ग्वालियर के एक निजी एफएम स्टेशन ‘रेडियो चस्का’ के प्रमोटर-डॉयरेक्टर तरुण गोयल से जब आप बात करेंगे तो आपको एक पल के लिए भी इस बात का एहसास नहीं होगा कि आज से महज एक साल पहले जो रेडियो इंडस्ट्री (आकाशवाणी और एफएम चैनल) 800 करोड़ रुपये की कमाई कर रही थी, आज उसकी विकास दर 30 फीसदी से घटकर 10 से 12 फीसदी रह गई है।
दूसरे शब्दों में कहें तो मौजूदा आर्थिक मंदी से गोयल डगमगाए नहीं हैं बल्कि उल्टे वह खुश हैं। एक पल के लिए मान भी लेते हैं कि रेडियो पर सिकुड़ते विज्ञापनों को लेकर गोयल थोड़े नर्वस भी होंगे लेकिन मजे की बात है कि उन्हें देखकर आप इस बात का कतई भी अंदाजा नहीं लगा सकते हैं।
गोयल सिर्फ एक एफएम स्टेशन के मालिक हैं और उन्हें मीडिया कारोबार के बारे में कोई पूर्व अनुभव भी नहीं है (परिवार मध्य प्रदेश में एक रियल एस्टेट का मालिक है), लिहाजा आपको एक पल के लिए यह भी लग सकता है कि आखिर वह कह क्या रहे हैं। वह बताते हैं कि यह सही है कि राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले विज्ञापन खर्चों में कमी आई है लेकिन अब वह अपनी कमाई को बढ़ाने के लिए स्थानीय विज्ञापनदाताओं का इस्तेमाल कर रहे हैं।
गोयल जो कि सिर्फ एक एफएम स्टेशन का देखभाल कर रहे हैं वहीं इसके विपरीत रिलायंस-एडीएजी रेडियो नेटवर्क के बिग एफएम के वरिष्ठ उपाध्यक्ष (उत्तर और पश्चिम) हिमांशु शेखर 26 रेडियो चैनलों की देखरेख कर रहे हैं। लेकिन बजाय राष्ट्रीय विज्ञापन अभियानों को देखने के हिमांशु शेखर भी स्थानीय विज्ञापनदाताओं की ओर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
बिग एफएम मेट्रो सहित विभिन्न शहरों में 44 एफएम स्टेशनों का परिचालन कर रही है। शेखर बताते हैं कि पिछले छह महीने के लिए नेटवर्क छोटे स्टेशनों में ही अपना दमखम लगा रहा है। शेखर ने बताया कि गैर-मेट्रो बाजारों में 40-50 फीसदी विज्ञापन स्थानीय ब्रांडों से आता है।
इसमें कोई शक नहीं कि रेडियो इंडस्ट्री के विज्ञापन कारोबार में पिछले एक साल के दौरान बहुत बदलाव देखने को मिल रहा है। एक समय वह भी था जब एफएम रेडियो नेटवर्कों को राष्ट्रीय अभियानों से 75 फीसदी विज्ञापन मिलते थे और उसके मुकाबले स्थानीय विज्ञापनदाताओं से महज एक चौथाई विज्ञापन ही मिलता था। यह अनुपात ब्रिटेन और अमेरिका जैसे बाजारों में उल्टा है।
शेखर ने बताया, ‘जब सब कुछ ठीक चल रहा था तब सभी लोग राष्ट्रीय कॉर्पोरेट विज्ञापनों पर ध्यान केंद्रित कर रहे थे, जो कि अमूमन बहुत ज्यादा फलदायी नहीं था।’ खैर अब तो कम फलदायी वाला विज्ञापन ही नहीं उपलब्ध है और ऐसा इसलिए भी हुआ है क्योंकि इस वक्त बड़े राष्ट्रीय ब्रांडों के विज्ञापन और मार्केटिंग बजट दबाव में है।
यही वजह है कि एफएम नेटवर्कों के पास विज्ञापन के लिए दिल्ली और मुंबई स्थित मीडिया प्लानर्स के इतर भी झांकने की जरूरत आ पड़ी है। स्थानीय विज्ञापनों को हासिल करने के लिए लोकल सेल्स टीमों को मजबूत बनाया गया है। इसके पीछे तर्क यह है कि अमूमन छोटे शहरों में भी कम से कम 10 से 15 फीसदी व्यापारिक संगठन ऐसे हैं जो फिलहाल अपना विज्ञापन नहीं कर रहे हैं।
उदाहरण के लिए आप जालंधर, चंडीगढ़ और पटियाला को ही ले लीजिए, वहां बिग एफएम ने क्षेत्र के सबसे तेजी से उभरते खाद्य प्रसंस्करण उद्योग को लेकर विज्ञापन शुरू किया है। वनस्पति जैसे अन्य स्थानीय विनिर्माण उद्योग भी इस ओर आकर्षित हो रहे हैं। यहां दिलचस्प बात यह भी है कि कुछ विज्ञापनदाताओं की श्रेणी ऐसी है कि जो कुछ खास क्षेत्रों में ही विज्ञापन देते हैं।
मामूल हो कि जब से अधिकांश पंजाबियों ने विदेशों में जाना शुरू किया है तब से उनकी मांगों को पूरा करने और सेवाएं मुहैया कराने के लिए कई एजेंसियों का आगमन हुआ है और अब आलम यह है कि ये रेडियो के सबसे बड़े विज्ञापनदाता के रूप में उभर रहे हैं। इसी तरह पंजाब, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों के विभिन्न शहरों में शिक्षा सेवाएं भी एक बड़े विज्ञापनदाता के रूप में उभर रहा है।
इसी श्रेणी में विद्यालय, पेशेवर प्रशिक्षण केंद्र और साथ ही तेजी से विकास करती कोचिंग क्लासेज (इंजीनियरिंग और मेडिकल के प्रवेश परीक्षा की तैयारी के लिए) भी शामिल हैं। दैनिक जागरण समाचारपत्र समूह की स्वामित्व वाली रेडियो मंत्रा के निदेशक राहुल गुप्ता ने बताया कि गोरखपुर में प्राइवेट टयूटर भी रेडियो पर विज्ञापन देते हैं।
अब आलम यह है कि रेड एफएम जैसे मेट्रो-केंद्रित खिलाड़ी भी अपनी कमाई को बढ़ाने के लिए स्थानीय रिटेल ब्रांडों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। दिल्ली, मुंबई और कोलकाता में अपनी उपस्थिति दर्ज की हुई रेड एफएम के सीओओ अब्राहम थॉमस ने बताया कि अब कंपनी स्थानीय बाजार में रियल एस्टेट, रिटेल और शिक्षा ब्रांडो पर ध्यान केंद्रित कर रही है।
उन्होंने बताया कि मेट्रो में रेडियो इंडस्ट्री का विकास स्थिर है जबकि छोटे शहर बहुत तेजी से विकास कर रहे हैं। हालांकि रेडियो सिटी की मुख्य कार्यकारी अधिकारी अपूर्वा पुरोहित इस बात से बिल्कुल भी सहमत नहीं हैं कि स्थानीय विज्ञापन ही एकमात्र रास्ता है। वह कहती हैं कि रेडियो पर स्थानीय विज्ञापन महज 20 से 30 फीसदी ही है।
बहरहाल, इस बात को समझना मुश्किल नहीं है कि छोटे शहरों के विज्ञापनदाताओं के लिए रेडियो एक मजबूत माध्यम है। रेडियो परामर्शदाता सुनील कुमार बताते हैं, ‘सही अर्थों में कहा जाए तो रेडियो स्थानीय लोगों के लिए जबरदस्त माध्यम है। यह शहर की वास्तविक संस्कृति और स्वरूप को उकेरता है।’
दूसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि रेडियो पर अपेक्षाकृत सस्ता विज्ञापन होता है। रेडियो पर विज्ञापन स्थानीय प्रिंट, स्थानीय केबल या फिर आउटडोर विज्ञापन से अपेक्षाकृत सस्ता होता है। छोटे शहरों में सुबह के प्राइम-टाइम के शो में 10 सेकंड के विज्ञापन के लिए 50 से 350 रुपये चार्ज किया जाता है। हालांकि इस दौरान विज्ञापन की दरें स्टेशन की प्रसिध्दि पर भी निर्भर करती है।
