सही वक्त पर अच्छा पैसा बनाकर मोबाइल दूरसंचार सेवाओं के क्षेत्र से बाहर भी निकल गए।
वहीं दूसरी ओर देश के मशहूर कारोबारी घराना टाटा, अनिल अंबानी जैसे उद्योगपति, बहुराष्ट्रीय कंपनियों में मैक्सिस के मलेशियाई उद्योगपति टी आनंद कृष्णन (जिन्होंने एयरसेल में निवेश किया था), सिस्तेमा और नॉर्वे की कंपनी टेलीनॉर को अपने घाटे में कटौती करने के लिए बाध्य होना पड़ा और कारोबार के लिए एक बेहतर माहौल बनाने में नाकाम रहने के बाद आगे का रास्ता देखना पड़ा।
उन दिनों कई कारोबारी दिग्गजों के लिए वोडाफोन इंडिया (पहले हचिसन-एस्सार) सोने की खान थी। उस वक्त देश के प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (एफ डीआई) नियमों से यह बात सुनिश्चित हुई थी कि विदेशी दूरसंचार कंपनियों को एक या दो भारतीय निवेशकों की आवश्यकता होगी ताकि यह तय हो सके कि उन्हें अपना कारोबार चलाने के लिए सबसे अधिक हिस्सेदारी की जरूरत होगी। इनमें से एक अगर अपनी हिस्सेदारी बेचना चाहता तो उसकी जगह दूसरे भारतीय कारोबारी घराने को लेना पड़ता था। शुरुआत में दूरसंचार क्षेत्र में 49 प्रतिशत तक के एफ डीआई की अनुमति थी जिसे 2005 में बढ़ाकर 74 फ ीसदी किया गया और 2013 में इसे 100 प्रतिशत तक कर दिया गया।
दूसरे स्तर पर, हचिसन और इसकी भागीदार कंपनी एस्सार ने अधिग्रहण के जरिये एक अखिल भारतीय स्तर का परिचालक बनने के लिए एक आक्रामक योजना तैयार की थी जिससे हिंदुजा जैसे भारतीय कारोबारियों को मौका मिला था। यहां तक कि आइडिया और भारती एयरटेल ने भी इसी समान रास्ते का इस्तेमाल उन जगहों पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराने की कोशिश की जहां उनकी मौजूदगी नहीं थी।
रुइया का संयुक्त उपक्रम हचिसन के साथ था और वे इस खेल में उस्ताद थे। जब हचिसन ने 2007 में वोडाफोन को अपनी हिस्सेदारी बेची तो रुइया ने अपनी 33 फ ीसदी हिस्सेदारी जारी रखी और एक पुट ऑप्शन रखा जिसे वे बाद में बेच सकते थे। बाद में उन्होंने ऐसा ही किया और एक साल के बाद इसे ब्रिटेन की कंपनी को 5 अरब डॉलर से अधिक की राशि में बेच दी और इसे कंट्रोल प्रीमियम के रूप में 40 करोड़ डॉलर की अतिरिक्त नकद राशि भी मिली। कंट्रोल प्रीमियम एक ऐसी राशि है जो खरीदार कभी-कभी सार्वजनिक रूप से कारोबार करने वाली कंपनी के मौजूदा बाजार मूल्य से अधिक का भुगतान करने के लिए तैयार होता है ताकि उस कंपनी में एक नियंत्रित हिस्सेदारी हासिल की जा सके। इस पैसे का इस्तेमाल स्टील, रिफ ाइनिंग, ऊर्जा और अन्य उद्योगों में समूह के 18 अरब डॉलर के विस्तार कार्यक्रम के लिए किया गया था।
अनलजित सिंह ने महानगरों के लाइसेंस के लिए बोली लगाने के लिए हचिसन के साथ संयुक्त उपक्रम बनाया और जब निजी क्षेत्र के लिए मोबाइल सेवाएं शुरू की गईं तो इसे मुंबई पाने में जीत हासिल हुआ। हालांकि सिंह ने एक साक्षात्कार में कहा था कि उन्हें जल्द ही अहसास हो गया कि यह बड़ी रकम का खेल है और यहां ज्यादा पैसे की मांग होगी इसीलिए उन्होंने अपनी 41 फ ीसदी हिस्सेदारी 1998 में अपने साझेदार को 561 करोड़ रुपये में बेच दी। फि र सात साल बाद उन्होंने मुंबई सहित विभिन्न लाइसेंसों वाली कंपनी हचिसन-एस्सार में रुइया की लगभग 3.16 प्रतिशत की बाकी हिस्सेदारी भी 657 करोड़ रुपये से अधिक रकम में बेच दी। लेकिन बात यहीं नहीं थमी बल्कि अनलजित सिंह ने 2006 में फि र से हचिसन एस्सार में कोटक बैंक की सहायक कंपनियों और प्रवर्तक समूह की कंपनियों की 8.3 प्रतिशत हिस्सेदारी करीब 1019 करोड़ रुपये में खरीद ली। तीन साल बाद फि र से उन्होंने इस हिस्सेदारी का एक हिस्सा 533 करोड़ रुपये में और अपनी पूरी हिस्सेदारी वोडाफोन को 1241 करोड़ रुपये में बेच दी।
वोडाफोन इंडिया के जरिये अप्रत्याशित फ ायदा पाने वालों में तीसरे खिलाड़ी अजय पीरामल थे। वर्ष 2012 में पीरामल ने दूरसंचार कंपनी में 11 फ ीसदी हिस्सेदारी 5,864 करोड़ रुपये में खरीदी थी ताकि ब्रिटेन की कंपनी एफ डीआई नियमों का पालन कर सके। लेकिन नियमों में संशोधन कर एफ डीआई सीमा 100 प्रतिशत तक बढ़ा दी गई जिसके बाद पीरामल ने अपने निवेश पर 52 फ ीसदी प्रतिफल के साथ अपनी पूरी हिस्सेदारी बेच दी ।
निश्चित रूप से हचिसन के अलावा अन्य प्रतिस्पर्धी दूरसंचार कंपनियां थीं जिन्होंने अधिग्रहण को अपने दायरे का तेजी से विस्तार करने के तरीके के रूप में भी देखा। मिसाल के तौर पर, आइडिया ने छह दूरसंचार सर्कल में एस्कॉट्र्स के मोबाइल कारोबार को 350 करोड़ रुपये में खरीदा। कंपनी ने बी के मोदी के स्पाइस ग्रुप के साथ भी एक करार किया ताकि वह उस कंपनी में अपनी हिस्सेदारी 2720 करोड़ रुपये में खरीद सके जो पंजाब और कर्नाटक के बाजारों में अपना संचालन कर रही थी जहां इसका कोई काम नहीं होता था। मोदी ने भारती एयरटेल के साथ भी एक सौदा किया जिसने कोलकाता में अपने मोबाइल कारोबार को 9 करोड़ डॉलर में खरीदा। बहुराष्ट्रीय कंपनियां इतनी भाग्यशाली नहीं थीं। रूस की बड़ी कंपनी सिस्तेमा ने 2010 में एमटीएस सीडीएमए सेवाओं की शुरुआत की थी और इसने 3.5 अरब डॉलर से अधिक का निवेश किया था लेकिन आरकॉम के साथ विलय के बाद इसे अपने निवेश को बट्टे खाते में डालना पड़ा। इसी तरह नॉर्वे के टेलीनॉर ने करीब 3 अरब डॉलर का निवेश किया था लेकिन भारतीय कारोबार को लेकर इसने 9300 करोड़ रुपये से अधिक के नुकसान की बात की। लेकिन जब टेलीनॉर ने भारती को अपनी संपत्ति बेची तो उसे बदले में कोई नकदी नहीं मिली और वह मौजूदा एजीआर मांगों जैसे किसी भी लंबित बकाये का भुगतान करने के लिए सहमत हो गई।
जहां तक मलेशियाई उद्योगपति टी आनंद कृष्णन की बात है तो उन्हें एयरसेल में अपने निवेश की रकम का 7 अरब डॉलर से अधिक गंवाना पड़ा और जब यह एनसीएलटी गई तब एक नया खरीदार मिला। जाहिर है एयरसेल एक मोबाइल सेवा कंपनी के रूप में काम नहीं करेगी लेकिन यह कुछ परिसंपत्ति को भुनाएगी।
देश के कारोबारी घराने की बात करें तो टाटा ने भी दूरसंचार में कदम रखने की कोशिश की लेकिन सफ ल नहीं रही। टाटा को अपनी कंपनी टाटा टेलीसर्विसेज में एक साझेदार के रूप में एक बड़ी जापानी कंपनी का साथ मिला जिसने हिस्सेदारी लेने के लिए 13,000 करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान किया। लेकिन जब टाटा टेलीसर्विसेज एयरटेल को बेच दी गई तब फि र से इस सौदे के लिए विक्रेता को कोई नकद भुगतान नहीं किया गया। टाटा को डोकोमो का भी भुगतान करना पड़ा था जिसने कंपनी में अपनी हिस्सेदारी छोडऩे और बेचने का फैसला किया। 2018 में नियामक को दी गई जानकारी के आधार पर टाटा संस ने टाटा टेलीसर्विसेज में अपने 28,600 करोड़ रुपये से अधिक के निवेश को बट्टा खाते में डाल दिया है। इतना ही नहीं उच्चतम न्यायालय के आदेश के आधार पर उसे एजीआर बकाये का करीब 14,000 करोड़ रुपये का भुगतान करना है। हालांकि कंपनी इस राशि में से 4197 करोड़ रुपये से अधिक का भुगतान सरकार को कर चुकी है।
उद्योगपति अनिल अंबानी को भी आरकॉम के जरिये नुकसान झेलना पड़ा। उनके पास अपनी परिसंपत्तियों को बेचने और अपने कर्ज का भुगतान करने की कोशिश के तौर पर एनसीएलटी में जाने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा था। इसके लिए उन्होंने जियो के साथ एक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे जो नियामकीय चुनौतियों के कारण आगे नहीं बढ़ सका। उन्होंने एयरसेल में विलय की कोशिश भी की लेकिन यह सफ ल नहीं रहा। कर्ज देने वालों की एक समिति ने पहले ही 23,000 करोड़ रुपये की प्रस्ताव योजना के जरिये कंपनी की परिसंपत्तियों के लिए एक खरीदार ढूंढ लिया है लेकिन हकीकत यह है कि बैंकरों के पास नुकसान सहने के अलावा और कोई विकल्प नहीं होगा।