दिवाला एवं ऋणशोधन अक्षमता संहिता (आईबीसी) संशोधन विधेयक में लुक-बैक अवधि की गणना दिवाला प्रक्रिया की शुरुआत के बजाय दिवाला की पहल की तिथि से करने का प्रावधान किया गया है। इसका मकसद लेन-देन की एक विस्तृत श्रृंखला को शामिल करना है। खासकर इसमें ऐसे लेन-देन को शामिल करने का मकसद है, जो परिसंपत्ति को दिवालिया प्रक्रिया से बाहर रखने के लिए किए गए थे।
सरकार ने मंगलवार को लोकसभा में आईबीसी विधेयक पेश किया है। इसमें व्यापक सुधारों का प्रस्ताव किया गया है, जिसमें ग्रुप और क्रॉस बॉर्डर इनसॉल्वेंसी से लेकर ऋणदाता की पहल पर शुरू हुई दिवाला समाधान प्रक्रिया शामिल है। सरकार ने यह विधेयर प्रवर समिति के पास भेज दिया है। आईबीसी के मुताबिक आवेदन 14 दिनों में स्वीकार हो जाना चाहिए। यदि इससे अधिक समय लगता है तो तरजीही सौदों के लिए लुक बैक की अवधि में ऐसे ज्यादातर सौदे नहीं आ पाते, जो आवेदन स्वीकार करने से पहले किए गए हों।
सरकार को चिंता थी कि इससे ऋणग्रस्त कंपनियां कोशिश करतीं कि दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू करने का आवेदन देर से स्वीकार किया जाए ताकि ऐसे सौदे उसके दायरे में नहीं आ पाएं, जिन्हें करना जरूरी नहीं था। विधेयक में कहा गया है, ‘इसलिए तरजीही सौदों के लिए लुक-बैक अवधि को इस तरह बदला गया है कि आवेदन से पहले हुए अधिक सौदे उसके दायरे में आ सकें। इनमें खास तौर पर वे सौदे होंगे, जो दिवाला समाधान प्रक्रिया शुरू होने की संभावना देखकर किए जाते हैं ताकि परिसंपत्तियों को प्रक्रिया से बाहर रखा जा सके।’
ग्रांट थॉर्नटन में पार्टनर सुरेंद्र राज ने कहा कि समाधान पेशेवरों और परिसमापकों को सावधानी से जांच करनी चाहिए ताकि सही कारोबारी सौदों को तरजीही सौदों की श्रेणी में नहीं रख दिया जाए और हर सौदे को धोखाधड़ी न मान लिया जाए। इस तरह के ढेरों मामले एनसीएलटी में पहले ही लंबित हैं।