उद्योग

असंगठित उद्योग कोल्हापुरी चप्पल की कमजोर कड़ी

आज कोल्हापुरी चप्पल का कारोबार लगभग 200 करोड़ रुपये का है और यहां से लगभग 25 से 50 करोड़ रुपये के चप्पल निर्यात किए जाते हैं।

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शार्लीन डिसूजा   
Last Updated- May 01, 2024 | 10:39 PM IST

महाराष्ट्र के कोल्हापुर शहर के बीचो-बीच सड़क के दोनों ओर सजीं चप्पलों की दुकानों में लगातार ग्राहकों की आवाजाही हो रही है। इस व्यस्त लेकिन संकरी सड़क को दुनियाभर में मशहूर कोल्हापुरी चप्पलों का गढ़ कहा जाता है। जिलेभर में कोल्हापुरी चप्पलों की लगभग 4,000 दुकानें हैं, जिन्हें सरकार ने ‘एक जिला, एक उत्पाद’ योजना के तहत चिह्नित किया है। यहां की अधिकांश दुकानें पांच दशक से भी अधिक पुरानी हैं। तीन-चार पीढि़यों से चप्पलों का ही कारोबार हो रहा है।

आज कोल्हापुरी चप्पल का कारोबार लगभग 200 करोड़ रुपये का है और यहां से लगभग 25 से 50 करोड़ रुपये के चप्पल निर्यात किए जाते हैं। जिलेभर में करीब 10,000 लोग इस पेशे से जुड़े हैं। विक्रेताओं की तरह कोल्हापुरी चप्पलों को बनाने वाले कारीगर भी बहुत-बहुत पुराने हैं। कई घरों में तो पीढि़यों से यही काम होता चला आ रहा है। अधिकांश दुकानदार कारीगरों से सीधे चप्पल खरीदते हैं। कुछ दुकानदार ऐसे भी हैं, जिन्होंने अपने यहां कारीगरों को काम पर रखा है और वे अपने यहां चप्पल तैयार कराते हैं।

आदित्य राजेंद्र कदम (32) के कोल्हापुरी चप्पल स्टोर नवयुग में 12 कर्मचारी काम करते हें। इसके अलावा उनकी अपनी छोटी फैक्टरी में भी छह कारीगर लगे हैं, जो लगातार चप्पल तैयार करते रहते हैं। कदम कहते हैं, ‘सरकार गांवों में लोगों को औजार मुहैया कराती है। हमें इन पर पैसा खर्च नहीं करना पड़ता। हमारा कारोबार भी अच्छा चल रहा है।’

उनकी दुकान पर कार्यरत एक कर्मचारी सुभाष पारसराम माने पहले अपने घर पर ही चप्पले बनाते थे, लेकिन कोविड महामारी के बाद हालात बदल गए। कारोबार की बदली स्थिति और बीमारी की वजह से घर पर काम मिलना बंद हो गया। अपनी रोजी-रोटी चलाने के लिए उन्हें दुकान पर कारीगर के तौर पर काम करना पड़ा। इसका फायदा यह है कि यहां तयशुदा तनख्वाह मिल जाती है।

लगभग 70 वर्ष पुरानी दुकान के मालिक 35 वर्षीय प्रीतम मालेकर बताते हैं कि उनकी चार पीढि़यों से कोल्हापुरी चप्पलों का कारोबार होता आ रहा है। वे आसपास के 8-9 वेंडरों से चप्पल खरीदते हैं।

मालेकर कहते हैं, ‘निर्माताओं के समक्ष सरकार से मिलने वाले ऋण या सब्सिडी का कोई मसला नहीं है। सरकार इस चीज पर भी नजर रखती है कि चप्पल दुकानदारों या विनिर्माताओं को किसी प्रकार की दिक्कत तो पेश नहीं आ रही। इस कारोबार को लेकर सरकार का इस तरह गंभीरता दिखाना बड़ी बात है। हम बहुत छोटा कारोबार करते हैं, लेकिन सरकार की ओर से इस प्रकार के प्रोत्साहन से हमारा हौसला बढ़ता है।’ वह कहते हैं कि कोविड महामारी के दौरान भी सरकार उन पर पूरी नजर बनाए हुए थी।

आदर्श चर्म उद्योग केंद्र पर कोल्हापुरी चप्पल स्टोर के 48 वर्षीय मैनेजर दिलीप कोरे के दादा इस स्टोर के लिए चप्पल बनाते थे। कोरे ने भी इसी व्यवसाय को अपनाया और आज वह इस स्टोर का प्रबंधन संभाल रहे हैं। यहां चप्पल बनाने वाले करीब 20 कारीगर काम करते हैं।

कदम बताते हैं कि सरकार की ओर से चप्पल निर्माताओं के लिए कई योजनाएं चल रही हैं, जो उनका कारोबार बढ़ाने में खासी मददगार साबित होती हैं। कोल्हापुरी चप्पलों का कारोबार दरअसल असंगठित और काफी बिखरा हुआ है। कारीगर बहुत ही छोटे स्तर पर काम करते हैं।

महाराष्ट्र से राज्य सभा सांसद धनंजय महादिक कहते हैं, ‘हम क्लस्टर बनाकर इस धंधे और इसमें लोगों को संगठित कर एक छत के नीचे लाना चाहते हैं। इसी दिशा में काम चल रहा है, ताकि कटिंग और टैनिंग जैसे चप्पल से संबंधित सभी काम एक जगह हो जाएं। इस कारोबार में क्लस्टर के माध्यम से निवेश केवल केंद्र सरकार के जरिये ही हो सकता है। यहां दो तरह की चप्पलें बनती हैं। एक हाथ से और दूसरे मशीन से। लेकिन, काम में इतनी सफाई होती है कि दोनों तरह की चप्पल में कोई अंतर नहीं बता सकता।’

वह बताते हैं कि हाथ से बनी चप्पलों की मांग अधिक है। हाथ से बनी चप्पलों की मांग पूरी करना भी मुश्किल हो जाता है। पहले मशीन से बनीं चप्पलें बहुत अधिक बिकती हैं और समय के साथ मशीन से तैयार होने वाली चप्पलें सस्ती होती जा रही हैं।

महादिक कहते हैं, ‘क्लस्टर बनाने की मंजूरी मिल चुकी है, लेकिन इसे आकार देने में थोड़ी देर हो रही है। क्लस्टर बनते ही यह उद्योग संगठित हो जाएगा और सरकार भी खूब मदद करेगी। लेकिन, अभी इस प्रक्रिया में 5 से 10 साल लग सकते हैं।’

उन्होंने यह भी बताया कि कारीगरों के बच्चे अब इस काम से जुड़ना नहीं चाहते। वे दूसरे कारोबार करना चाहते हैं। हमें इन कारीगरों की पूरी देखभाल करनी पड़ती है। महादिक ने कहा, ‘हमने कोल्हापुरी चप्पल का पेटेंट लेने का भी प्रयास किया था, लेकिन यह इतना भी आसान नहीं है। यदि एक बार पेटेंट मिल जाए तो फिर इस उद्योग को संगठित करना आसान हो जाएगा। वैसे इस उद्योग का भविष्य चमकदार दिखता है।’

महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स, इंडस्ट्री ऐंड एग्रीकल्चर के अध्यक्ष ललित गांधी कहते हैं, ‘दुर्भाग्य से इस कारोबार के असंगठित होने का सबसे बड़ा दुष्प्रभाव बाजार पर पड़ रहा है। कई अन्य राज्य भी इसी प्रकार की चप्पलें बनाते हैं और उन्हें कोल्हापुरी बताकर बेचते हैं। दूसरे राज्यों द्वारा बनाई जा रहीं चप्पलें असली कोल्हापुरी नहीं हैं।’

वह कहते हैं कि इस उद्योग की एक और बड़ी कमजोरी यह है कि यहां वेंडर और निर्माता छोटे स्तर पर काम करते हैं, जबकि सरकार क्लस्टर आधारित उद्योग को बढ़ावा देती है। विक्रेताओं और निर्माताओं में कभी भी आम सहमति नहीं बन पाती। हमारी कोशिश है कि इन सभी को एकजुट करें।

First Published : May 1, 2024 | 10:39 PM IST