साल 2020 तक देश में 81 लाख टन खाद्य तेल की कमी हो सकती है यानी कमी का स्तर 73.5 फीसदी तक पहुंच सकता है।
वर्तमान में देश में 47.1 लाख टन खाद्य तेल की कमी है। ऐसे में और घरेलू उत्पादन में बढ़ोतरी नहीं हुई तो स्थिति और भी भयावह हो सकती है।
एसोचैम की रिपोर्ट में कहा गया है कि घरेलू स्तर पर उत्पादन बढ़ाना आसान नहीं है क्योंकि विभिन्न फसलों के उत्पादन क्षेत्र की बढ़ती आपसी प्रतिस्पर्धा इसमें आड़े आ रही है।
कहने का मतलब ये है कि खाद्य तेल की कमी पूरी करने के लिए तिलहन की बुआई पर्याप्त नहीं हो रही। इसके साथ ही जरूरत के मुताबिक सिंचाई का इंतजाम नहीं हो पा रहा है। एसोचैम की रिपोर्ट के मुताबिक, साल दर साल बढ़ती आबादी के साथ-साथ देश में खाद्य तेल की खपत भी बढ़ रही है।
पिछले दो दशक में खाद्य तेल की प्रति व्यक्ति खपत में काफी बढ़ोतरी हुई है। 1986-87 में जहां 49.59 लाख टन खाद्य तेल की खपत हो रही थी, वहीं 2006-07 में यह बढ़कर 114.5 लाख टन पर पहुंच गई है।
इस तरह खाद्य तेल की खपत में 4.25 फीसदी की चक्रवृध्दि दर से बढ़ोतरी हुई। यहां खाद्य तेल में सोया, मूंगफली, सरसों, सनफ्लावर, तिल, नारियल, राइस ब्रान और कॉटनसीड तेल शामिल हैं।
रिपोर्ट में कहा गया है कि खान-पान की आदत में बदलाव और प्रति व्यक्ति आय में हो रही बढ़ोतरी की बदौलत खाद्य तेल की खपत में इजाफा हुआ है। उन्होंने कहा कि 1986-87 में जहां प्रति व्यक्ति खपत 6.43 किलो सालाना थी, वहीं 2006-07 में यह बढ़कर 10.23 किलो सालाना हो गई।
इस तरह इसमें 2.23 फीसदी की चक्रवृध्दि दर से बढ़ोतरी हुई। रावत ने कहा कि बढ़ती आबादी और प्रति व्यक्ति खपत में बढ़ोतरी को देखते हुए खाद्य तेल के बड़े हिस्से का आयात किया जाएगा क्योंकि देसी उत्पादन पर्याप्त रूप से नहीं बढ़ रहा।
रिपोर्ट के मुताबिक, तिलहन के रकबे में बढ़ोतरी के सीमित साधन के चलते देश में खाद्य तेल का उत्पादन बहुत ज्यादा नहीं बढ़ सकता। सरसों की पैदावार में थोड़ी-बहुत बढ़ोतरी की संभावना सिंचाई के अपर्याप्त साधन के चलते धरी की धरी रह जाती है और इस तरह इसकी पैदावार कुल मिलाकर स्थिर है।
इसके अलावा दूसरी फसल के मुकाबले तिलहन किसान के लिए ज्यादा फायदेमंद नहीं साबित होता, लिहाजा वे इसकी खेती की तरफ ध्यान नहीं देते।
ऐसे में सरकारी प्रोत्साहन भी किसानों को बहुत ज्यादा नहीं लुभाता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि सोयाबीन और सनफ्लावर की पैदावार की दर अंतरराष्ट्रीय औसत की आधी है।
पारंपरिक तिलहन की उपज का स्तर भी अंतरराष्ट्रीय पैदावार की दर से काफी पीछे है। इस कमी के पीछे अपर्याप्त सिंचाई के साधन हैं। वर्तमान में तिलहन की बुआई क्षेत्र का तीन चौथाई इलाका बारिश पर निर्भर है। इसके अलावा दूसरी फसलों के मुकाबले कम लाभदायक होने की वजह से किसान तिलहन कम उपजाऊ क्षेत्र में बोते हैं।
रिपोर्ट के मुताबिक, हरित क्रांति में मुख्य रूप से खाद्यान्न के उत्पादन पर जोर दिया गया, तिलहन पर नहीं। यही वजह है कि तिलहन की पैदावार में बहुत हद तक इजाफा नहीं हो पाया।
अच्छी पैदावार वाली बीजों के विकास पर ध्यान न देने से भी तिलहन की पैदावार में बढ़ोतरी नहीं हो पाई और अच्छी वेरायटी के मौजूदा बीजों को भी किसान तक नहीं पहुंचाए जाने से तिलहन की विकास दर पर काफी असर पड़ा।
लगातार एक ही जमीन पर मूंगफली उगाने से भी न सिर्फ इसकी पैदावार पर असर पड़ रहा है बल्कि जमीन भी प्रभावित हो रही है। परिणामस्वरूप उपज कम हो रही है। इसके अलावा मूंगफली की खली की मांग भी विदेशों में कम है क्योंकि इसमें कुछ ऐसी चीजें होती है जो पोल्ट्री में कम पसंद की जाती है।
रिपोर्ट में पाम तेल का उत्पादन बढ़ाने की वकालत की गई है क्योंकि इसमें प्रति एकड़ जमीन पर ज्यादा उत्पादन की क्षमता होती है। सरकार ने 1992 में डिवेलपमेंट प्रोग्राम शुरू किया था, जिसके तहत इसके फसल क्षेत्र में इजाफा किए जाने पर जोर था, पर अब भी यह लक्ष्य से दूर है।
इसके अलावा रिपोर्ट में कहा गया है कि तिलहन के फसल क्षेत्र में सिंचाई का पर्याप्त इंतजाम किया जाए ताकि देश में खाद्य तेल का उत्पादन बढ़े।